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शुक्रवार, 3 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

एवं राजा विदुरेणानुजेन
     प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
     निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८ ॥
पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
     पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं
     मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९ ॥
अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निः
     विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
     न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च ॥ ३० ॥
तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१ ॥
अम्बा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः शमलं गङ्‌गायां दुःखितोऽपतत् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३ ॥

जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्रको  इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़ स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ २८ ॥ जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है, जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ २९ ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्रचित्त होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥ पुत्रशोकसे पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे दुखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजीमें तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥ जब हमारे पिता पाण्डुकी मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दु:खोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय ! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 2 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि ।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैः धनादिभिः ॥ २० ॥
पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः ।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे ॥ २१ ॥
अहो महीयसी जन्तोः जीविताशा यया भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डं आदत्ते गृहपालवत् ॥ २२ ॥
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ २३ ॥
तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव ॥ २४ ॥
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः ।
अविज्ञातगतिः जह्यात् स वै धीर उदाहृतः ॥ २५ ॥
यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात् प्रव्रजेत् स नरोत्तमः ॥ २६ ॥
अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञात गतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक् प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः ॥ २७ ॥

(विदुरजी धृतराष्ट्र से कहते हैं)  काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ २० ॥ आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे- सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप पराये घरमें पड़े हुए हैं ॥ २१ ॥ ओह ! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है ! इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है ॥ २३ ॥ आपके अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है ॥ २४ ॥ अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है ॥ २५ ॥ चाहे अपनी समझ से हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दु:खरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान्‌ को धारण कर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ २६ ॥ इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्राय: मनुष्यों के गुणों को घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ॥ २७ ॥

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बुधवार, 1 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

कञ्चित् कालमथावात्सीत् सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत् सर्वेषां सुखमावहन् ॥ १४ ॥
अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावत् अघकारिषु ।
यावद् दधार शूद्रत्वं शापात् वर्षशतं यमः ॥ १५ ॥
युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैः मुमुदे परया श्रिया ॥ १६ ॥
एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामत् अविज्ञातः कालः परमदुस्तरः ॥ १७ ॥
विदुरस्तत् अभिप्रेत्य धृतराष्ट्रं अभाषत ।
राजन् निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम् ॥ १८ ॥
प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित् कर्हिचित् प्रभो ।
स एष भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः ॥ १९ ॥

पाण्डव विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण-कामना से सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ १४ ॥ विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे [*]। इतने दिनों तक यमराज के पदपर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ १५ ॥ राज्य प्राप्त हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित्‌ को देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने लगे ॥ १६ ॥ इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ॥ १७ ॥
परन्तु विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये ॥ १८ ॥ हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है ॥ १९ ॥ 
........................................................
[*] एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरी में शामिल होंगे। अत: वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञासे सबके साथ उनको भी सूलीपर चढ़ा दिया गया। राजाको यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं—ऋषिको सूलीसे उतरवा दिया और हाथ जोडक़र उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्यजीने यमराजके पास जाकर पूछा—‘मुझे किस पापके फलस्वरूप यह दण्ड मिला ?’ यमराजने बताया कि ‘आपने लडक़पनमें एक टिड्डीको कुशकी नोकसे छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इसपर मुनिने कहा—‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटेसे अपराधके लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्षतक शूद्रयोनिमें रहोगे।’ माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया था।

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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

युधिष्ठिर उवाच ।

अपि स्मरथ नो युष्मत् पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्‍गणाद् विषाग्न्यादेः मोचिता यत्समातृकाः ॥ ८ ॥
कया वृत्त्या वर्तितं वः चरद्‌भिः क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥ ९ ॥
भवद्विधा भागवताः तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ १० ॥
अपि नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः ।
दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११ ॥
इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत् ।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥ १२ ॥
नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत् सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः ॥ १३ ॥

युधिष्ठिर ने (विदुरजी से) कहा—चाचाजी ! जैसे पक्षी अपने अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने कर-कमलों की छत्रछाया में हमलोगों को पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृहके दाह आदि विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हमलोगोंकी भी याद करते रहे हैं ? ॥ ८ ॥ आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह किया ? आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रोंका सेवन किया ? ॥ ९ ॥ प्रभो ! आप-जैसे भगवान्‌के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप होते हैं। आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान्‌ के द्वारा तीर्थोंको  भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ॥ १० ॥ चाचाजी ! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ ११ ॥ युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया, केवल यदुवंशके विनाश की बात नहीं कही ॥ १२ ॥ करुणहृदय विदुरजी पाण्डवोंको दुखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी ॥ १३ ॥

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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सूत उवाच ।

विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाt हास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥ १ ॥
यावतः कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः ।
जातैकभक्तिः गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २ ॥
तं बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः ।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा ॥ ३ ॥
गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च जामयः पाण्डोः ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः ॥ ४ ॥
प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम् ।
अभिसङ्‌गम्य विधिवत् परिष्वङ्‌गाभिवादनैः ॥ ५ ॥
मुमुचुः प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्य कातराः ।
राजा तमर्हयां चक्रे कृतासन परिग्रहम् ॥ ६ ॥
तं भुक्तवन्तं विश्रान्तं आसीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श्रृण्वताम् ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी, वह पूर्ण हो गयी थी ॥ १ ॥ विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्र किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले ही श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे उत्तर सुननेसे उपराम हो गये ॥ २ ॥ शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, ययुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमें प्राण आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये। यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये। युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया ॥ ३—६ ॥ जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ॥ ७ ॥

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रविवार, 28 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

