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शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

इत्येवं शैशवं भुक्त्वा दुःखं पौगण्डमेव च ।
अलब्धाभीप्सितोऽज्ञानाद् इद्धमन्युः शुचार्पितः ॥ २८ ॥
सह देहेन मानेन वर्धमानेन मन्युना ।
करोति विग्रहं कामी कामिष्वन्ताय चात्मनः ॥ २९ ॥
भूतैः पञ्चभिरारब्धे देहे देह्यबुधोऽसकृत् ।
अहं ममेत्यसद्ग्रा हः करोति कुमतिर्मतिम् ॥ ३० ॥
तदर्थं कुरुते कर्म यद्बाद्धो याति संसृतिम् ।
योऽनुयाति ददत्क्लेशं अविद्याकर्मबन्धनः ॥ ३१ ॥
यद्यसद्‌भि पथि पुनः शिश्नोदरकृतोद्यमैः ।
आस्थितो रमते जन्तुः तमो विशति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥

इसी प्रकार बाल्य (कौमार) और पौगण्ड—अवस्थाओं के दु:ख भोगकर वह बालक युवावस्था में पहुँचता है । इस समय उसे यदि कोई इच्छित भोग नहीं प्राप्त होता, तो अज्ञानवश उसका क्रोध उद्दीप्त हो उठता है और वह शोकाकुल हो जाता है ॥ २८ ॥ देह के साथ-ही-साथ अभिमान और क्रोध बढ़ जाने के कारण वह कामपरवश जीव अपना ही नाश करने के लिये दूसरे कामी पुरुषों के साथ वैर ठानता है ॥ २९ ॥ खोटी बुद्धिवाला वह अज्ञानी जीव पञ्चभूतोंसे रचे हुए इस देहमें मिथ्याभिनिवेशके कारण निरन्तर मैं-मेरेपनका अभिमान करने लगता है ॥ ३० ॥ जो शरीर इसे वृद्धावस्था आदि अनेक प्रकारके कष्ट ही देता है तथा अविद्या और कर्मके सूत्रसे बँधा रहनेके कारण सदा इसके पीछे लगा रहता है, उसीके लिये यह तरह-तरहके कर्म करता रहता है—जिनमें बँध जानेके कारण इसे बार-बार संसार-चक्रमें पडऩा होता है ॥ ३१ ॥ सन्मार्गमें चलते हुए यदि इसका किन्हीं जिह्वा और उपस्थेन्द्रियके भोगोंमें लगे हुए विषयी पुरुषोंसे समागम हो जाता है, और यह उनमें आस्था करके उन्हींका अनुगमन करने लगता है, तो पहलेके समान ही फिर नारकी योनियोंमें पड़ता है ॥ ३२ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 31 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

कपिल उवाच -
एवं कृतमतिर्गर्भे दशमास्यः स्तुवन्नृषिः ।
सद्यः क्षिपत्यवाचीनं प्रसूत्यै सूतिमारुतः ॥ २२ ॥
तेनावसृष्टः सहसा कृत्वावाक् शिर आतुरः ।
विनिष्क्रामति कृच्छ्रेण निरुच्छ्वासो हतस्मृतिः ॥ २३ ॥
पतितो भुव्यसृङ्‌मूत्रे विष्ठाभूरिव चेष्टते ।
रोरूयति गते ज्ञाने विपरीतां गतिं गतः ॥ २४ ॥
परच्छन्दं न विदुषा पुष्यमाणो जनेन सः ।
अनभिप्रेतमापन्नः प्रत्याख्यातुमनीश्वरः ॥ २५ ॥
शायितोऽशुचिपर्यङ्के जन्तुः स्वेदजदूषिते ।
नेशः कण्डूयनेऽङ्गानां आसनोत्थानचेष्टने ॥ २६ ॥
तुदन्त्यामत्वचं दंशा मशका मत्कुणादयः ।
रुदन्तं विगतज्ञानं कृमयः कृमिकं यथा ॥ २७ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं—माता ! वह दस महीने का जीव गर्भ में ही जब इस प्रकार विवेकसम्पन्न होकर भगवान्‌ की स्तुति करता है, तब उस अधोमुख बालक को प्रसवकाल की वायु तत्काल बाहर आने के लिये ढकेलती है ॥२२॥ उसके सहसा ठेलने पर वह बालक अत्यन्त व्याकुल हो नीचे सिर करके बड़े कष्ट से बाहर निकलता है। उस समय उसके श्वास की गति रुक जाती है और पूर्वस्मृति नष्ट हो जाती है ॥२३॥ पृथ्वीपर माता के रुधिर और मूत्र में पड़ा हुआ वह बालक विष्ठा के कीड़े के समान छटपटाता है ।  उसका गर्भवास  का सारा ज्ञान नष्ट हो जाता है और  वह विपरीत गति (देहाभिमानरूप अज्ञान-दशा)-को प्राप्त होकर बार-बार जोर-जोरसे रोता है ॥२४ ॥ फिर जो लोग उसका अभिप्राय नहीं समझ सकते, उनके द्वारा उसका पालन-पोषण होता है। ऐसी अवस्थामें उसे जो प्रतिकूलता प्राप्त होती है, उसका निषेध करनेकी शक्ति भी उसमें नहीं होती ॥ २५ ॥ जब उस जीवको शिशु-अवस्थामें मैली-कुचैली खाटपर सुला दिया जाता है, जिसमें खटमल आदि स्वेदज जीव चिपटे रहते हैं, तब उसमें शरीरको खुजलाने, उठाने अथवा करवट बदलनेकी भी सामर्थ्य न होनेके कारण वह बड़ा कष्ट पाता है ॥ २६ ॥ उसकी त्वचा बड़ी कोमल होती है; उसे डाँस, मच्छर और खटमल आदि उसी प्रकार काटते रहते हैं, जैसे बड़े कीड़े को छोटे कीड़े। इस समय उसका गर्भावस्थाका सारा ज्ञान जाता रहता है, सिवा रोनेके वह कुछ नहीं कर सकता ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 30 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

