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शनिवार, 6 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

तस्यैवं वदतः शापं श्रुत्वा द्विजकुलाय वै ।
भृगुः प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥ २७ ॥
भवव्रतधरा ये च ये च तान् समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ॥ २८ ॥
नष्टशौचा मूढधियो जटाभस्मास्थिधारिणः ।
विशन्तु शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ॥ २९ ॥
ब्रह्म च ब्राह्मणांश्चैव यद्यूयं परिनिन्दथ ।
सेतुं विधारणं पुंसां अतः पाषण्डमाश्रिताः ॥ ३० ॥
एष एव हि लोकानां शिवः पन्थाः सनातनः ।
यं पूर्वे चानुसन्तस्थुः यत्प्रमाणं जनार्दनः ॥ ३१ ॥
तद्ब्र्ह्म परमं शुद्धं सतां वर्त्म सनातनम् ।
विगर्ह्य यात पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराट् ॥ ३२ ॥

मैत्रेय उवाच -
तस्यैवं वदतः शापं भृगोः स भगवान्भवः ।
निश्चक्राम ततः किञ्चित् विमना इव सानुगः ॥ ३३ ॥
तेऽपि विश्वसृजः सत्रं सहस्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो हरिः ॥ ३४ ॥
आप्लुत्यावभृथं यत्र गङ्‌गा यमुनयान्विता ।
विरजेनात्मना सर्वे स्वं स्वं धाम ययुस्ततः ॥ ३५ ॥

नन्दीश्वरके मुखसे इस प्रकार ब्राह्मणकुलके लिये शाप सुनकर उसके बदलेमें भृगुजीने यह दुस्तर शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया ॥ २७ ॥ ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन भक्तोंके अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रोंके विरुद्ध आचरण करनेवाले और पाखण्डी हों ॥ २८ ॥ जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि तथा जटा, राख और हड्डियोंको धारण करनेवाले हैं—वे ही शैव-सम्प्रदायमें दीक्षित हों, जिसमें सुरा और आसव ही देवताओंके समान आदरणीय हैं ॥ २९ ॥ अरे ! तुमलोग जो धर्ममर्यादाके संस्थापक एवं वर्णाश्रमियोंके रक्षक वेद और ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्डका आश्रय ले रखा है ॥ ३० ॥ यह वेदमार्ग ही लोगोंके लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसीपर चलते आये हैं और इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णुभगवान्‌ हैं ॥ ३१ ॥ तुमलोग सत्पुरुषोंके परम पवित्र और सनातन मार्गस्वरूप वेदकी निन्दा करते हो—इसलिये उस पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे इष्टदेव निवास करते हैं’ ॥ ३२ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! भृगुऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान्‌ शङ्कर कुछ खिन्न-से हो वहाँ से अपने अनुयायियोंसहित चल दिये ॥ ३३ ॥ वहाँ प्रजापतिलोग जो यज्ञ कर रहे थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे। और वह यज्ञ एक हजार वर्ष में समाप्त होनेवाला था । उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने श्रीगङ्गा-यमुना के सङ्गम में यज्ञान्त स्नान किया और फिर प्रसन्नमन से वे अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥३४-३५ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे दक्षशापो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 

चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

मैत्रेय उवाच -
विनिन्द्यैवं स गिरिशं अप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोऽथाप उपस्पृश्य क्रुद्धः शप्तुं प्रचक्रमे ॥ १७ ॥
अयं तु देवयजन इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भवः ।
सह भागं न लभतां देवैर्देवगणाधमः ॥ १८ ॥
निषिध्यमानः स सदस्यमुख्यैः
     दक्षो गिरित्राय विसृज्य शापम् ।
तस्माद् विनिष्क्रम्य विवृद्धमन्युः
     जगाम कौरव्य निजं निकेतनम् ॥ १९ ॥
विज्ञाय शापं गिरिशानुगाग्रणीः
     नन्दीश्वरो रोषकषायदूषितः ।
दक्षाय शापं विससर्ज दारुणं
     ये चान्वमोदन् तदवाच्यतां द्विजाः ॥ २० ॥
य एतन्मर्त्यमुद्दिश्य भगवत्यप्रतिद्रुहि ।
द्रुह्यत्यज्ञः पृथग्दृष्टिः तत्त्वतो विमुखो भवेत् ॥ २१ ॥
गृहेषु कूटधर्मेषु सक्तो ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं वितनुते वेदवादविपन्नधीः ॥ २२ ॥
बुद्ध्या पराभिध्यायिन्या विस्मृतात्मगतिः पशुः ।
स्त्रीकामः सोऽस्त्वतितरां दक्षो बस्तमुखोऽचिरात् ॥ २३ ॥
विद्याबुद्धिः अविद्यायां कर्ममय्यामसौ जडः ।
संसरन्त्विह ये चामुं अनु शर्वावमानिनम् ॥ २४ ॥
गिरः श्रुतायाः पुष्पिण्या मधुगन्धेन भूरिणा ।
मथ्ना चोन्मथितात्मानः सम्मुह्यन्तु हरद्विषः ॥ २५ ॥
सर्वभक्षा द्विजा वृत्त्यै धृतविद्यातपोव्रताः ।
वित्तदेहेन्द्रियारामा याचका विचरन्त्विह ॥ २६ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! दक्ष ने इस प्रकार महादेवजी को बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे पूर्ववत् निश्चलभावसे बैठे रहे। इससे दक्षके क्रोध का पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और वे जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देने को तैयार हो गये ॥ १७ ॥ दक्षने कहा, ‘यह महादेव देवताओंमें बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि देवताओंके साथ यज्ञका भाग न मिले’ ॥ १८ ॥ उपस्थित मुख्य-मुख्य सभासदोंने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु उन्होंने किसीकी न सुनी; महादेवजीको शाप दे ही दिया। फिर वे अत्यन्त क्रोधित हो उस सभासे निकलकर अपने घर चले गये ॥ १९ ॥ जब श्रीशङ्करजी के अनुयायियों में अग्रगण्य नन्दीश्वरको मालूम हुआ कि दक्षने शाप दिया है, तो वे क्रोधसे तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणोंको, जिन्होंने दक्षके दुर्वचनोंका अनुमोदन किया था, बड़ा भयङ्कर शाप दिया ॥ २० ॥ वे बोले—‘जो इस मरण-धर्मा शरीर में ही अभिमान करके किसी से भी द्रोह न करनेवाले भगवान्‌ शङ्कर से द्वेष करता है, वह भेद-बुद्धिवाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञानसे विमुख ही रहे ॥ २१ ॥ यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करनेवालेको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्योंसे मोहित एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुखकी इच्छासे कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममें आसक्त रहकर कर्मकाण्डमें ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादिमें आत्मभावका चिन्तन करनेवाली है; उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूपको भुला दिया है; यह साक्षात् पशुके ही समान है, अत: अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाय ॥ २२-२३ ॥ यह मूर्ख कर्ममयी अविद्याको ही विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान्‌ शङ्करका अपमान करनेवाले इस दुष्टके पीछे-पीछे चलनेवाले हैं, वे सभी जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़े रहें ॥ २४ ॥ वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पोंसे सुशोभित है, उसके कर्मफलरूप मनोमोहक गन्धसे इनके चित्त क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शङ्करद्रोही कर्मोंके जालमें ही फँसे रहें ॥ २५ ॥ ये ब्राह्मणलोग भक्ष्याभक्ष्यके विचारको छोडक़र केवल पेट पालनेके लिये ही विद्या, तप और व्रतादिका आश्रय लें तथा धन, शरीर और इन्द्रियोंके सुखको ही सुख मानकर—उन्हींके गुलाम बनकर दुनियामें भीख माँगते भटका करें’ ॥ २६ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