परीक्षित् का जन्म

स राजपुत्रो ववृधे आशु शुक्ल इवोडुपः ।
आपूर्यमाणः पितृभिः काष्ठाभिरिव सोऽन्वहम् ॥ ३१ ॥
यक्ष्यमाणोऽश्वमेधेन ज्ञातिद्रोहजिहासया ।
राजा लब्धधनो दध्यौ अन्यत्र करदण्डयोः ॥ ३२ ॥
तदभिप्रेतमालक्ष्य भ्रातरोऽच्युतचोदिताः ।
धनं प्रहीणमाजह्रुः उदीच्यां दिशि भूरिशः ॥ ३३ ॥
तेन सम्भृतसम्भारो धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः ।
वाजिमेधैः त्रिभिर्भीतो यज्ञैः समयजत् हरिम् ॥ ३४ ॥
आहूतो भगवान् राज्ञा याजयित्वा द्विजैर्नृपम् ।
उवास कतिचित् मासान् सुहृदां प्रियकाम्यया ॥ ३५ ॥
ततो राज्ञाभ्यनुज्ञातः कृष्णया सहबन्धुभिः ।
ययौ द्वारवतीं ब्रह्मन् सार्जुनो यदुभिर्वृतः ॥ ३६ ॥

जैसे शुक्लपक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार(परीक्षित्) भी अपने गुरुजनोंके लालन-पालनसे क्रमश: अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया ॥ ३१ ॥ इसी समय स्वजनोंके वध का प्रायश्चित्त करनेके लिये राजा युधिष्ठिरने अश्वमेध-यज्ञके द्वारा भगवान्‌की आराधना करनेका विचार किया, परन्तु प्रजासे वसूल किये हुए कर और दण्ड (जुर्माने) की रकमके अतिरिक्त और धन न होनेके कारण वे बड़ी चिन्तामें पड़ गये ॥ ३२ ॥ उनका अभिप्राय समझकर भगवान्‌ श्रीकृष्णकी प्रेरणासे उनके भाई उत्तर दिशामें राजा मरुत्त और ब्राह्मणोंद्वारा छोड़ा हुआ [*] बहुत-सा धन ले आये ॥ ३३ ॥ उससे यज्ञकी सामग्री एकत्र करके धर्मभीरु महाराज युधिष्ठिरने तीन अश्वमेध-यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌की पूजा की ॥ ३४ ॥ युधिष्ठिरके निमन्त्रणसे पधारे हुए भगवान्‌ ब्राह्मणोंद्वारा उनका यज्ञ सम्पन्न कराकर अपने सुहृद् पाण्डवोंकी प्रसन्नताके लिये कई महीनोंतक वहीं रहे ॥ ३५ ॥ शौनकजी ! इसके बाद भाइयोंसहित राजा युधिष्ठिर और द्रौपदीसे अनुमति लेकर अर्जुनके साथ यदुवंशियोंसे घिरे हुए भगवान्‌ श्रीकृष्णने द्वारकाके लिये प्रस्थान किया ॥ ३६ ॥
...........................................
 [*] पूर्वकालमें महाराज मरुत्त ने ऐसा यज्ञ किया था, जिसमें सभी पात्र सुवर्णके थे। यज्ञ समाप्त हो जानेपर उन्होंने वे पात्र उत्तर दिशामें फिंकवा दिये थे। उन्होंने ब्राह्मणोंको भी इतना धन दिया कि वे उसे ले जा न सके; वे भी उसे उत्तर दिशामें ही छोडक़र चले आये। परित्यक्त धनपर राजाका अधिकार होता है, इसलिये उस धनको मँगवाकर भगवान्‌ ने युधिष्ठिरका यज्ञ कराया।

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने परीक्षिज्जन्माद्युत्कर्षो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शनिवार, 27 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

परीक्षित् का जन्म

आहर्तैषोऽश्वमेधानां वृद्धानां पर्युपासकः ॥ २५ ॥
राजर्षीणां जनयिता शास्ता चोत्पथगामिनाम् ।
निग्रहीता कलेरेष भुवो धर्मस्य कारणात् ॥ २६ ॥
तक्षकादात्मनो मृत्युं द्विजपुत्रोपसर्जितात् ।
प्रपत्स्यत उपश्रुत्य मुक्तसङ्‌गः पदं हरेः ॥ २७ ॥
जिज्ञासितात्म याथार्थ्यो मुनेर्व्याससुतादसौ ।
हित्वेदं नृप गङ्‌गायां यास्यत्यद्धा अकुतोभयम् ॥ २८ ॥
इति राज्ञ उपादिश्य विप्रा जातककोविदाः ।
लब्धापचितयः सर्वे प्रतिजग्मुः स्वकान् गृहान् ॥ २९ ॥
स एष लोके विख्यातः परीक्षिदिति यत्प्रभुः ।
पूर्वं दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ॥ ३० ॥

(ब्राह्मण युधिष्ठिर से कह रहे हैं कि यह बालक) धैर्य में बलिके समान और भगवान्‌ श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लादके समान होगा। यह बहुत-से अश्वमेध- यज्ञोंका करनेवाला और वृद्धोंका सेवक होगा ॥ २५ ॥ इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादाका उल्लङ्घन करनेवालोंको यह दण्ड देगा। यह पृथ्वीमाता और धर्मकी रक्षाके लिये कलियुगका भी दमन करेगा ॥ २६ ॥ ब्राह्मण-कुमारके शापसे तक्षकके द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान्‌के चरणोंकी शरण लेगा ॥ २७ ॥ राजन् ! व्यासनन्दन शुकदेवजीसे यह आत्माके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्तमें गङ्गातटपर अपने शरीरको त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा ॥ २८ ॥
ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको इस प्रकार बालकके जन्मलग्रका फल बतलाकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये ॥ २९ ॥ वही यह बालक संसारमें परीक्षित्‌के नामसे प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भमें जिस पुरुषका दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगोंमें उसीकी परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमेंसे कौन-सा वह है ॥ ३० ॥ 