सोऽहं वसन्नपि विभो बहुदुःखवासं
     गर्भान्न निर्जिगमिषे बहिरन्धकूपे ।
यत्रोपयातमुपसर्पति देवमाया
     मिथ्या मतिर्यदनु संसृतिचक्रमेतत् ॥ २० ॥
तस्मादहं विगतविक्लव उद्धरिष्य
     आत्मानमाशु तमसः सुहृदाऽऽत्मनैव ।
भूयो यथा व्यसनमेतदनेकरन्ध्रं
     मा मे भविष्यदुपसादितविष्णुपादः ॥ २१ ॥

भगवन् ! इस अत्यन्त दु:खसे भरे हुए गर्भाशयमें यद्यपि मैं बड़े कष्टसे रह रहा हूँ, तो भी इससे बाहर निकलकर संसारमय अन्धकूपमें गिरनेकी मुझे बिलकुल इच्छा नहीं है; क्योंकि उसमें जानेवाले जीवको आपकी माया घेर लेती है। जिसके कारण उसकी शरीरमें अहंबुद्धि हो जाती है और उसके परिणाम में उसे फिर इस संसारचक्र में ही पडऩा होता है ॥ २० ॥ अत: मैं व्याकुलता को छोडक़र हृदयमें श्रीविष्णुभगवान्‌ के चरणोंको स्थापितकर अपनी बुद्धिकी सहायतासे ही अपनेको बहुत शीघ्र इस संसाररूप समुद्र के पार लगा दूँगा, जिससे मुझे अनेक प्रकारके दोषोंसे युक्त यह संसार-दु:ख फिर न प्राप्त हो ॥ २१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 29 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

येनेदृशीं गतिमसौ दशमास्य ईश
     सङ्ग्राहितः पुरुदयेन भवादृशेन ।
स्वेनैव तुष्यतु कृतेन स दीननाथः
     को नाम तत्प्रति विनाञ्जलिमस्य कुर्यात् ॥ १८ ॥
पश्यत्ययं धिषणया ननु सप्तवध्रिः
     शारीरके दमशरीर्यपरः स्वदेहे ।
यत्सृष्टयाऽऽसं तमहं पुरुषं पुराणं
     पश्ये बहिर्हृदि च चैत्यमिव प्रतीतम् ॥ १९ ॥

स्वामिन् ! आप बड़े दयालु हैं, आप-जैसे उदार प्रभुने ही इस दस मासके जीवको ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान दिया है। दीनबन्धो ! इस अपने किये हुए उपकारसे ही आप प्रसन्न हों; क्योंकि आपको हाथ जोडऩेके सिवा आपके उस उपकारका बदला तो कोई दे भी क्या सकता है ॥ १८ ॥
प्रभो ! संसारके ये पशु-पक्षी आदि अन्य जीव तो अपनी मूढ़ बुद्धिके अनुसार अपने शरीरमें होनेवाले सुख-दु:खादिका ही अनुभव करते हैं; किन्तु मैं तो आपकी कृपासे शम-दमादि साधनसम्पन्न शरीरसे युक्त हुआ हूँ, अत: आपकी दी हुई विवेकवती बुद्धिसे आप पुराणपुरुष को अपने शरीर के बाहर और भीतर अहंकार के आश्रयभूत आत्मा की भाँति प्रत्यक्ष अनुभव करता हूँ ॥ १९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


सोमवार, 28 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

ज्ञानं यदेतद् अदधात्कतमः स देवः
     त्रैकालिकं स्थिरचरेष्वनुवर्तितांशः ।
तं जीवकर्मपदवीं अनुवर्तमानाः
     तापत्रयोपशमनाय वयं भजेम ॥ १६ ॥
देह्यन्यदेहविवरे जठराग्निनासृग्
     विण्मूत्रकूपपतितो भृशतप्तदेहः ।
इच्छन्नितो विवसितुं गणयन् स्चमासान्
     निर्वास्यते कृपणधीर्भगवन् कदा नु ॥ १७ ॥

(जीव कहता है) मुझे जो यह त्रैकालिक ज्ञान हुआ है, यह भी उनके सिवा और किसने दिया है; क्योंकि स्थावर-जंगम समस्त प्राणियोंमें एकमात्र वे ही तो अन्तर्यामीरूप अंश से विद्यमान हैं । अत: जीवरूप कर्मजनित पदवी का अनुवर्तन करनेवाले हम अपने त्रिविध तापोंकी शान्तिके लिये उन्हींका भजन करते हैं ॥ १६ ॥
भगवन् ! यह देहधारी जीव दूसरी (माताके) देह के उदरके भीतर मल, मूत्र और रुधिर के कुएँ में गिरा हुआ है, उसकी जठराग्नि से इसका शरीर अत्यन्त सन्तप्त हो रहा है। उससे निकलनेकी इच्छा करता हुआ यह अपने महीने गिन रहा है। भगवन् ! अब इस दीनको यहाँसे कब निकाला जायगा ? ॥ १७ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


रविवार, 27 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

यस्त्वत्र बद्ध इव कर्मभिरावृतात्मा
     भूतेन्द्रियाशयमयीमवलम्ब्य मायाम् ।
आस्ते विशुद्धमविकारमखण्डबोधम्
     आतप्यमानहृदयेऽवसितं नमामि ॥ १३ ॥
यः पञ्चभूतरचिते रहितः शरीरे-
     च्छन्नोऽयथेन्द्रियगुणार्थचिदात्मकोऽहम् ।
तेनाविकुण्ठमहिमानमृषिं तमेनं
     वन्दे परं प्रकृतिपूरुषयोः पुमांसम् ॥ १४ ॥
यन्माययोरुगुणकर्म निबन्धनेऽस्मिन्
     सांसारिके पथि चरन् तदभिश्रमेण ।
नष्टस्मृतिः पुनरयं प्रवृणीत लोकं
     युक्त्या कया महदनुग्रहमन्तरेण ॥ १५ ॥