गुरुवार, 4 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

श्रूयतां ब्रह्मर्षयो मे सहदेवाः सहाग्नयः ।
साधूनां ब्रुवतो वृत्तं न अज्ञानात् न च मत्सरात् ॥ ९ ॥
अयं तु लोकपालानां यशोघ्नो निरपत्रपः ।
सद्‌भिः आचरितः पन्था येन स्तब्धेन दूषितः ॥ १० ॥
एष मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं विप्राग्निमुखतः सावित्र्या इव साधुवत् ॥ ११ ॥
गृहीत्वा मृगशावाक्ष्याः पाणिं मर्कटलोचनः ।
प्रत्युत्थानाभिवादार्हे वाचाप्यकृत नोचितम् ॥ १२ ॥
लुप्तक्रियायाशुचये मानिने भिन्नसेतवे ।
अनिच्छन्नप्यदां बालां शूद्रायेवोशतीं गिरम् ॥ १३ ॥
प्रेतावासेषु घोरेषु प्रेतैर्भूतगणैर्वृतः ।
अटतु उन्मत्तवत् नग्नो व्युप्तकेशो हसन् रुदन् ॥ १४ ॥
चिताभस्मकृतस्नानः प्रेतस्रङ्‌ अस्थिभूषणः ।
शिवापदेशो ह्यशिवो मत्तो मत्तजनप्रियः ।
पतिः प्रमथनाथानां तमोमात्रात्मकात्मनाम् ॥ १५ ॥
तस्मा उन्मादनाथाय नष्टशौचाय दुर्हृदे ।
दत्ता बत मया साध्वी चोदिते परमेष्ठिना ॥ १६ ॥

(प्रजापति दक्ष कहरहे हैं) ‘देवता और अग्नियोंके सहित समस्त ब्रहमर्षिगण मेरी बात सुनें । मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचारकी बात कहता हूँ ॥ ९ ॥ यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूलमें मिला रहा है। देखिये इस घमण्डी ने सत्पुरुषों के आचरण को लाञ्छित एवं मटियामेट कर दिया है ॥ १० ॥ बंदरके- से नेत्रवाले इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्या का अग्नि और ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया ॥११-१२ ॥ हाय ! जिस प्रकार शूद्रको कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी ! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्मकी मर्यादा को तोड़ रहा है ॥ १३ ॥ यह प्रेतों के निवासस्थान भयङ्कर श्मशानोंमें भूत-प्रेतोंको साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागलकी तरह सिरके बाल बिखेरे नंग-धड़ंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है ॥ १४ ॥ यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहननेयोग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के गहने पहने रहता है । यह बस, नामभर का ही शिव है, वास्तवमें है पूरा अशिव— अमङ्गलरूप। जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाववाले जीवोंका यह नेता है ॥ १५ ॥ अरे ! मैंने केवल ब्रह्माजीके बहकावेमें आकर ऐसे भूतोंके सरदार, आचारहीन और दुष्ट स्वभाववाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी’ ॥ १६ ॥

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बुधवार, 3 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध - दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य

विदुर उवाच -
भवे शीलवतां श्रेष्ठे दक्षो दुहितृवत्सलः ।
विद्वेषं अकरोत् कस्माद् अनादृत्यात्मजां सतीम् ॥ १ ॥
कस्तं चराचरगुरुं निर्वैरं शान्तविग्रहम् ।
आत्मारामं कथं द्वेष्टि जगतो दैवतं महत् ॥ २ ॥
एतदाख्याहि मे ब्रह्मन् जामातुः श्वशुरस्य च ।
विद्वेषस्तु यतः प्राणान् तत्यजे दुस्त्यजान्सती ॥ ३ ॥

मैत्रेय उवाच -
पुरा विश्वसृजां सत्रे समेताः परमर्षयः ।
तथामरगणाः सर्वे सानुगा मुनयोऽग्नयः ॥ ४ ॥
तत्र प्रविष्टमृषयो दृष्ट्वार्कमिव रोचिषा ।
भ्राजमानं वितिमिरं कुर्वन्तं तन्महत्सदः ॥ ५ ॥
उदतिष्ठन् सदस्यास्ते स्वधिष्ण्येभ्यः सहाग्नयः ।
ऋते विरिञ्चां शर्वं च तद्भा्साक्षिप्तचेतसः ॥ ६ ॥
सदसस्पतिभिर्दक्षो भगवान् साधु सत्कृतः ।
अज लोकगुरुं नत्वा निषसाद तदाज्ञया ॥ ७ ॥
प्राङ्‌निषण्णं मृडं दृष्ट्वा नामृष्यत् तद् अनादृतः ।
उवाच वामं चक्षुर्भ्यां अभिवीक्ष्य दहन्निव ॥ ८ ॥