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शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

परीक्षित् का जन्म

युधिष्ठिर उवाच ।

अप्येष वंश्यान् राजर्षीन् पुण्यश्लोकान् महात्मनः ।
अनुवर्तिता स्विद्यशसा साधुवादेन सत्तमाः ॥ १८ ॥

ब्राह्मणा ऊचुः ।

पार्थ प्रजाविता साक्षात् इक्ष्वाकुरिव मानवः ।
ब्रह्मण्यः सत्यसन्धश्च रामो दाशरथिर्यथा ॥ १९ ॥
एष दाता शरण्यश्च यथा ह्यौशीनरः शिबिः ।
यशो वितनिता स्वानां दौष्यन्तिरिव यज्वनाम् ॥ २० ॥
धन्विनामग्रणीरेष तुल्यश्चार्जुनयोर्द्वयोः ।
हुताश इव दुर्धर्षः समुद्र इव दुस्तरः ॥ २१ ॥
मृगेन्द्र इव विक्रान्तो निषेव्यो हिमवानिव ।
तितिक्षुर्वसुधेवासौ सहिष्णुः पितराविव ॥ २२ ॥
पितामहसमः साम्ये प्रसादे गिरिशोपमः ।
आश्रयः सर्वभूतानां यथा देवो रमाश्रयः ॥ २३ ॥
सर्वसद्‍गुणमाहात्म्ये एष कृष्णमनुव्रतः ।
रन्तिदेव इवोदारो ययातिरिव धार्मिकः ॥ २४ ॥

युधिष्ठिरने कहा—महात्माओ ! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यशसे हमारे वंशके पवित्रकीर्ति महात्मा राजर्षियोंका अनुसरण करेगा ? ॥ १८ ॥
ब्राह्मणोंने कहा—धर्मराज ! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजाका पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान्‌ श्रीरामके समान ब्राह्मणभक्त और सत्यप्रतिज्ञ होगा ॥ १९ ॥ यह उशीनर- नरेश शिबिके समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकोंमें दुष्यन्तके पुत्र भरतके समान अपने वंशका यश फैलायेगा ॥ २० ॥ धनुर्धरोंमें यह सहस्रबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थके समान अग्रगण्य होगा। यह अग्निके समान दुर्धर्ष और समुद्रके समान दुस्तर होगा ॥ २१ ॥ यह सिंहके समान पराक्रमी, हिमाचलकी तरह आश्रय लेनेयोग्य, पृथ्वीके सदृश तितिक्षु और माता- पिताके समान सहनशील होगा ॥ २२ ॥ इसमें पितामह ब्रह्माके समान समता रहेगी, भगवान्‌ शङ्करकी तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियोंको आश्रय देनेमें यह लक्ष्मीपति भगवान्‌ विष्णुके समान होगा ॥ २३ ॥ यह समस्त सद्गुणोंकी महिमा धारण करनेमें श्रीकृष्णका अनुयायी होगा, रन्तिदेवके समान उदार होगा और ययातिके समान धार्मिक  होगा ॥ २४ ॥ 

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गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

परीक्षित् का जन्म

ततः सर्वगुणोदर्के सानुकूल ग्रहोदये ।
जज्ञे वंशधरः पाण्डोः भूयः पाण्डुरिवौजसा ॥ १२ ॥
तस्य प्रीतमना राजा विप्रैर्धौम्य कृपादिभिः ।
जातकं कारयामास वाचयित्वा च मङ्‌गलम् ॥ १३ ॥
हिरण्यं गां महीं ग्रामान् हस्त्यश्वान् नृपतिर्वरान् ।
प्रादात्स्वन्नं च विप्रेभ्यः प्रजातीर्थे स तीर्थवित् ॥ १४ ॥
तमूचुर्ब्राह्मणास्तुष्टा राजानं प्रश्रयान्वितम् ।
एष ह्यस्मिन् प्रजातन्तौ पुरूणां पौरवर्षभ ॥ १५ ॥
दैवेनाप्रतिघातेन शुक्ले संस्थामुपेयुषि ।
रातो वोऽनुग्रहार्थाय विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ १६ ॥
तस्मान्नाम्ना विष्णुरात इति लोके बृहच्छ्रवाः ।
भविष्यति न सन्देहो महाभागवतो महान् ॥ १७ ॥

तदनन्तर अनुकूल ग्रहोंके उदयसे युक्त समस्त सद्गुणोंको विकसित करनेवाले शुभ समयमें पाण्डुके वंशधर परीक्षित्‌का जन्म हुआ। जन्मके समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डुने ही फिरसे जन्म लिया हो ॥ १२ ॥ पौत्रके जन्मकी बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मनमें बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणोंसे मङ्गलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ महाराज युधिष्ठिर दानके योग्य समयको जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ [*] नामक कालमें अर्थात् नाल काटनेके पहले ही ब्राह्मणोंको सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जातिके हाथी- घोड़े और उत्तम अन्नका दान दिया ॥ १४ ॥ ब्राह्मणोंने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिरसे कहा—‘पुरुवंश-शिरोमणे ! कालकी दुर्निवार गतिसे यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुमलोगोंपर कृपा करनेके लिये भगवान्‌ विष्णुने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी ॥ १५-१६ ॥ इसीलिये इसका नाम विष्णुरात होगा। निस्सन्देह यह बालक संसारमें बड़ा यशस्वी, भगवान्‌का परम भक्त और महापुरुष होगा’ ॥ १७ ॥
.....................................................
[*] नालच्छेदनसे पहले सूतक नहीं होता, जैसे कहा है—‘यावन्न छिद्यते नालं तावन्नाप्नोति सूतकम्। छिन्ने नाले तत: पश्चात् सूतकं तु विधीयते ॥’ इसी समयको ‘प्रजातीर्थ’ काल कहते हैं। इस समय जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है। स्मृति कहती है—‘पुत्रे जाते व्यतीपाते दत्तं भवति चाक्षयम्।’ अर्थात् ‘पुत्रोत्पत्ति और व्यतीपातके समय दिया हुआ दान अक्षय होता है।’