जो मैं (जीव) इस माताके उदरमें देह, इन्द्रिय और अन्त:करणरूपा मायाका आश्रय कर पुण्य-पापरूप कर्मोंसे आच्छादित रहनेके कारण बद्धकी तरह हूँ, वही मैं यहीं अपने सन्तप्त हृदयमें प्रतीत होनेवाले उन विशुद्ध (उपाधिरहित), अविकारी और अखण्ड बोधस्वरूप परमात्माको नमस्कार करता हूँ ॥ १३ ॥ मैं वस्तुत: शरीरादिसे रहित (असङ्ग) होनेपर भी देखनेमें पाञ्चभौतिक शरीरसे सम्बद्ध हूँ और इसीलिये इन्द्रिय, गुण, शब्दादि विषय और चिदाभास (अहंकार) रूप जान पड़ता हूँ। अत: इस शरीरादिके आवरणसे जिनकी महिमा कुण्ठित नहीं हुई है, उन प्रकृति और पुरुषके नियन्ता सर्वज्ञ (विद्याशक्तिसम्पन्न) परमपुरुषकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ १४ ॥ उन्हींकी मायासे अपने स्वरूपकी स्मृति नष्ट हो जानेके कारण यह जीव अनेक प्रकारके सत्त्वादि गुण और कर्मके बन्धनसे युक्त इस संसारमार्गमें तरह-तरहके कष्ट झेलता हुआ भटकता रहता है; अत: उन परमपुरुष परमात्माकी कृपाके बिना और किस युक्तिसे इसे अपने स्वरूपका ज्ञान हो सकता है ॥ १५ ॥ 

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शनिवार, 26 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

आरभ्य सप्तमान् मासात् लब्धबोधोऽपि वेपितः ।
नैकत्रास्ते सूतिवातैः विष्ठाभूरिव सोदरः ॥ १० ॥
नाथमान ऋषिर्भीतः सप्तवध्रिः कृताञ्जलिः ।
स्तुवीत तं विक्लवया वाचा येनोदरेऽर्पितः ॥ ११ ॥

जन्तुरुवाच –

तस्योपसन्नमवितुं जगदिच्छयात्त
     नानातनोर्भुवि चलत् चरणारविन्दम् ।
सोऽहं व्रजामि शरणं ह्यकुतोभयं मे
     येनेदृशी गतिरदर्श्यसतोऽनुरूपा ॥ १२ ॥

सातवाँ महीना आरम्भ होनेपर उसमें ज्ञानशक्तिका भी उन्मेष हो जाता है; परन्तु प्रसूतिवायु से चलायमान रहनेके कारण वह उसी उदर में उत्पन्न हुए विष्ठा के कीड़ों के समान एक स्थानपर नहीं रह सकता ॥ १० ॥ तब सप्तधातुमय स्थूलशरीर से बँधा हुआ वह देहात्मदर्शी जीव अत्यन्त भयभीत होकर दीन वाणीसे कृपा-याचना करता हुआ, हाथ जोडक़र उस प्रभुकी स्तुति करता है, जिसने उसे माता के गर्भ में डाला है ॥ ११ ॥
जीव कहता है—मैं बड़ा अधम हूँ ; भगवान्‌ ने मुझे जो इस प्रकारकी गति दिखायी है, वह मेरे योग्य ही है। वे अपनी शरणमें आये हुए इस नश्वर जगत् की  रक्षाके लिये ही अनेक प्रकारके रूप धारण करते हैं; अत: मैं भी भूतलपर विचरण करनेवाले उन्हींके निर्भय चरणारविन्दों की शरण लेता हूँ ॥ १२ ॥ 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 25 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

कृमिभिः क्षतसर्वाङ्गः सौकुमार्यात्प्रतिक्षणम् ।
मूर्च्छां आप्नोति उरुक्लेशः तत्रत्यैः क्षुधितैर्मुहुः ॥ ६ ॥
कटुतीक्ष्णोष्णलवण रूक्षाम्लादिभिरुल्बणैः ।
मातृभुक्तैरुपस्पृष्टः सर्वाङ्गोत्थितवेदनः ॥ ७ ॥
उल्बेन संवृतस्तस्मिन् अन्त्रैश्च बहिरावृतः ।
आस्ते कृत्वा शिरः कुक्षौ भुग्नपृष्ठशिरोधरः ॥ ८ ॥
अकल्पः स्वाङ्गचेष्टायां शकुन्त इव पञ्जरे ।
तत्र लब्धस्मृतिर्दैवात् कर्म जन्मशतोद्भपवम् ।
स्मरन् दीर्घमनुच्छ्वासं शर्म किं नाम विन्दते ॥ ९ ॥

वह (जीव) सुकुमार तो होता ही है; इसलिये जब वहाँके भूखे कीड़े उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग नोचते हैं, तब अत्यन्त क्लेशके कारण वह क्षण-क्षणमें अचेत हो जाता है ॥ ६ ॥ माताके खाये हुए कड़वे, तीखे, गरम, नमकीन, रूखे और खट्टे आदि उग्र पदार्थोंका स्पर्श होनेसे उसके सारे शरीरमें पीड़ा होने लगती है ॥ ७ ॥ वह जीव माताके गर्भाशयमें झिल्लीसे लिपटा और आँतोंसे घिरा रहता है। उसका सिर पेटकी ओर तथा पीठ और गर्दन कुण्डलाकार मुड़े रहते हैं ॥ ८ ॥
वह पिंजड़े में बंद पक्षी के समान पराधीन एवं अङ्गोंको हिलाने-डुलाने में भी असमर्थ रहता है। इसी समय अदृष्ट की प्रेरणासे उसे स्मरणशक्ति प्राप्त होती है। तब अपने सैंकड़ों जन्मोंके कर्म याद आ जाते हैं और वह बेचैन हो जाता है तथा उसका दम घुटने लगता है। ऐसी अवस्था में उसे क्या शान्ति मिल सकती है ? ॥ ९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)   पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 24 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - इकतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मनुष्ययोनि को प्राप्त हुए जीव की गति का वर्णन