विदुरजीने पूछा—ब्रह्मन् ! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियोंसे बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सतीका अनादर करके शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेवजीसे द्वेष क्यों किया ? ॥ १ ॥ महादेव जी भी चराचर के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत् के परम आराध्यदेव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा ? ॥ २ ॥
भगवन् ! उन ससुर और दामाद में इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सतीने अपने दुस्त्यज प्राणोंतक की बलि दे दी ? यह आप मुझसे कहिये ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—विदुरजी ! पहले एक बार प्रजापतियोंके यज्ञमें सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियोंके सहित एकत्र हुए थे ॥ ४ ॥ उसी समय प्रजापति दक्षने भी उस सभामें प्रवेश किया। वे अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभाभवनका अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्माजी और महादेवजीके अतिरिक्त अग्निपर्यन्त सभी सभासद् उनके तेजसे प्रभावित होकर अपने-अपने आसनोंसे उठकर खड़े हो गये ॥ ५-६ ॥ इस प्रकार समस्त सभासदोंसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्माजीको प्रणाम कर उनकी आज्ञासे अपने आसनपर बैठ गये ॥ ७ ॥ परन्तु महादेवजीको पहलेसे ही बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूपमें कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजरसे इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे। फिर कहने लगे— ॥ ८ ॥ 

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मंगलवार, 2 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट११)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

स्वाहाभिमानिनश्चाग्नेः आत्मजान् त्रीन् अजीजनत् ।
पावकं पवमानं च शुचिं च हुतभोजनम् ॥ ६० ॥
तेभ्योऽग्नयः समभवन् चत्वारिंशच्च पञ्च च ।
ते एवैकोनपञ्चाशत् साकं पितृपितामहैः । ॥ ६१ ॥
वैतानिके कर्मणि यत् नामभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
आग्नेय्य इष्टयो यज्ञे निरूप्यन्तेऽग्नयस्तु ते । ॥ ६२ ॥
अग्निष्वात्ता बर्हिषदः सौम्याः पितर आज्यपाः ।
साग्नयोऽनग्नयस्तेषां पत्नी् दाक्षायणी स्वधा । ॥ ६३ ॥
तेभ्यो दधार कन्ये द्वे वयुनां धारिणीं स्वधा ।
उभे ते ब्रह्मवादिन्यौ ज्ञानविज्ञानपारगे । ॥ ६४ ॥
भवस्य पत्नी् तु सती भवं देवमनुव्रता ।
आत्मनः सदृशं पुत्रं न लेभे गुणशीलतः । ॥ ६५ ॥
पितर्यप्रतिरूपे स्वे भवायानागसे रुषा ।
अप्रौढैवात्मनात्मानं अजहाद् योगसंयुता । ॥ ६६ ॥

अग्निदेव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि के ही अभिमानी पावक, पवमान और शुचि—ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। ये तीनों ही हवन किये हुए पदार्थोंका भक्षण करनेवाले हैं ॥ ६० ॥ इन्हीं तीनोंसे पैंतालीस प्रकारके अग्नि और उत्पन्न हुए। ये ही अपने तीन पिता और एक पितामह को साथ लेकर उनचास अग्रि कहलाये ॥ ६१ ॥ वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञकर्म में जिन उनचास अग्नियों के नामों से आग्नियी इष्टियाँ करते हैं, वे ये ही हैं ॥ ६२ ॥
अग्निष्वात्त, बर्हिषद्, सोमप और आज्यप—ये पितर हैं; इनमें साग्नक भी हैं और निरग्निक भी। इन सब पितरों की पत्नी दक्षकुमारी स्वधा हैं ॥ ६३ ॥ इन पितरों से स्वधा के धारिणी और वयुना नाम की दो कन्याएँ हुर्ईं । वे दोनों ही ज्ञान-विज्ञान में पारङ्गत और ब्रह्मज्ञान का उपदेश करनेवाली हुर्ईं ॥ ६४ ॥ महादेवजी की पत्नी सती थीं, वे सब प्रकार से अपने पतिदेव की सेवा में संलग्न रहनेवाली थीं। किन्तु उनके अपने गुण और शीलके अनुरूप कोई पुत्र नहीं हुआ ॥ ६५ ॥ क्योंकि सतीके पिता दक्षने बिना ही किसी अपराधके भगवान्‌ शिवजीके प्रतिकूल आचरण किया था, इसलिये सतीने युवावस्थामें ही क्रोधवश योगके द्वारा स्वयं ही अपने शरीरका त्याग कर दिया था ॥ ६६ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे विदुरमैत्रेयसंवादे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 1 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट१०)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

देवा ऊचुः –

यो मायया विरचितं निजयात्मनीदं
     खे रूपभेदमिव तत्प्रतिचक्षणाय ।
एतेन धर्मसदने ऋषिमूर्तिनाद्य
     प्रादुश्चकार पुरुषाय नमः परस्मै ॥ ५६ ॥
सोऽयं स्थितिव्यतिकरोपशमाय सृष्टान्
     सत्त्वेन नः सुरगणान् अनुमेयतत्त्वः ।
दृश्याददभ्रकरुणेन विलोकनेन
     यच्छ्रीनिकेतममलं क्षिपतारविन्दम् ॥ ५७ ॥
एवं सुरगणैस्तात भगवन्तावभिष्टुतौ ।
लब्धावलोकैर्ययतुः अर्चितौ गन्धमादनम् ॥ ५८ ॥
तौ इमौ वै भगवतो हरेरंशाविहागतौ ।
भारव्ययाय च भुवः कृष्णौ यदुकुरूद्वहौ ॥ ५९ ॥