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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

परीक्षित् का जन्म

मातुर्गर्भगतो वीरः स तदा भृगुनन्दन ।
ददर्श पुरुषं कञ्चिद् दह्यमानोऽस्त्रतेजसा ॥ ७ ॥
अङ्‌गुष्ठमात्रममलं स्फुरत् पुरट मौलिनम् ।
अपीव्यदर्शनं श्यामं तडिद् वाससमच्युतम् ॥ ८ ॥
श्रीमद् दीर्घचतुर्बाहुं तप्तकाञ्चन कुण्डलम् ।
क्षतजाक्षं गदापाणिं आत्मनः सर्वतो दिशम् ।
परिभ्रमन्तं उल्काभां भ्रामयन्तं गदां मुहुः ॥ ९ ॥
अस्त्रतेजः स्वगदया नीहारमिव गोपतिः ।
विधमन्तं सन्निकर्षे पर्यैक्षत क इत्यसौ ॥ १० ॥
विधूय तदमेयात्मा भगवान् धर्मगुब् विभुः ।
मिषतो दशमासस्य तत्रैवान्तर्दधे हरिः ॥ ११ ॥

(सूतजी कहते हैं) शौनकजी ! उत्तरा के गर्भमें स्थित वह वीर शिशु परीक्षित्‌ जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्रके तेजसे जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखोंके सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है ॥ ७ ॥ वह देखनेमें तो अँगूठेभर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजलीके समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिरपर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुषके बड़ी ही सुन्दर लंबी-लंबी चार भुजाएँ हैं। कानोंमें तपाये हुए स्वर्णके सुन्दर कुण्डल हैं, आँखोंमें लालिमा है, हाथमें लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशुके चारों ओर घूम रहा है ॥ ८-९ ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदाके द्वारा ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करता जा रहा था। उस पुरुषको अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है ॥ १० ॥ इस प्रकार उस दस मासके गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्मरक्षक अप्रमेय भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्रके तेजको शान्त करके वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥

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मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध बारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--बारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

परीक्षित् का जन्म

शौनक उवाच ।

अश्वत्थाम्नोपसृष्टेन ब्रह्मशीर्ष्णोरुतेजसा ।
उत्तराया हतो गर्भ ईशेनाजीवितः पुनः ॥ १ ॥
तस्य जन्म महाबुद्धेः कर्माणि च महात्मनः ।
निधनं च यथैवासीत् स प्रेत्य गतवान् यथा ॥ २ ॥
तदिदं श्रोतुमिच्छामो गदितुं यदि मन्यसे ।
ब्रूहि नः श्रद्दधानानां यस्य ज्ञानमदाच्छुकः ॥ ३ ॥

सूत उवाच ।

अपीपलद्धर्मराजः पितृवद् रञ्जयन् प्रजाः ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यः कृष्णपादानुसेवया ॥ ४ ॥
सम्पदः क्रतवो लोका महिषी भ्रातरो मही ।
जम्बूद्वीपाधिपत्यं च यशश्च त्रिदिवं गतम् ॥ ५ ॥
किं ते कामाः सुरस्पार्हा मुकुन्दमनसो द्विजाः ।
अधिजह्रुर्मुदं राज्ञः क्षुधितस्य यथेतरे ॥ ६ ॥

शौनकजीने कहा—अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तरा का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान्‌ने उसे पुन: जीवित कर दिया ॥ १ ॥ उस गर्भसे पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित्‌के, जिन्हें शुकदेवजीने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हमलोग बड़ी श्रद्धाके साथ सुनना चाहते हैं ॥ २-३ ॥
सूतजीने कहा—धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजाको प्रसन्न रखते हुए पिताके समान उसका पालन करने लगे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरण-कमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से नि:स्पृह हो गये थे ॥ ४ ॥  शौनकादि ऋषियो ! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकोंका अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्गतक फैली हुई थी ॥ ५ ॥ उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवतालोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्यको भोजनके अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान्‌ के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी ॥ ६ ॥

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सोमवार, 22 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

उद्दामभाव पिशुनामल वल्गुहास ।
     व्रीडावलोकनिहतो मदनोऽपि यासाम् ॥
सम्मुह्य चापमजहात् प्रमदोत्तमास्ता ।
     यस्येन्द्रियं विमथितुं कुहकैर्न शेकुः ॥ ३६ ॥
तमयं मन्यते लोको ह्यसङ्‌गमपि सङ्‌गिनम् ।
आत्मौपम्येन मनुजं व्यापृण्वानं यतोऽबुधः ॥ ३७ ॥
एतत् ईशनमीशस्य प्रकृतिस्थोऽपि तद्‍गुणैः ।
न युज्यते सदाऽत्मस्थैः यथा बुद्धिस्तदाश्रया ॥ ३८ ॥
तं मेनिरेऽबला मूढाः स्त्रैणं चानुव्रतं रहः ।
अप्रमाणविदो भर्तुः ईश्वरं मतयो यथा ॥ ३९ ॥