श्रीभगवानुवाच –

कर्मणा दैवनेत्रेण जन्तुर्देहोपपत्तये ।
स्त्रियाः प्रविष्ट उदरं पुंसो रेतःकणाश्रयः ॥ १ ॥
कललं त्वेकरात्रेण पञ्चरात्रेण बुद्बुादम् ।
दशाहेन तु कर्कन्धूः पेश्यण्डं वा ततः परम् ॥ २ ॥
मासेन तु शिरो द्वाभ्यां बाह्वङ्घ्र्याद्यङ्गविग्रहः ।
नखलोमास्थिचर्माणि लिङ्गच्छिद्रोद् भवस्त्रिभिः ॥ ३ ॥
चतुर्भिर्धातवः सप्त पञ्चभिः क्षुत्तृडुद्भिवः ।
षड्भिर्जरायुणा वीतः कुक्षौ भ्राम्यति दक्षिणे ॥ ४ ॥
मातुर्जग्धान्नपानाद्यैः एधद् धातुरसम्मते ।
शेते विण्मूत्रयोर्गर्ते स जन्तुर्जन्तुसम्भवे ॥ ५ ॥

श्रीभगवान्‌ कहते हैं—माताजी ! जब जीव को मनुष्यशरीर में जन्म लेना होता है, तो वह भगवान्‌ की प्रेरणासे अपने पूर्वकर्मानुसार देहप्राप्ति के लिये पुरुष के वीर्यकण के द्वारा स्त्री के उदर में प्रवेश करता है ॥ १ ॥ वहाँ वह एक रात्रि में स्त्री के रज में मिलकर एकरूप कलल बन जाता है, पाँच रात्रि में बुद्बुदरूप हो जाता है, दस दिनमें बेर। के समान कुछ कठिन हो जाता है और उसके बाद मांसपेशी अथवा अण्डज प्राणियोंमें अण्डेके रूपमें परिणत हो जाता है ॥ २ ॥ एक महीनेमें उसके सिर निकल आता है, दो मासमें हाथ-पाँव आदि अङ्गोंका विभाग हो जाता है और तीन मासमें नख, रोम, अस्थि, चर्म, स्त्री-पुरुषके चिह्न तथा अन्य छिद्र उत्पन्न हो जाते हैं ॥ ३ ॥ चार मासमें उसमें मांसादि सातों धातुएँ पैदा हो जाती हैं, पाँचवें महीनेमें भूख-प्यास लगने लगती है और छठे मासमें झिल्लीसे लिपटकर वह दाहिनी कोखमें घूमने लगता है ॥ ४ ॥ उस समय माता के खाये हुए अन्न-जल आदि से उसकी सब धातुएँ पुष्ट होने लगती हैं और वह कृमि आदि जन्तुओं के उत्पत्तिस्थान उस जघन्य मल-मूत्रके गढ़ेमें पड़ा रहता है ॥ ५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


बुधवार, 23 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

एवं कुटुम्बं बिभ्राण उदरम्भर एव वा ।
विसृज्येहोभयं प्रेत्य भुङ्क्ते तत्फलमीदृशम् ॥ ३० ॥
एकः प्रपद्यते ध्वान्तं हित्वेदं स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद् भृतम् ॥ ३१ ॥
दैवेनासादितं तस्य शमलं निरये पुमान् ।
भुङ्क्ते कुटुम्बपोषस्य हृतवित्त इवातुरः ॥ ३२ ॥
केवलेन हि अधर्मेण कुटुम्बभरणोत्सुकः ।
याति जीवोऽन्धतामिस्रं चरमं तमसः पदम् ॥ ३३ ॥
अधस्तात् नरलोकस्य यावतीर्यातनादयः ।
क्रमशः समनुक्रम्य पुनरत्राव्रजेच्छुचिः ॥ ३४ ॥

इस प्रकार अनेक कष्ट भोगकर अपने कुटुम्बका ही पालन करनेवाला अथवा केवल अपना ही पेट भरनेवाला पुरुष उन कुटुम्ब और शरीर—दोनोंको यहीं छोडक़र मरनेके बाद अपने किये हुए पापोंका ऐसा फल भोगता है ॥ ३० ॥ अपने इस शरीरको यहीं छोडक़र प्राणियोंसे द्रोह करके एकत्रित किये हुए पापरूप पाथेयको साथ लेकर वह अकेला ही नरकमें जाता है ॥ ३१ ॥ मनुष्य अपने कुटुम्बका पेट पालनेमें जो अन्याय करता है, उसका दैवविहित कुफल वह नरकमें जाकर भोगता है। उस समय वह ऐसा व्याकुल होता है, मानो उसका सर्वस्व लुट गया हो ॥ ३२ ॥ जो पुरुष निरी पापकी कमाईसे ही अपने परिवारका पालन करनेमें व्यस्त रहता है, वह अन्धतामिस्र नरकमें जाता है—जो नरकोंमें चरम सीमाका कष्टप्रद स्थान है ॥ ३३ ॥ मनुष्य-जन्म मिलनेके पूर्व जितनी भी यातनाएँ हैं तथा शूकर-कूकरादि योनियोंके जितने कष्ट हैं, उन सबको क्रमसे भोगकर शुद्ध हो जानेपर वह फिर मनुष्ययोनि में जन्म लेता है ॥ ३४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 22 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