देवताओंने कहा—जिस प्रकार आकाशमें तरह-तरहके रूपोंकी कल्पना कर ली जाती है—उसी प्रकार जिन्होंने अपनी मायाके द्वारा अपने ही स्वरूपके अंदर इस संसारकी रचना की है और अपने उस स्वरूपको प्रकाशित करनेके लिये इस समय इस ऋषि-विग्रहके साथ धर्मके घरमें अपने- आपको प्रकट किया है, उन परम पुरुषको हमारा नमस्कार है ॥ ५६ ॥ जिनके तत्त्वका शास्त्रके आधारपर हमलोग केवल अनुमान ही करते हैं, प्रत्यक्ष नहीं कर पाते—उन्हीं भगवान्‌ने देवताओंको संसारकी मार्यादामें किसी प्रकारकी गड़बड़ी न हो, इसीलिये सत्त्वगुणसे उत्पन्न किया है। अब वे अपने करुणामय नेत्रोंसे—जो समस्त शोभा और सौन्दर्यके निवासस्थान निर्मल दिव्य कमलको भी नीचा दिखानेवाले हैं—हमारी ओर निहारें ॥ ५७ ॥
प्यारे विदुरजी ! प्रभुका साक्षात् दर्शन पाकर देवताओं ने उनकी इस प्रकार स्तुति और पूजा की । तदनन्तर भगवान्‌ नर-नारायण दोनों गन्धमादन पर्वतपर चले गये ॥ ५८ ॥ भगवान्‌ श्रीहरिके अंशभूत वे नर-नारायण ही इस समय पृथ्वीका भार उतारनेके लिये यदुकुल भूषण श्रीकृष्ण और उन्हींके सरीखे श्यामवर्ण, कुरुकुलतिलक अर्जुनके रूपमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ ५९ ॥

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रविवार, 31 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०९)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

मूर्तिः सर्वगुणोत्पत्तिः नरनारायणौ ऋषी ॥ ५२ ॥ 
ययोर्जन्मन्यदो विश्वं अभ्यनन्दत् सुनिर्वृतम् ।
मनांसि ककुभो वाताः प्रसेदुः सरितोऽद्रयः ॥ ५३ ॥
दिव्यवाद्यन्त तूर्याणि पेतुः कुसुमवृष्टयः ।
मुनयस्तुष्टुवुस्तुष्टा जगुर्गन्धर्वकिन्नराः ॥ ५४ ॥
नृत्यन्ति स्म स्त्रियो देव्य आसीत् परममङ्‌गलम् ।
देवा ब्रह्मादयः सर्वे उपतस्थुरभिष्टवैः ॥ ५५ ॥

समस्त गुणों की खान मूर्तिदेवी ने नर-नारायण ऋषियों को जन्म दिया ॥ ५२ ॥ इनका जन्म होनेपर इस सम्पूर्ण विश्वने आनन्दित होकर प्रसन्नता प्रकट की। उस समय लोगोंके मन, दिशाएँ, वायु, नदी और पर्वत—सभीमें प्रसन्नता छा गयी ॥ ५३ ॥ आकाशमें माङ्गलिक बाजे बजने लगे, देवतालोग फूलोंकी वर्षा करने लगे, मुनि प्रसन्न होकर स्तुति करने लगे, गन्धर्व और किन्नर गाने लगे ॥ ५४ ॥ अप्सराएँ नाचने लगीं। इस प्रकार उस समय बड़ा ही आनन्द-मङ्गल हुआ तथा ब्रह्मादि समस्त देवता स्तोत्रोंद्वारा भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ ५५ ॥

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शनिवार, 30 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०८)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

प्रसूतिं मानवीं दक्ष उपयेमे ह्यजात्मजः ।
तस्यां ससर्ज दुहितॄः षोडशामललोचनाः ॥ ४७ ॥
त्रयोदशादाद्धर्माय तथैकामग्नये विभुः ।
पितृभ्य एकां युक्तेभ्यो भवायैकां भवच्छिदे ॥ ४८ ॥
श्रद्धा मैत्री दया शान्तिः तुष्टिः पुष्टिः क्रियोन्नतिः ।
बुद्धिर्मेधा तितिक्षा ह्रीः मूर्तिर्धर्मस्य पत्नोयः ॥ ४९ ॥
श्रद्धासूत शुभं मैत्री प्रसादं अभयं दया ।
शान्तिः सुखं मुदं तुष्टिः स्मयं पुष्टिः असूयत ॥ ५० ॥
योगं क्रियोन्नतिर्दर्पं अर्थं बुद्धिरसूयत ।
मेधा स्मृतिं तितिक्षा तु क्षेमं ह्रीः प्रश्रयं सुतम् ॥ ५१ ॥

ब्रह्माजीके पुत्र दक्षप्रजापति ने मनुनन्दिनी प्रसूतिसे विवाह किया। उससे उन्होंने सुन्दर नेत्रोंवाली सोलह कन्याएँ उत्पन्न कीं ॥ ४७ ॥ भगवान्‌ दक्षने उनमेंसे तेरह धर्मको, एक अग्निको, एक समस्त पितृगणको और एक संसारका संहार करनेवाले तथा जन्म-मृत्युसे छुड़ानेवाले भगवान्‌ शङ्कर को दी ॥ ४८ ॥ श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्री और मूर्ति—ये धर्मकी पत्नियाँ हैं ॥ ४९ ॥ इनमेंसे श्रद्धाने शुभ, मैत्रीने प्रसाद, दयाने अभय, शान्तिने सुख, तुष्टिने मोद और पुष्टिने अहंकारको जन्म दिया ॥ ५० ॥ क्रियाने योग, उन्नतिने दर्प, बुद्धिने अर्थ, मेधाने स्मृति, तितिक्षाने क्षेम और ह्री (लज्जा)ने प्रश्रय (विनय) नामक पुत्र उत्पन्न किया ॥ ५१ ॥ 

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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०७)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

भृगुः ख्यात्यां महाभागः पत्न्यां  पुत्रानजीजनत् ।
धातारं च विधातारं श्रियं च भगवत्पराम् ॥ ४३ ॥
आयतिं नियतिं चैव सुते मेरुस्तयोरदात् ।
ताभ्यां तयोरभवतां मृकण्डः प्राण एव च ॥ ४४ ॥
मार्कण्डेयो मृकण्डस्य प्राणाद्वेदशिरा मुनिः ।
कविश्च भार्गवो यस्य भगवानुशना सुतः ॥ ४५ ॥
ते एते मुनयः क्षत्तः लोकान् सर्गैरभावयन् ।
एष कर्दमदौहित्र सन्तानः कथितस्तव ।
श्रृण्वतः श्रद्दधानस्य सद्यः पापहरः परः ॥ ४६ ॥