जिनकी निर्मल और मधुर हँसी उनके हृदयके उन्मुक्त भावोंको सूचित करनेवाली थी, जिनकी लजीली चितवनकी चोटसे बेसुध होकर विश्वविजयी कामदेवने भी अपने धनुषका परित्याग कर दिया था—वे कमनीय कामिनियाँ अपने काम-विलासोंसे जिनके मनमें तनिक भी क्षोभ नहीं पैदा कर सकीं, उन असङ्ग भगवान्‌ श्रीकृष्णको संसारके लोग अपने ही समान कर्म करते देखकर आसक्त मनुष्य समझते हैं—यह उनकी मूर्खता है ॥ ३६-३७ ॥ यही तो भगवान्‌की भगवत्ता है कि वे प्रकृतिमें स्थित होकर भी उसके गुणोंसे कभी लिप्त नहीं होते, जैसे भगवान्‌की शरणागत बुद्धि अपनेमें रहनेवाले प्राकृत गुणोंसे लिप्त नहीं होती ॥ ३८ ॥ वे मूढ़ स्त्रियाँ भी श्रीकृष्णको अपना एकान्तसेवी, स्त्रीपरायण भक्त ही समझ बैठी थीं; क्योंकि वे अपने स्वामीके ऐश्वर्यको नहीं जानती थीं—ठीक वैसे ही जैसे अहंकारकी वृत्तियाँ ईश्वरको अपने धर्मसे युक्त मानती हैं ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने श्रीकृष्णद्वारकाप्रवेशो नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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रविवार, 21 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०८)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

यद्यप्यसौ पार्श्वगतो रहोगतः
     तथापि तस्याङ्‌घ्रियुगं नवं नवम् ।
पदे पदे का विरमेत तत्पदात्
     चलापि यच्छ्रीर्न जहाति कर्हिचित् ॥ ३३ ॥
एवं नृपाणां क्षितिभारजन्मनां
     अक्षौहिणीभिः परिवृत्ततेजसाम् ।
विधाय वैरं श्वसनो यथानलं
     मिथो वधेनोपरतो निरायुधः ॥ ३४ ॥
स एष नरलोकेऽस्मिन् अवतीर्णः स्वमायया ।
रेमे स्त्रीरत्‍नकूटस्थो भगवान् प्राकृतो यथा ॥ ३५ ॥

यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण एकान्त में सर्वदा ही उनके (रानियों के) पास रहते थे, तथापि उनके चरण-कमल उन्हें पद-पद पर नये-नये जान पड़ते। भला, स्वभाव से ही चञ्चल लक्ष्मी जिन्हें एक क्षण के लिये भी कभी नहीं छोड़तीं, उनकी संनिधि से किस स्त्री को तृप्ति हो सकती है ॥ ३३ ॥
जैसे वायु बाँसों के संघर्षसे दावानल पैदा करके उन्हें जला देता है, वैसे ही पृथ्वी के भारभूत और शक्तिशाली राजाओं में परस्पर फूट डालकर बिना शस्त्र ग्रहण किये ही भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने उन्हें कई अक्षौहिणी सेनासहित एक-दूसरे से मरवा डाला और उसके बाद आप भी उपराम हो गये ॥ ३४ ॥ साक्षात् परमेश्वर ही अपनी लीलासे इस मनुष्य-लोकमें अवतीर्ण हुए थे और सहस्रों रमणी-रत्नोंमें रहकर उन्होंने साधारण मनुष्य की तरह क्रीडा की ॥ ३५ ॥ 

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शनिवार, 20 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

प्रविष्टस्तु गृहं पित्रोः परिष्वक्तः स्वमातृभिः ।
ववन्दे शिरसा सप्त देवकीप्रमुखा मुदा ॥ २८ ॥
ताः पुत्रमङ्‌कं आरोप्य स्नेहस्नुत पयोधराः ।
हर्षविह्वलितात्मानः सिषिचुः नेत्रजैर्जलैः ॥ २९ ॥
अथाविशत् स्वभवनं सर्वकाममनुत्तमम् ।
प्रासादा यत्र पत्‍नीनां सहस्राणि च षोडश ॥ ३० ॥
पत्‍न्यः पतिं प्रोष्य गृहानुपागतं
     क्य सञ्जात मनोमहोत्सवाः ।
उत्तस्थुरारात् सहसासनाशयात्
     व्रतैः व्रीडित लोचनाननाः ॥ ३१ ॥
तं आत्मजैः दृष्टिभिरन्तरात्मना
     दुरन्तभावाः परिरेभिरे पतिम् ।
निरुद्धमप्यास्रवदम्बु नेत्रयोः
     विलज्जतीनां भृगुवर्य वैक्लवात् ॥ ३२ ॥

भगवान्‌ सबसे पहले अपने माता-पिताके महलमें गये। वहाँ उन्होंने बड़े आनन्दसे देवकी आदि सातों माताओंको चरणोंपर सिर रखकर प्रणाम किया और माताओंने उन्हें अपने हृदयसे लगाकर गोदमें बैठा लिया। स्नेहके कारण उनके स्तनोंसे दूधकी धारा बहने लगी, उनका हृदय हर्षसे विह्वल हो गया और वे आनन्दके आँसुओंसे उनका अभिषेक करने लगीं ॥ २८-२९ ॥ माताओंसे आज्ञा लेकर वे अपने समस्त भोग-सामग्रियोंसे सम्पन्न सर्वश्रेष्ठ भवनमें गये। उसमें सोलह हजार पत्नियों के अलग-अलग महल थे ॥ ३० ॥ अपने प्राणनाथ भगवान्‌ श्रीकृष्णको बहुत दिन बाहर रहनेके बाद घर आया देखकर रानियों के हृदयमें बड़ा आनन्द हुआ। उन्हें अपने निकट देखकर वे एकाएक ध्यान छोडक़र उठ खड़ी हुर्ईं; उन्होंने केवल आसनको ही नहीं, बल्कि उन नियमोंको[*] भी त्याग दिया, जिन्हें उन्होंने पति के प्रवासी होनेपर ग्रहण किया था। उस समय उनके मुख और नेत्रोंमें लज्जा छा गयी ॥ ३१ ॥ भगवान्‌के प्रति उनका भाव बड़ा ही गम्भीर था। उन्होंने पहले मन-ही-मन, फिर नेत्रोंके द्वारा और तत्पश्चात् पुत्रों के बहाने शरीर से उनका आलिङ्गन किया। शौनकजी ! उस समय उनके  नेत्रों में जो प्रेम के आँसू छलक आये थे, उन्हें सङ्कोचवश उन्होंने बहुत रोका। फिर भी विवशता के कारण वे ढलक ही गये ॥ ३२ ॥
......................................................