योजनानां सहस्राणि नवतिं नव चाध्वनः ।
त्रिभिर्मुहूर्तैर्द्वाभ्यां वा नीतः प्राप्नोति यातनाः ॥ २४ ॥
आदीपनं स्वगात्राणां वेष्टयित्वोल्मुकादिभिः ।
आत्ममांसादनं क्वापि स्वकृत्तं परतोऽपि वा ॥ २५ ॥
जीवतश्चान्त्राभ्युद्धारः श्वगृध्रैर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिक दंशाद्यैः दशद्‌भिश्चात्मवैशसम् ॥ २६ ॥
कृन्तनं चावयवशो गजादिभ्यो भिदापनम् ।
पातनं गिरिशृङ्गेभ्यो रोधनं चाम्बुगर्तयोः ॥ २७ ॥
यास्तामिस्रान्धतामिस्रा रौरवाद्याश्च यातनाः ।
भुङ्क्ते नरो वा नारी वा मिथः सङ्गेन निर्मिताः ॥ २८ ॥
अत्रैव नरकः स्वर्ग इति मातः प्रचक्षते ।
या यातना वै नारक्यः ता इहाप्युपलक्षिताः ॥ २९ ॥

(भगवान् कपिल कह रहे हैं) यमलोकका मार्ग निन्यानबे हजार योजन है। इतने लम्बे मार्गको दो-ही-तीन मुहूर्तमें तै करके वह नरकमें तरह-तरहकी यातनाएँ भोगता है ॥ २४ ॥ वहाँ उसके शरीरको धधकती लकडिय़ों आदिके बीचमें डालकर जलाया जाता है, कहीं स्वयं और दूसरोंके द्वारा काट-काटकर उसे अपना ही मांस खिलाया जाता है ॥ २५ ॥ यमपुरीके कुत्तों अथवा गिद्धोंद्वारा जीते-जी उसकी आँतें खींची जाती हैं। साँप, बिच्छू और डाँस आदि डसनेवाले तथा डंक मारनेवाले जीवोंसे शरीरको पीड़ा पहुँचायी जाती है ॥ २६ ॥ शरीरको काटकर टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं। उसे हाथियोंसे चिरवाया जाता है, पर्वतशिखरोंसे गिराया जाता है अथवा जल या गढ़ेमें डालकर बन्द कर दिया जाता है ॥ २७ ॥ ये सब यातनाएँ तथा इसी प्रकार तामिस्र, अन्धतामिस्र एवं रौरव आदि नरकों की और भी अनेकों यन्त्रणाएँ, स्त्री हो या पुरुष, उस जीवको पारस्परिक संसर्गसे होनेवाले पापके कारण भोगनी ही पड़ती हैं ॥ २८ ॥ माताजी ! कुछ लोगोंका कहना है कि स्वर्ग और नरक तो इसी लोकमें हैं, क्योंकि जो नारकी यातनाएँ हैं, वे यहाँ भी देखी जाती हैं ॥ २९ ॥

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सोमवार, 21 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

एवं कुटुम्बभरणे व्यापृतात्माजितेन्द्रियः ।
म्रियते रुदतां स्वानां उरुवेदनयास्तधीः ॥ १८ ॥
यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमौ सरभसेक्षणौ ।
स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः शकृन् मूत्रं विमुञ्चति ॥ १९ ॥
यातनादेह आवृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् ।
नयतो दीर्घमध्वानं दण्ड्यं राजभटा यथा ॥ २० ॥
तयोर्निर्भिन्नहृदयः तर्जनैर्जातवेपथुः ।
पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽघं स्वमनुस्मरन् ॥ २१ ॥
क्षुत्तृट्परीतोऽर्कदवानलानिलैः
     सन्तप्यमानः पथि तप्तवालुके ।
कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडितः
     चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥ २२ ॥
तत्र तत्र पतन्छ्रान्तो मूर्च्छितः पुनरुत्थितः ।
पथा पापीयसा नीतस्तरसा यमसादनम् ॥ २३ ॥

इस प्रकार जो मूढ़ पुरुष इन्द्रियों को न जीतकर निरन्तर कुटुम्ब-पोषणमें ही लगा रहता है, वह रोते हुए स्वजनोंके बीच अत्यन्त वेदनासे अचेत होकर मृत्युको प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ इस अवसर पर उसे लेने के लिये अति भयङ्कर और रोषयुक्त नेत्रोंवाले जो दो यमदूत आते हैं, उन्हें देखकर वह भयके कारण मल-मूत्र कर देता है ॥ १९ ॥ वे यमदूत उसे यातनादेहमें डाल देते हैं और फिर जिस प्रकार सिपाही किसी अपराधीको ले जाते हैं, उसी प्रकार उसके गलेमें रस्सी बाँधकर बलात् यमलोककी लंबी यात्रामें उसे ले जाते हैं ॥ २० ॥ उनकी घुड़कियोंसे उसका हृदय फटने और शरीर काँपने लगता है, मार्गमें उसे कुत्ते नोचते हैं। उस समय अपने पापोंको याद करके वह व्याकुल हो उठता है ॥ २१ ॥ भूख-प्यास उसे बेचैन कर देती है तथा घाम, दावानल और लूओंसे वह तप जाता है। ऐसी अवस्थामे जल और विश्राम-स्थानसे रहित उस तप्तबालुकामय मार्गमें जब उसे एक पग आगे बढऩेकी भी शक्ति नहीं रहती, यमदूत उसकी पीठपर कोड़े बरसाते हैं, तब बड़े कष्टसे उसे चलना ही पड़ता है ॥ २२ ॥ वह जहाँ-तहाँ थककर गिर जाता है, मूर्छा आ जाती है, चेतना आनेपर फिर उठता है। इस प्रकार अति दु:खमय अँधेरे मार्गसे अत्यन्त क्रूर यमदूत उसे शीघ्रतासे यमपुरीको ले जाते हैं ॥ २३ ॥ 