महाभाग भृगुजी ने अपनी भार्या ख्याति से धाता और विधाता नामक पुत्र तथा श्री नाम की एक भगवत्परायणा कन्या उत्पन्न की ॥ ४३ ॥ मेरुऋषिने अपनी आयति और नियति नामकी कन्याएँ क्रमश: धाता और विधाताको ब्याहीं; उनसे उनके मृकण्ड और प्राण नामक पुत्र हुए ॥ ४४ ॥ उनमेंसे मृकण्डके मार्कण्डेय और प्राणके मुनिवर वेदशिराका जन्म हुआ। भृगुजीके एक कविनामक पुत्र भी थे। उनके भगवान्‌ उशना (शुक्राचार्य) हुए ॥ ४५ ॥ विदुरजी ! इन सब मुनीश्वरोंने भी सन्तान उत्पन्न करके सृष्टिका विस्तार किया। इस प्रकार मैंने तुम्हें यह कर्दमजीके दौहित्रों की सन्तान का वर्णन सुनाया। जो पुरुष इसे श्रद्धापूर्वक सुनता है, उसके पापोंको यह तत्काल नष्ट कर देता है ॥ ४६ ॥

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गुरुवार, 28 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

श्रद्धा त्वङ्‌गिरसः पत्नीश चतस्रोऽसूत कन्यकाः ।
सिनीवाली कुहू राका चतुर्थ्यनुमतिस्तथा ॥ ३४ ॥
तत्पुत्रावपरावास्तां ख्यातौ स्वारोचिषेऽन्तरे ।
उतथ्यो भगवान् साक्षात् ब्रह्मिष्ठश्च बृहस्पतिः ॥ ३५ ॥
पुलस्त्योऽजनयत्पत्न्यांय अगस्त्यं च हविर्भुवि ।
सोऽन्यजन्मनि दह्राग्निः विश्रवाश्च महातपाः ॥ ३६ ॥
तस्य यक्षपतिर्देवः कुबेरस्त्विडविडासुतः ।
रावणः कुम्भकर्णश्च तथान्यस्यां विभीषणः ॥ ३७ ॥
पुलहस्य गतिर्भार्या त्रीनसूत सती सुतान् ।
कर्मश्रेष्ठं वरीयांसं सहिष्णुं च महामते ॥ ३८ ॥
क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत ।
ऋषीन्षष्टिसहस्राणि ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥ ३९ ॥
ऊर्जायां जज्ञिरे पुत्रा वसिष्ठस्य परंतप ।
चित्रकेतुप्रधानास्ते सप्त ब्रह्मर्षयोऽमलाः ॥ ४० ॥
चित्रकेतुः सुरोचिश्च विरजा मित्र एव च ।
उल्बणो वसुभृद्यानो द्युमान् शक्त्यादयोऽपरे ॥ ४१ ॥
चित्तिस्त्वथर्वणः पत्नीम लेभे पुत्रं धृतव्रतम् ।
दध्यञ्चमश्वशिरसं भृगोर्वंशं निबोध मे ॥ ४२ ॥

अङ्गिरा की पत्नी श्रद्धा ने सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति—इन चार कन्याओं को जन्म दिया ॥ ३४ ॥ इनके सिवा उनके साक्षात् भगवान्‌ उतथ्यजी और ब्रह्मनिष्ठ बृहस्पतिजी—ये दो पुत्र भी हुए, जो स्वारोचिष मन्वन्तर में विख्यात हुए ॥ ३५ ॥ पुलस्त्यजी के उनकी पत्नी हविर्भू से महर्षि अगस्त्य और महातपस्वी विश्रवा—ये दो पुत्र हुए। इनमें अगस्त्यजी दूसरे जन्म में जठराग्नि हुए ॥ ३६ ॥ विश्रवा मुनिके इडविडाके गर्भसे यक्षराज कुबेरका जन्म हुआ और उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीषण उत्पन्न हुए ॥ ३७ ॥ 
महामते ! महर्षि पुलहकी स्त्री परम साध्वी गतिसे कर्मश्रेष्ठ, वरीयान् और सहिष्णु—ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार क्रतुकी पत्नी क्रियाने ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान बालखिल्यादि साठ हजार ऋषियोंको जन्म दिया ॥ ३९ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! वसिष्ठजीकी पत्नी ऊर्जा (अरुन्धती) से चित्रकेतु आदि सात विशुद्धचित्त ब्रहमर्षियों का जन्म हुआ ॥४०॥ उनके नाम चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्बण, वसुभृद्यान और द्युमान् थे। इनके सिवा उनकी दूसरी पत्नीसे शक्ति आदि और भी कई पुत्र हुए ॥ ४१ ॥ अथर्वा मुनिकी पत्नी चित्तिने दध्यङ् (दधीचि) नामक एक तपोनिष्ठ पुत्र प्राप्त किया, जिसका दूसरा नाम अश्वशिरा भी था। अब भृगुके वंशका वर्णन सुनो ॥ ४२ ॥

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बुधवार, 27 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

मैत्रेय उवाच -
इति तस्य वचः श्रुत्वा त्रयस्ते विबुधर्षभाः ।
प्रत्याहुः श्लक्ष्णया वाचा प्रहस्य तं ऋषिं प्रभो ॥ २९ ॥

देवा ऊचुः -
यथा कृतस्ते सङ्‌कल्पो भाव्यं तेनैव नान्यथा ।
सत्सङ्‌कल्पस्य ते ब्रह्मन् यद्वै ध्यायति ते वयम् ॥ ३० ॥
अथास्मद् अंशभूतास्ते आत्मजा लोकविश्रुताः ।
भवितारोऽङ्‌ग भद्रं ते विस्रप्स्यन्ति च ते यशः ॥ ३१ ॥
एवं कामवरं दत्त्वा प्रतिजग्मुः सुरेश्वराः ।
सभाजितास्तयोः सम्यग् दम्पत्योर्मिषतोस्ततः ॥ ३२ ॥
सोमोऽभूद्ब्र ह्मणोंऽशेन दत्तो विष्णोस्तु योगवित् ।
दुर्वासाः शंकरस्यांशो निबोधाङ्‌गिरसः प्रजाः ॥ ३३ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—समर्थ विदुरजी ! अत्रिमुनि के वचन सुनकर वे तीनों देव हँसे और उनसे सुमधुर वाणी में कहने लगे ॥ २९ ॥
देवताओं ने कहा—ब्रह्मन् ! तुम सत्यसङ्कल्प हो । अत: तुमने जैसा सङ्कल्प किया था, वही होना चाहिये। उससे विपरीत कैसे हो सकता था ? तुम जिस ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं ॥ ३० ॥ प्रिय महर्षे ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे यहाँ हमारे ही अंशस्वरूप तीन जगद्विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे और तुम्हारे सुन्दर यशका विस्तार करेंगे ॥ ३१ ॥
उन्हें इस प्रकार अभीष्ट वर देकर तथा पति-पत्नी दोनोंसे भलीभाँति पूजित होकर उनके देखते- ही-देखते वे तीनों सुरेश्वर अपने-अपने लोकोंको चले गये ॥ ३२ ॥ ब्रह्माजीके अंशसे चन्द्रमा,विष्णुके अंशसे योगवेत्ता दत्तात्रेयजी और महादेवजीके अंशसे दुर्वासा ऋषि अत्रिके पुत्ररूपमें प्रकट हुए। अब अङ्गिरा ऋषिकी सन्तानों का वर्णन सुनो ॥ ३३ ॥