[*] जिस स्त्रीका पति विदेश गया हो, उसे इन नियमोंका पालन करना चहिये—
क्रीडां शरीरसंस्कारं समाजोत्सवदर्शनम्। हास्यं परगृहे यानं त्यजेत्प्रोषितभर्तृका ॥
जिसका पति परदेश गया हो, उस स्त्री को खेल-कूद, शृंगार, सामाजिक उत्सवों में भाग लेना, हँसी-मजाक करना और पराये घर जाना—इन पाँच कामों को त्याग देना चाहिये। ............(याज्ञवल्क्यस्मृति)

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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

राजमार्गं गते कृष्णे द्वारकायाः कुलस्त्रियः ।
हर्म्याण्यारुरुहुर्विप्र तदीक्षण महोत्सवाः ॥ २४ ॥
नित्यं निरीक्षमाणानां यदपि द्वारकौकसाम् ।
न वितृप्यन्ति हि दृशः श्रियो धामाङ्‌गमच्युतम् ॥ २५ ॥
श्रियो निवासो यस्योरः पानपात्रं मुखं दृशाम् ।
बाहवो लोकपालानां सारङ्‌गाणां पदाम्बुजम् ॥ २६ ॥
सितातपत्रव्यजनैः उपस्कृतः
     नवर्षैः अभिवर्षितः पथि ।
पिशङ्‌गवासा वनमालया बभौ
     यथार्कोडुप चाप वैद्युतैः ॥ २७ ॥

शौनकजी ! जिस समय भगवान्‌ राजमार्गसे जा रहे थे, उस समय द्वारका की कुल-कामिनियाँ भगवान्‌ के दर्शन को ही परमानन्द मानकर अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़ गयीं ॥ २४ ॥ भगवान्‌- का वक्ष:स्थल मूर्तिमान् सौन्दर्यलक्ष्मी का  निवासस्थान है। उनका मुखारविन्द नेत्रोंके द्वारा पान करनेके लिये सौन्दर्य-सुधासे भरा हुआ पात्र है। उनकी भुजाएँ लोकपालोंको भी शक्ति देनेवाली हैं। उनके चरणकमल भक्त परमहंसोंके आश्रय हैं। उनके अङ्ग-अङ्ग शोभाके धाम हैं। भगवान्‌की इस छविको द्वारकावासी नित्य-निरन्तर निहारते रहते हैं, फिर भी उनकी आँखें एक क्षणके लिये भी तृप्त नहीं होतीं ॥ २५-२६ ॥ द्वारकाके राजपथपर भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऊपर श्वेत वर्णका छत्र तना हुआ था, श्वेत चँवर डुलाये जा रहे थे, चारों ओरसे पुष्पोंकी वर्षा हो रही थी, वे पीताम्बर और वनमाला धारण किये हुए थे। इस समय वे ऐसे शोभायमान हुए, मानो श्याम मेघ एक ही साथ सूर्य, चन्द्रमा, इन्द्रधनुष और बिजलीसे शोभायमान हो ॥ २७ ॥

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गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

भगवान् तत्र बन्धूनां पौराणां अनुवर्तिनाम् ।
यथाविधि उपसङ्‌गम्य सर्वेषां मानमादधे ॥ २१ ॥
प्रह्वाभिवादन आश्लेष करस्पर्श स्मितेक्षणैः ।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्च अभिमतैर्विभुः ॥ २२ ॥
स्वयं च गुरुभिर्विप्रैः सदारैः स्थविरैरपि ।
आशीर्भिः युज्यमानोऽन्यैः वन्दिभिश्चाविशत् पुरम् ॥ २३ ॥

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने बन्धु-बान्धवों, नागरिकों और सेवकों से उनकी योग्यता के अनुसार अलग- अलग मिलकर सब का सम्मान किया ॥ २१ ॥ किसी  को सिर झुकाकर प्रणाम किया, किसी को वाणीसे अभिवादन किया, किसीको हृदयसे लगाया, किसीसे हाथ मिलाया, किसीकी ओर देखकर मुसकरा भर दिया और किसीको केवल प्रेमभरी दृष्टिसे देख लिया। जिसकी जो इच्छा थी, उसे वही-वरदान दिया। इस प्रकार चाण्डालपर्यन्त सबको संतुष्ट करके गुरुजन, सपत्नीक ब्राह्मण और वृद्धोंका तथा दूसरे लोगोंका भी आशीर्वाद ग्रहण करते एवं वंदीजनोंसे विरुदावली सुनते हुए सबके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्णने नगरमें प्रवेश किया ॥ २२-२३ ॥

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बुधवार, 17 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
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द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