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रविवार, 20 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तथा ।
नाद्रियन्ते यथा पूर्वं कीनाशा इव गोजरम् ॥ १३ ॥
तत्राप्यजातनिर्वेदो भ्रियमाणः स्वयम्भृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥ १४ ॥
आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निः अल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥ १५ ॥
वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कण्ठे घुरघुरायते ॥ १६ ॥
शयानः परिशोचद्‌भिः परिवीतः स्वबन्धुभिः ।
वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं गतः ॥ १७ ॥

इसे अपने पालन-पोषणमें असमर्थ देखकर वे स्त्री-पुत्रादि इसका पहलेके समान आदर नहीं करते, जैसे कृपण किसान बूढ़े बैल की उपेक्षा कर देते हैं ॥ १३ ॥ फिर भी इसे वैराग्य नहीं होता । जिन्हें उसने स्वयं पाला था, वे ही अब उसका पालन करते हैं, वृद्धावस्था के कारण इसका रूप बिगड़ जाता है, शरीर रोगी हो जाता है, अग्नि मन्द पड़ जाती है, भोजन और पुरुषार्थ दोनों ही कम हो जाते हैं। वह मरणोन्मुख होकर घर में पड़ा रहता है और कुत्ते की भाँति स्त्री-पुत्रादि के अपमानपूर्वक दिये हुए टुकड़े खाकर जीवन-निर्वाह करता है ॥ १४-१५ ॥ मृत्युका समय निकट आनेपर वायुके उत्क्रमणसे इसकी पुतलियाँ चढ़ जाती हैं, श्वास-प्रश्वासकी नलिकाएँ कफसे रुक जाती हैं, खाँसने और साँस लेनेमें भी इसे बड़ा कष्ट होता है तथा कफ बढ़ जानेके कारण कण्ठमें घुरघुराहट होने लगती है ॥ १६ ॥ यह अपने शोकातुर बन्धु-बान्धवोंसे घिरा हुआ पड़ा रहता है और मृत्युपाशके वशीभूत हो जानेसे उनके बुलानेपर भी नहीं बोल सकता ॥ १७ ॥

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शनिवार, 19 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

आत्मजायासुतागार पशुद्रविण बन्धुषु ।
निरूढमूलहृदय आत्मानं बहु मन्यते ॥ ६ ॥
सन्दह्यमानसर्वाङ्ग एषां उद्‌वहनाधिना ।
करोति अविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥ ७ ॥
आक्षिप्तात्मेन्द्रियः स्त्रीणां असतीनां च मायया ।
रहो रचितयालापैः शिशूनां कलभाषिणाम् ॥ ८ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतन्त्रेष्वतन्द्रितः ।
कुर्वन् दुखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥ ९ ॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतः ततश्च तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥ १० ॥
वार्तायां लुप्यमानायां आरब्धायां पुनः पुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥ ११ ॥
कुटुम्बभरणाकल्पो मन्दभाग्यो वृथोद्यमः ।
श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायन् श्वसिति मूढधीः ॥ १२ ॥

यह मूर्ख(जीव) अपने शरीर, स्त्री, पुत्र, गृह, पशु, धन और बन्धु-बान्धवोंमें अत्यन्त आसक्त होकर उनके सम्बन्धमें नाना प्रकारके मनोरथ करता हुआ अपनेको बड़ा भाग्यशाली समझता है ॥ ६ ॥ इनके पालन-पोषणकी चिन्तासे इसके सम्पूर्ण अङ्ग जलते रहते हैं; तथापि दुर्वासनाओंसे दूषित हृदय होनेके कारण यह मूढ़ निरन्तर इन्हींके लिये तरह-तरहके पाप करता रहता है ॥ ७ ॥ कुलटा स्त्रियों के द्वारा एकान्त में सम्भोगादि के समय प्रदर्शित किये हुए कपटपूर्ण प्रेम में तथा बालकोंकी मीठी-मीठी बातों में मन और इन्द्रियों के फँस जाने से गृहस्थ पुरुष घर के दु:ख-प्रधान कपटपूर्ण कर्मोंमें लिप्त हो जाता है । उस समय बहुत सावधानी करनेपर यदि उसे किसी दु:खका प्रतीकार करनेमें सफलता मिल जाती है, तो उसे ही वह सुख-सा मान लेता है ॥८-९॥ जहाँ-तहाँ से भयङ्कर हिंसावृत्ति के द्वारा धन सञ्चय कर यह ऐसे लोगोंका पोषण करता है, जिनके पोषण से नरक में जाता है। स्वयं तो उनके खाने-पीनेसे बचे हुए अन्नको ही खाकर रहता है ॥ १० ॥ बार-बार प्रयत्न करनेपर भी जब इसकी कोई जीविका नहीं चलती, तो यह लोभवश अधीर हो जानेसे दूसरेके धनकी इच्छा करने लगता है ॥ ११ ॥ जब मन्दभाग्यके कारण इसका कोई प्रयत्न नहीं चलता और यह मन्दबुद्धि धनहीन होकर कुटुम्बके भरण-पोषण में असमर्थ हो जाता है, तब अत्यन्त दीन और चिन्तातुर होकर लंबी-लंबी साँसें छोडऩे लगता है ॥ १२ ॥

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शुक्रवार, 18 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देह-गेहमें आसक्त पुरुषोंकी अधोगतिका वर्णन