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मंगलवार, 26 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

तत्प्रादुर्भावसंयोग विद्योतितमना मुनिः ।
उत्तिष्ठन्नेकपादेन ददर्श विबुधर्षभान् ॥ २३ ॥
प्रणम्य दण्डवद्भूरमौ उपतस्थेऽर्हणाञ्जलिः ।
वृषहंससुपर्णस्थान् स्वैः स्वैश्चिह्नैश्च चिह्नितान् ॥ २४ ॥
कृपावलोकेन हसद् वदनेनोपलम्भितान् ।
तद् रोचिषा प्रतिहते निमील्य मुनिरक्षिणी ॥ २५ ॥
चेतस्तत्प्रवणं युञ्जन् नस्तावीत्संहताञ्जलिः ।
श्लक्ष्णया सूक्तया वाचा सर्वलोकगरीयसः ॥ २६ ॥

अत्रिरुवाच -
विश्वोद्भचवस्थितिलयेषु विभज्यमानैः
     मायागुणैरनुयुगं विगृहीतदेहाः ।
ते ब्रह्मविष्णुगिरिशाः प्रणतोऽस्म्यहं वः
     तेभ्यः क एव भवतां मे इहोपहूतः ॥ २७ ॥
एको मयेह भगवान् विविधप्रधानैः
     चित्तीकृतः प्रजननाय कथं नु यूयम् ।
अत्रागतास्तनुभृतां मनसोऽपि दूराद्
     ब्रूत प्रसीदत महानिह विस्मयो मे ॥ २८ ॥

उन तीनों का (ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का) एक ही साथ प्रादुर्भाव होने से अत्रिमुनि का अन्त:करण प्रकाशित हो उठा। उन्होंने एक पैरसे खड़े-खड़े ही उन देवदेवों को देखा और फिर पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर प्रणाम करनेके अनन्तर अर्घ्य-पुष्पादि पूजन की सामग्री हाथ में ले उनकी पूजा की । वे तीनों अपने-अपने वाहन—हंस, गरुड और बैलपर चढ़े हुए तथा अपने कमण्डलु, चक्र, त्रिशूलादि चिह्नोंसे सुशोभित थे ॥२३-२४॥ उनकी आँखोंसे कृपाकी वर्षा हो रही थी। उनके मुखपर मन्द हास्यकी रेखा थी—जिससे उनकी प्रसन्नता झलक रही थी। उनके तेजसे चौंधियाकर मुनिवरने अपनी आँखें मूँद लीं ॥ २५ ॥ वे चित्तको उन्हींकी ओर लगाकर हाथ जोड़ अतिमधुर और सुन्दर भावपूर्ण वचनोंमें लोकमें सबसे बड़े उन तीनों देवोंकी स्तुति करने लगे ॥ २६ ॥ अत्रिमुनि ने कहा—भगवन् ! प्रत्येक कल्पके आरम्भमें जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये जो मायाके सत्त्वादि तीनों गुणोंका विभाग करके भिन्न-भिन्न शरीर धारण करते हैं—वे ब्रह्मा, विष्णु और महादेव आप ही हैं; मैं आपको प्रणाम करता हूँ। कहिये—मैंने जिनको बुलाया था, आपमेंसे वे कौन महानुभाव हैं ? ॥ २७ ॥ क्योंकि मैंने तो सन्तानप्राप्ति की इच्छासे केवल एक सुरेश्वर भगवान्‌का ही चिन्तन किया था। फिर आप तीनोंने यहाँ पधारनेकी कृपा कैसे की ? आपलोगों तक तो देहधारियों के मनकी भी गति नहीं है, इसलिये मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। आपलोग कृपा करके मुझे इसका रहस्य बतलाइये ॥ २८ ॥

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सोमवार, 25 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

विदुर उवाच -
अत्रेर्गृहे सुरश्रेष्ठाः स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।
किञ्चित् चिकीर्षवो जाता एतदाख्याहि मे गुरो ॥ १६ ॥

मैत्रेय उवाच -
ब्रह्मणा चोदितः सृष्टौ अत्रिर्ब्रह्मविदां वरः ।
सह पत्न्याो ययावृक्षं कुलाद्रिं तपसि स्थितः ॥ १७ ॥
तस्मिन् प्रसूनस्तबक पलाशाशोककानने ।
वार्भिः स्रवद्‌भिरुद्घुेष्टे निर्विन्ध्यायाः समन्ततः ॥ १८ ॥
प्राणायामेन संयम्य मनो वर्षशतं मुनिः ।
अतिष्ठत् एकपादेन निर्द्वन्द्वोऽनिलभोजनः ॥ १९ ॥
शरणं तं प्रपद्येऽहं य एव जगदीश्वरः ।
प्रजां आत्मसमां मह्यं प्रयच्छत्विति चिन्तयन् ॥ २० ॥
तप्यमानं त्रिभुवनं प्राणायामैधसाग्निना ।
निर्गतेन मुनेर्मूर्ध्नः समीक्ष्य प्रभवस्त्रयः ॥ २१ ॥
अप्सरोमुनिगन्धर्व सिद्धविद्याधरोरगैः ।
वितायमानयशसः तदा आश्रमपदं ययुः ॥ २२ ॥