निशम्य प्रेष्ठमायान्तं वसुदेवो महामनाः ।
अक्रूरश्चोग्रसेनश्च रामश्चाद्‍भुतविक्रमः ॥ १६ ॥
प्रद्युम्नः चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
प्रहर्षवेग उच्छशित शयनासन भोजनाः ॥ १७ ॥
वारणेन्द्रं पुरस्कृत्य ब्राह्मणैः ससुमङ्‌गलैः ।
शङ्‌खतूर्य निनादेन ब्रह्मघोषेण चादृताः ।
प्रत्युज्जग्मू रथैर्हृष्टाः प्रणयागत साध्वसाः ॥ १८ ॥
वारमुख्याश्च शतशो यानैः तत् दर्शनोत्सुकाः ।
लसत्कुण्डल निर्भात कपोल वदनश्रियः ॥ १९ ॥
नटनर्तकगन्धर्वाः सूत मागध वन्दिनः ।
गायन्ति चोत्तमश्लोक चरितानि अद्‍भुतानि च ॥ २० ॥

उदारशिरोमणि वसुदेव, अक्रूर, उग्रसेन, अद्भुत पराक्रमी बलराम, प्रद्युम्न, चारुदेष्ण और जाम्बवतीनन्दन साम्बने जब यह सुना कि हमारे प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्ण आ रहे हैं, तब उनके मनमें इतना आनन्द उमड़ा कि उन लोगोंने अपने सभी आवश्यक कार्य—सोना, बैठना और भोजन आदि छोड़ दिये। प्रेमके आवेगसे उनका हृदय उछलने लगा। वे मङ्गल शकुन के लिये एक गजराज को आगे करके स्वस्त्ययन-पाठ करते हुए और माङ्गलिक सामग्रियोंसे सुसज्जित ब्राह्मणोंको साथ लेकर चले। शङ्ख और तुरही आदि बाजे बजने लगे और वेदध्वनि होने लगी। वे सब हर्षित होकर रथोंपर सवार हुए और बड़ी आदरबुद्धिसे भगवान्‌की अगवानी करने चले ॥ १६—१८ ॥ साथ ही भगवान्‌ श्रीकृष्णके दर्शनके लिये उत्सुक सैकड़ों श्रेष्ठ वारांगनाएँ, जिनके मुख कपोलोंपर चमचमाते हुए कुण्डलोंकी कान्ति पडऩेसे बड़े सुन्दर दीखते थे, पालकियोंपर चढक़र भगवान्‌की अगवानीके लिये चलीं ॥ १९ ॥ बहुत-से नट, नाचनेवाले, गानेवाले, विरद बखाननेवाले सूत, मागध और वंदीजन भगवान्‌ श्रीकृष्णके अद्भुत चरित्रोंका गायन करते हुए चले ॥ २० ॥

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मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

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द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

मधुभोजदशार्हार्ह कुकुरान्धक वृष्णिभिः ।
आत्मतुल्य बलैर्गुप्तां नागैर्भोगवतीमिव ॥ ११ ॥
सर्वर्तु सर्वविभव पुण्यवृक्षलताश्रमैः ।
उद्यानोपवनारामैः वृत पद्माकर श्रियम् ॥ १२ ॥
गोपुरद्वारमार्गेषु कृतकौतुक तोरणाम् ।
चित्रध्वजपताकाग्रैः अन्तः प्रतिहतातपाम् ॥ १३ ॥
सम्मार्जित महामार्ग रथ्यापणक चत्वराम् ।
सिक्तां गन्धजलैरुप्तां फलपुष्पाक्षताङ्‌कुरैः ॥ १४ ॥
द्वारि द्वारि गृहाणां च दध्यक्षत फलेक्षुभिः ।
अलङ्‌कृतां पूर्णकुम्भैः बलिभिः धूपदीपकैः ॥ १५ ॥

जैसे नाग अपनी नगरी भोगवती (पातालपुरी) की रक्षा करते हैं, वैसे ही भगवान्‌ की वह द्वारका पुरी भी मधु, भोज, दशार्ह, अर्ह, कुकुर, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंसे, जिनके पराक्रमकी तुलना और किसी से भी नहीं की जा सकती, सुरक्षित थी ॥ ११ ॥ वह पुरी समस्त ऋतुओं के सम्पूर्ण वैभव से सम्पन्न एवं पवित्र वृक्षों एवं लताओं के कुञ्जों से युक्त थी। स्थान-स्थान पर फलों से पूर्ण उद्यान, पुष्पवाटिकाएँ एवं क्रीडावन थे। बीच-बीचमें कमलयुक्त सरोवर नगरकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ १२ ॥ नगरके फाटकों, महलके दरवाजों और सडक़ोंपर भगवान्‌के स्वागतार्थ बंदनवारें लगायी गयी थीं। चारों ओर चित्र-विचित्र ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं, जिनसे उन स्थानोंपर घामका कोई प्रभाव नहीं पड़ता था ॥ १३ ॥ उसके राजमार्ग, अन्यान्य सडक़ें, बाजार और चौक झाड़-बुहारकर सुगन्धित जलसे सींच दिये गये थे। और भगवान्‌ के स्वागतके लिये बरसाये हुए फल-फूल, अक्षत-अङ्कुर चारों ओर बिखरे हुए थे ॥ १४ ॥ घरोंके प्रत्येक द्वारपर दही, अक्षत, फल, ईख, जलसे भरे हुए कलश, उपहारकी वस्तुएँ और धूप-दीप आदि सजा दिये गये थे ॥ १५ ॥

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सोमवार, 15 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