कपिल उवाच –

तस्यैतस्य जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥ १ ॥
यं यं अर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान् पुमान्छोचति यत्कृते ॥ २ ॥
यदध्रुवस्य देहस्य सानुबन्धस्य दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहाद् गृहक्षेत्रवसूनि च ॥ ३ ॥
जन्तुर्वै भव एतस्मिन् यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥ ४ ॥
नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमान् त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहितः ॥ ५ ॥

कपिलदेवजी कहते हैं—माताजी ! जिस प्रकार वायुके द्वारा उड़ाया जानेवाला मेघसमूह उसके बलको नहीं जानता, उसी प्रकार यह जीव भी बलवान् कालकी प्रेरणासे भिन्न-भिन्न अवस्थाओं तथा योनियोंमें भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके प्रबल पराक्रमको नहीं जानता ॥ १ ॥ जीव सुखकी अभिलाषा से जिस-जिस वस्तु को बड़े कष्टसे प्राप्त करता है, उसी-उसीको भगवान्‌ काल विनष्ट कर देता है—जिसके लिये उसे बड़ा शोक होता है ॥ २ ॥ इसका कारण यही है कि यह मन्दमति जीव अपने इस नाशवान् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों के घर, खेत और धन आदि को मोहवश नित्य मान लेता है ॥ ३ ॥ इस संसार में यह जीव जिस-जिस योनि में जन्म लेता है, उसी-उसीमें आनन्द मानने लगता है और उससे विरक्त नहीं होता ॥ ४ ॥ यह भगवान्‌ की माया से ऐसा मोहित हो रहा है कि कर्मवश नारकी योनियों में जन्म लेनेपर भी वहाँ के विष्ठा आदि भोगों में ही सुख माननेके कारण उसे भी छोडऩा नहीं चाहता ॥ ५ ॥ 

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गुरुवार, 17 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

यद् वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥ ४१ ॥
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिन्धे सगिरिभिः भूर्न मज्जति यद्भतयात् ॥ ४२ ॥
नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥ ४३ ॥
गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भ्यात् ।
वर्तन्तेऽनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥ ४४ ॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालो अनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं जनेन जनयन् मारयन् मृत्युनान्तकम् ॥ ४५ ॥

इसीसे (कालसे)  भयभीत होकर ओषधियोंके सहित लताएँ और सारी वनस्पतियाँ समय-समयपर फल-फूल धारण करती हैं ॥ ४१ ॥ इसीके डरसे नदियाँ बहती हैं और समुद्र अपनी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। इसीके भयसे अग्रि प्रज्वलित होती है और पर्वतोंके सहित पृथ्वी जलमें नहीं डूबती ॥ ४२ ॥ इसीके शासनसे यह आकाश जीवित प्राणियोंको श्वास-प्रश्वासके लिये अवकाश देता है और महत्तत्त्व अहंकाररूप शरीरका सात आवरणोंसे युक्त ब्रह्माण्डके रूपमें विस्तार करता है ॥ ४३ ॥ इस काल के ही भयसे सत्त्वादि गुणों के नियामक विष्णु आदि देवगण, जिनके अधीन यह सारा चराचर जगत् है, अपने जगत्-रचना आदि कार्यों में युगक्रम से तत्पर रहते हैं ॥ ४४ ॥ यह अविनाशी काल स्वयं अनादि किन्तु दूसरों का आदिकर्ता (उत्पादक) है तथा स्वयं अनन्त होकर भी दूसरोंका अन्त करनेवाला है। यह पितासे पुत्रकी उत्पत्ति कराता हुआ सारे जगत्की रचना करता है और अपनी संहारशक्ति मृत्युके द्वारा यमराजको भी मरवाकर इसका अन्त कर देता है ॥ ४५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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बुधवार, 16 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९ )

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

भक्तियोगश्च योगश्च मया मानव्युदीरितः ।
ययोरेकतरेणैव पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥ ३५ ॥
एतद्भकगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
परं प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥ ३६ ॥
रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते ।
भूतानां महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम् ॥ ३७ ॥
योऽन्तः प्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रयः ।
स विष्ण्वाख्योऽधियज्ञोऽसौ कालः कलयतां प्रभुः ॥ ३८ ॥
न चास्य कश्चिद् दयितो न द्वेष्यो न च बान्धवः ।
आविशत्यप्रमत्तोऽसौ प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥ ३९ ॥
यद्भतयाद् वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भधयात् ।
यद्भतयाद् वर्षते देवो भगणो भाति यद्भदयात् ॥ ४० ॥

(भगवान् देवहूति से कह रहे हैं) माताजी ! इस प्रकार मैंने तुम्हारे लिये भक्तियोग और अष्टाङ्गयोग का वर्णन किया। इनमें से एक का भी साधन करने से जीव परमपुरुष भगवान्‌ को प्राप्त कर सकता है ॥ ३५ ॥ भगवान्‌ परमात्मा परब्रह्मका अद्भुत प्रभावसम्पन्न तथा जागतिक पदार्थों के नानाविध वैचित्र्य का हेतुभूत स्वरूपविशेष ही ‘काल’ नामसे विख्यात है। प्रकृति और पुरुष इसीके रूप हैं तथा इनसे यह पृथक् भी है। नाना प्रकार के कर्मोंका मूल अदृष्ट भी यही है तथा इसीसे महत्तत्त्वादिके अभिमानी भेददर्शी प्राणियोंको सदा भय लगा रहता है ॥ ३६-३७ ॥ जो सबका आश्रय होनेके कारण समस्त प्राणियोंमें अनुप्रविष्ट होकर भूतों द्वारा ही उनका संहार करता है, वह जगत् का शासन करनेवाले ब्रह्मादि का भी प्रभु भगवान्‌ काल ही यज्ञों का  फल देनेवाला विष्णु है ॥ ३८ ॥ इसका न तो कोई मित्र है न कोई शत्रु और न तो कोई सगा-सम्बन्धी ही है । यह सर्वदा सजग रहता है और अपने स्वरूपभूत श्रीभगवान्‌ को भूलकर भोगरूप प्रमाद में पड़े हुए प्राणियों पर आक्रमण करके उनका संहार करता है ॥३९॥ इसी के भय से वायु चलता है, इसी के भयसे सूर्य तपता है, इसी के भय से इन्द्र वर्षा करते हैं और इसी के भय से तारे चमकते हैं ॥ ४०॥ 