विदुरजीने पूछा—गुरुजी ! कृपया यह बतलाइये कि जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और अन्त करने वाले इन सर्वश्रेष्ठ देवों ने अत्रिमुनि के यहाँ क्या करने की इच्छा से अवतार लिया था ? ॥१६॥
श्रीमैत्रेयजीने कहा—जब ब्रह्माजीने ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि अत्रिको सृष्टि रचनेके लिये आज्ञा दी, तब वे अपनी सहधर्मणीके सहित तप करनेके लिये ऋक्षनामक कुलपर्वतपर गये ॥ १७ ॥ वहाँ पलाश और अशोक के वृक्षोंका एक विशाल वन था। उसके सभी वृक्ष फूलों के गुच्छों से लदे थे तथा उसमें सब ओर निर्विन्ध्या नदीके जलकी कलकल ध्वनि गूँजती रहती थी ॥ १८ ॥ उस वनमें वे मुनिश्रेष्ठ प्राणायामके द्वारा चित्तको वशमें करके सौ वर्षतक केवल वायु पीकर सरदी-गरमी आदि द्वन्द्वोंकी कुछ भी परवा न कर एक ही पैरसे खड़े रहे ॥ १९ ॥ उस समय वे मन-ही-मन यही प्रार्थना करते थे कि ‘जो कोई सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर हैं, मैं उनकी शरणमें हूँ; वे मुझे अपने ही समान सन्तान प्रदान करें’ ॥ २० ॥ तब यह देखकर कि प्राणायामरूपी र्ईंधनसे प्रज्वलित हुआ अत्रिमुनिका तेज उनके मस्तकसे निकलकर तीनों लोकोंको तपा रहा है—ब्रह्मा, विष्णु और महादेव—तीनों जगत्पति उनके आश्रमपर आये। उस समय अप्सरा, मुनि, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर और नाग—उनका सुयश गा रहे थे ॥ २१-२२ ॥ 

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रविवार, 24 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

तां कामयानां भगवान् उवाह यजुषां पतिः ।
तुष्टायां तोषमापन्नोऽ जनयद् द्वादशात्मजान् ॥ ॥ ६ ॥
तोषः प्रतोषः सन्तोषो भद्रः शान्तिरिडस्पतिः ।
इध्मः कविर्विभुः स्वह्नः सुदेवो रोचनो द्विषट् ॥ ७ ॥
तुषिता नाम ते देवा आसन् स्वायम्भुवान्तरे ।
मरीचिमिश्रा ऋषयो यज्ञः सुरगणेश्वरः ॥ ८ ॥
प्रियव्रतोत्तानपादौ मनुपुत्रौ महौजसौ ।
तत्पुत्रपौत्रनप्तॄणां अनुवृत्तं तदन्तरम् ॥ ९ ॥
देवहूतिमदात् तात कर्दमायात्मजां मनुः ।
तत्संबन्धि श्रुतप्रायं भवता गदतो मम ॥ १० ॥
दक्षाय ब्रह्मपुत्राय प्रसूतिं भगवान्मनुः ।
प्रायच्छद्यत्कृतः सर्गः त्रिलोक्यां विततो महान् ॥ ११ ॥
याः कर्दमसुताः प्रोक्ता नव ब्रह्मर्षिपत्नायः ।
तासां प्रसूतिप्रसवं प्रोच्यमानं निबोध मे ॥ १२ ॥
पत्नी  मरीचेस्तु कला सुषुवे कर्दमात्मजा ।
कश्यपं पूर्णिमानं च ययोः आपूरितं जगत् ॥ १३ ॥
पूर्णिमासूत विरजं विश्वगं च परन्तप ।
देवकुल्यां हरेः पाद शौचाद्याभूत्सरिद्दिवः ॥ १४ ॥
अत्रेः पत्न्येनसूया त्रीन् जज्ञे सुयशसः सुतान् ।
दत्तं दुर्वाससं सोमं आत्मेशब्रह्मसम्भवान् ॥ १५ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उसने यज्ञ भगवान्‌ को ही पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, तब भगवान्‌ यज्ञपुरुष ने उससे विवाह किया। इससे दक्षिणा को बड़ा सन्तोष हुआ । भगवान्‌ ने प्रसन्न होकर उससे बारह पुत्र उत्पन्न किये ॥ ६ ॥ उनके नाम हैं—तोष, प्रतोष, सन्तोष, भद्र, शान्ति, इडस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन ॥ ७ ॥ ये ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में ‘तुषित’ नामके देवता हुए । उस मन्वन्तर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान्‌ यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इन्द्र थे और महान् प्रभावशाली प्रियव्रत एवं उत्तानपाद मनुपुत्र थे। वह मन्वन्तर उन्हीं दोनों के बेटों, पोतों और दौहित्रों के वंशसे छा गया ॥ ८-९ ॥ प्यारे विदुरजी ! मनुजी ने अपनी दूसरी कन्या देवहूति कर्दमजी को ब्याही थी। उसके सम्बन्धकी प्राय: सभी बातें तुम मुझसे सुन चुके हो ॥ १० ॥ भगवान्‌ मनु ने अपनी तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति से किया था; उसकी विशाल वंशपरम्परा तो सारी त्रिलोकी में फैली हुई है ॥ ११ ॥ मैं कर्दमजी की नौ कन्याओं का, जो नौ ब्रहमर्षियों से ब्याही गयी थीं, पहले ही वर्णन कर चुका हूँ। अब उनकी वंशपरम्पराका वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ १२ ॥ मरीचि ऋषि की पत्नी कर्दमजी की बेटी कलासे कश्यप और पूर्णिमा नामक दो पुत्र हुए, जिनके वंश से यह सारा जगत् भरा हुआ है ॥ १३ ॥ शत्रुतापन विदुरजी ! पूर्णिमा के विरज और विश्वग नामके दो पुत्र तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या हुई। यही दूसरे जन्म में श्रीहरिके चरणों के धोवन से देवनदी गङ्गा के रूप में प्रकट हुई ॥ १४ ॥ अत्रि की पत्नी अनसूया से दत्तात्रेय, दुर्वासा और चन्द्रमा नाम के तीन परम यशस्वी पुत्र हुए । ये क्रमश: भगवान्‌ विष्णु, शङ्कर और ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न हुए थे ॥ १५ ॥

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शनिवार, 23 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध -पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश का वर्णन