नताः स्म ते नाथ सदाङ्‌घ्रिपङ्‌कजं
     विरिञ्चवैरिञ्च्य सुरेन्द्र वन्दितम् ।
परायणं क्षेममिहेच्छतां परं
     न यत्र कालः प्रभवेत्परः प्रभुः ॥ ६ ॥
भवाय नस्त्वं भव विश्वभावन
     त्वमेव माताथ सुहृत्पतिः पिता ।
त्वं सद्‍गुरुर्नः परमं च दैवतं
     यस्यानुवृत्त्या कृतिनो बभूविम ॥ ७ ॥
अहो सनाथा भवता स्म यद्वयं
     त्रैविष्टपानामपि दूरदर्शनम् ।
प्रेमस्मित स्निग्ध निरीक्षणाननं
     पश्येम रूपं तव सर्वसौभगम् ॥ ८ ॥
यर्ह्यम्बुजाक्षापससार भो भवान्
     कुरून् मधून् वाथ सुहृद् दिदृक्षया ।
तत्राब्दकोटिप्रतिमः क्षणो भवेद्
     रविं विनाक्ष्णोरिव नस्तवाच्युत ॥ ९ ॥
इति चोदीरिता वाचः प्रजानां भक्तवत्सलः ।
शृण्वानोऽनुग्रहं दृष्ट्या वितन्वन् प्राविशत्पुरम् ॥ १० ॥

‘स्वामिन् ! हम आपके उन चरण-कमलोंको सदा-सर्वदा प्रणाम करते हैं, जिनकी वन्दना ब्रह्मा, शङ्कर और इन्द्र तक करते हैं, जो इस संसार में परम कल्याण चाहनेवालों के लिये सर्वोत्तम आश्रय हैं, जिनकी शरण ले लेने पर परम समर्थ काल भी एक बालतक बाँका नहीं कर सकता ॥ ६ ॥ विश्वभावन ! आप ही हमारे माता, सुहृद्, स्वामी और पिता हैं; आप ही हमारे सद्गुरु और परम आराध्यदेव हैं। आपके चरणोंकी सेवासे हम कृतार्थ हो रहे हैं। आप ही हमारा कल्याण करें ॥ ७ ॥ अहा ! हम आपको पाकर सनाथ हो गये। क्योंकि आपके सर्वसौन्दर्यसार अनुपम रूपका हम दर्शन करते रहते हैं। कितना सुन्दर मुख है ! प्रेमपूर्ण मुसकानसे स्निग्ध चितवन ! यह दर्शन तो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है ॥ ८ ॥ कमलनयन श्रीकृष्ण ! जब आप अपने बन्धु-बान्धवोंसे मिलनेके लिये हस्तिनापुर अथवा मथुरा (व्रज-मण्डल) चले जाते हैं, तब आपके बिना हमारा एक-एक क्षण कोटि-कोटि वर्षोंके समान लंबा हो जाता है। आपके बिना हमारी दशा वैसी हो जाती है, जैसी सूर्यके बिना आँखोंकी ॥ ९ ॥ भक्तवत्सल भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रजाके मुखसे ऐसे वचन सुनते हुए और अपनी कृपामयी दृष्टिसे उनपर अनुग्रह की वृष्टि करते हुए द्वारकामें प्रविष्ट हुए ॥ १० ॥

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रविवार, 14 अप्रैल 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध ग्यारहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

द्वारका में श्रीकृष्णका राजोचित स्वागत

सूत उवाच ।

आनर्तान् स उपव्रज्य स्वृद्धाञ्जनपदान् स्वकान् ।
दध्मौ दरवरं तेषां विषादं शमयन्निव ॥ १ ॥
स उच्चकाशे धवलोदरो दरोऽपि
     उरुक्रमस्य अधरशोण शोणिमा ।
दाध्मायमानः करकञ्जसम्पुटे
     यथाब्जखण्डे कलहंस उत्स्वनः ॥ २ ॥
तमुपश्रुत्य निनदं जगद्‍भयभयावहम् ।
प्रत्युद्ययुः प्रजाः सर्वा भर्तृदर्शनलालसाः ॥ ३ ॥
तत्रोपनीतबलयो रवेर्दीपमिवादृताः ।
आत्मारामं पूर्णकामं निजलाभेन नित्यदा ॥ ४ ॥
प्रीत्युत्फुल्लमुखाः प्रोचुः हर्षगद्‍गदया गिरा ।
पितरं सर्वसुहृदं अवितारं इवार्भकाः ॥ ५ ॥

सूतजी कहते हैं—श्रीकृष्णने अपने समृद्ध आनर्त्त देशमें पहुँचकर वहाँके लोगों की विरह-वेदना बहुत कुछ शान्त करते हुए अपना श्रेष्ठ पाञ्चजन्य नामक शङ्ख बजाया ॥ १ ॥ भगवान्‌ के होठों की लाली से लाल हुआ वह श्वेत वर्णका शङ्ख बजते समय उनके कर-कमलोंमें ऐसा शोभायमान हुआ, जैसे लाल रंगके कमलोंपर बैठकर कोई राजहंस उच्चस्वर से मधुर गान कर रहा हो ॥ २ ॥ भगवान्‌ के शङ्ख की वह ध्वनि संसार के भय को भयभीत करनेवाली है। उसे सुनकर सारी प्रजा अपने स्वामी श्रीकृष्णके दर्शनकी लालसासे नगरके बाहर निकल आयी ॥ ३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण आत्माराम हैं, वे अपने आत्मलाभ से ही सदा-सर्वदा पूर्णकाम हैं। फिर भी जैसे लोग बड़े आदरसे भगवान्‌ सूर्यको भी दीपदान करते हैं, वैसे ही अनेक प्रकारकी भेंटोंसे प्रजाने श्रीकृष्णका स्वागत किया ॥ ४ ॥ सबके मुख-कमल प्रेमसे खिल उठे। वे हर्षगद्गद वाणीसे सबके सुहृद् और संरक्षक भगवान्‌ श्रीकृष्णकी ठीक वैसे ही स्तुति करने लगे, जैसे बालक अपने पितासे अपनी तोतली बोलीमें बातें करते हैं ॥ ५ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...