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मंगलवार, 15 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

ततो वर्णाश्च चत्वारः तेषां ब्राह्मण उत्तमः ।
ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो हि, अर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥ ३१ ॥
अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान् स्वकर्मकृत् ।
मुक्तसङ्गस्ततो भूयात् अदोग्धा धर्ममात्मनः ॥ ३२ ॥
तस्मान्मय्यर्पिताशेष क्रियार्थात्मा निरन्तरः ।
मय्यर्पितात्मनः पुंसो मयि सन्न्यस्तकर्मणः ।
न पश्यामि परं भूतं अकर्तुः समदर्शनात् ॥ ३३ ॥
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्बःहुमानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥ ३४ ॥

मनुष्यों में भी चार वर्ण श्रेष्ठ हैं; उनमें भी ब्राह्मण श्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में वेद को जाननेवाले उत्तम हैं और वेदज्ञों में  भी वेदका तात्पर्य जाननेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३१ ॥ तात्पर्य जाननेवालों से संशय निवारण करनेवाले, उनसे भी अपने वर्णाश्रमोचित धर्मका पालन करनेवाले तथा उनसे भी आसक्तिका त्याग और अपने धर्मका निष्कामभावसे आचरण करनेवाले श्रेष्ठ हैं ॥ ३२ ॥ उनकी अपेक्षा भी जो लोग अपने सम्पूर्ण कर्म, उनके फल तथा अपने शरीरको भी मुझे ही अर्पण करके भेदभाव छोडक़र मेरी उपासना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इस प्रकार मुझे ही चित्त और कर्म समर्पण करनेवाले अकत्र्ता और समदर्शी पुरुषसे बढक़र मुझे कोई अन्य प्राणी नहीं दीखता ॥ ३३ ॥ अत: यह मानकर कि जीवरूप अपने अंशसे साक्षात् भगवान्‌ ही सबमें अनुगत हैं, इन समस्त प्राणियोंको बड़े आदरके साथ मनसे प्रणाम करे ॥ ३४ ॥

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सोमवार, 14 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

जीवाः श्रेष्ठा हि अजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।
ततः सचित्ताः प्रवराः ततश्चेन्द्रियवृत्तयः ॥ २८ ॥
तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो गन्धविदः श्रेष्ठाः ततः शब्दविदो वराः ॥ २९ ॥
रूपभेदविदस्तत्र ततश्चोभयतोदतः ।
तेषां बहुपदाः श्रेष्ठाः चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥ ३० ॥

(भगवान् देवहूति से कह रहे हैं) माताजी ! पाषाणादि अचेतनों की अपेक्षा वृक्षादि जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे साँस लेनेवाले प्राणी श्रेष्ठ हैं, उनमें भी मनवाले प्राणी उत्तम और उनसे इन्द्रियकी वृत्तियोंसे युक्त प्राणी श्रेष्ठ हैं। सेन्द्रिय प्राणियोंमें भी केवल स्पर्शका अनुभव करनेवालोंकी अपेक्षा रसका ग्रहण कर सकनेवाले मत्स्यादि उत्कृष्ट हैं, तथा रसवेत्ताओंकी अपेक्षा गन्धका अनुभव करनेवाले (भ्रमरादि) और गन्धका ग्रहण करनेवालोंसे भी शब्दका ग्रहण करनेवाले (सर्पादि) श्रेष्ठ हैं ॥ २८-२९ ॥ उनसे भी रूपका अनुभव करनेवाले (काकादि) उत्तम हैं और उनकी अपेक्षा जिनके ऊपर-नीचे दोनों ओर दाँत होते हैं, वे जीव श्रेष्ठ हैं। उनमें भी बिना पैरवालोंसे बहुत-से चरणोंवाले श्रेष्ठ हैं तथा बहुत चरणोंवालोंसे चार चरणवाले और चार चरणवालोंसे भी दो चरणवाले मनुष्य श्रेष्ठ हैं ॥ ३० ॥ 

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रविवार, 13 जुलाई 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भक्ति का मर्म और काल की महिमा

अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥ २४ ॥
अर्चादौ अर्चयेत्तावद् ईश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥ २५ ॥
आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यन्तरोदरम् ।
तस्य भिन्नदृशो मृत्युः विदधे भयमुल्बणम् ॥ २६ ॥
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद् दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥ २७ ॥

(भगवान्‌ कह रहे हैं) माताजी ! जो दूसरे जीवों का अपमान करता है, वह बहुत-सी घटिया-बढिय़ा सामग्रियों से अनेक प्रकारके विधि-विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता ॥ २४ ॥ मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वरकी प्रतिमा आदिमें पूजा करता रहे, जबतक उसे अपने हृदयमें एवं सम्पूर्ण प्राणियोंमें स्थित परमात्माका अनुभव न हो जाय ॥ २५ ॥ जो व्यक्ति आत्मा और परमात्माके बीचमें थोड़ा-सा भी अन्तर करता है, उस भेददर्शी को मैं मृत्युरूपसे महान् भय उपस्थित करता हूँ ॥ २६ ॥ अत: सम्पूर्ण प्राणियोंके भीतर घर बनाकर उन प्राणियोंके ही रूपमें स्थित मुझ परमात्माका यथायोग्य दान, मान, मित्रताके व्यवहार तथा समदृष्टिके द्वारा पूजन करना चाहिये ॥ २७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...