मैत्रेय उवाच -

मनोस्तु शतरूपायां तिस्रः कन्याश्च जज्ञिरे ।
आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिरिति विश्रुताः ॥ १ ॥
आकूतिं रुचये प्रादाद् अपि भ्रातृमतीं नृपः ।
पुत्रिकाधर्ममाश्रित्य शतरूपानुमोदितः ॥ २ ॥
प्रजापतिः स भगवान् रुचिस्तस्यां अजीजनत् ।
मिथुनं ब्रह्मवर्चस्वी परमेण समाधिना ॥ ३ ॥
यस्तयोः पुरुषः साक्षात् विष्णुर्यज्ञस्वरूपधृक् ।
या स्त्री सा दक्षिणा भूतेः अंशभूतानपायिनी ॥ ४ ॥
आनिन्ये स्वगृहं पुत्र्याः पुत्रं विततरोचिषम् ।
स्वायम्भुवो मुदा युक्तो रुचिर्जग्राह दक्षिणाम् ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! स्वायम्भुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद—इन दो पुत्रों के सिवा तीन कन्याएँ भी हुई थीं; वे आकूति, देवहूति और प्रसूति नामसे विख्यात थीं ॥ १ ॥ आकूति का, यद्यपि उसके भाई थे तो भी, महारानी शतरूपाकी अनुमति से उन्होंने रुचि प्रजापति के साथ ‘पुत्रिकाधर्म’ के [*] अनुसार विवाह किया ॥ २ ॥
प्रजापति रुचि भगवान्‌ के अनन्य चिन्तन के कारण ब्रह्मतेज से सम्पन्न थे । उन्होंने आकूति के गर्भ से एक पुरुष और स्त्री का जोड़ा उत्पन्न किया ॥ ३ ॥ उनमें जो पुरुष था, वह साक्षात् यज्ञस्वरूपधारी भगवान्‌ विष्णु थे और जो स्त्री थी, वह भगवान्‌ से कभी अलग न रहनेवाली लक्ष्मीजी की अंशस्वरूपा ‘दक्षिणा’ थी ॥ ४ ॥ मनुजी अपनी पुत्री आकूतिके उस परमतेजस्वी पुत्र को बड़ी प्रसन्नता से अपने घर ले आये और दक्षिणा को रुचि प्रजापति ने अपने पास रखा ॥ ५ ॥
....................................................
[*] ‘पुत्रिका धर्म’ के अनुसार किये जाने वाले विवाह में यह शर्त होती है कि कन्या के जो पहला पुत्र होगा, उसे कन्या के पिता ले लेंगे ।

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शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

एवं सा कपिलोक्तेन मार्गेणाचिरतः परम् ।
आत्मानं ब्रह्मनिर्वाणं भगवन्तं अवाप ह ॥ ३० ॥
तद्वीरासीत् पुण्यतमं क्षेत्रं त्रैलोक्यविश्रुतम् ।
नाम्ना सिद्धपदं यत्र सा संसिद्धिमुपेयुषी ॥ ३१ ॥
तस्यास्तद्योगविधुतं आर्त्यं मर्त्यमभूत्सरित् ।
स्रोतसां प्रवरा सौम्य सिद्धिदा सिद्धसेविता ॥ ३२ ॥
कपिलोऽपि महायोगी भगवान् पितुराश्रमात् ।
मातरं समनुज्ञाप्य प्राग् उदीचीं दिशं ययौ ॥ ३३ ॥
सिद्धचारण गन्धर्वैः मुनिभिश्च अप्सरोगणैः ।
स्तूयमानः समुद्रेण दत्तार्हणनिकेतनः ॥ ३४ ॥
आस्ते योगं समास्थाय साङ्ख्याचार्यैरभिष्टुतः ।
त्रयाणामपि लोकानां उपशान्त्यै समाहितः ॥ ३५ ॥
एतन्निगदितं तात यत्पृष्टोऽहं तवानघ ।
कपिलस्य च संवादो देवहूत्याश्च पावनः ॥ ३६ ॥
य इदमनुशृणोति योऽभिधत्ते
     कपिलमुनेर्मतं आत्मयोगगुह्यम् ।
भगवति कृतधीः सुपर्णकेतौ
     उपलभते भगवत् पदारविन्दम् ॥ ३७ ॥

विदुरजी ! इस प्रकार देवहूतिजीने कपिलदेवजीके बताये हुये मार्गद्वारा थोड़े ही समयमें नित्य- मुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान्‌को प्राप्त कर लिया ॥ ३० ॥ वीरवर ! जिस स्थानपर उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह परम पवित्र क्षेत्र त्रिलोकीमें ‘सिद्धपद’ नामसे विख्यात हुआ ॥ ३१ ॥ 
साधुस्वभाव विदुरजी ! योगसाधन के द्वारा उनकेशरीरके सारे दैहिक मल दूर हो गये थे। वह एक नदीके रूपमें परिणत हो गया, जो सिद्धगणसे सेवित और सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली है ॥ ३२ ॥ महायोगी भगवान्‌ कपिलजी भी माताकी आज्ञा ले पिताके आश्रमसे ईशानकोणकी ओर चले गये ॥ ३३ ॥ वहाँ स्वयं समुद्रने उनका पूजन करके उन्हें स्थान दिया। वे तीनों लोकोंको शान्ति प्रदान करनेके लिये योगमार्गका अवलम्बन कर समाधिमें स्थित हो गये हैं। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, मुनि और अप्सरागण उनकी स्तुति करते हैं तथा सांख्याचार्यगण भी उनका सब प्रकार स्तवन करते रहते हैं ॥ ३४-३५ ॥
निष्पाप विदुरजी ! तुम्हारे पूछनेसे मैंने तुम्हें यह भगवान्‌ कपिल और देवहूतिका परम पवित्र संवाद सुनाया ॥ ३६ ॥ यह कपिलदेवजीका मत अध्यात्मयोग का गूढ़ रहस्य है । जो पुरुष इसका श्रवण या वर्णन करता है, वह भगवान्‌ गरुडध्वज की भक्ति से युक्त होकर शीघ्र ही श्रीहरि के चरणारविन्दों को प्राप्त करता है ॥ ३७ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे कापिलेयोपाख्याने त्रयस्त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३३ ॥

तीसरा स्कन्ध समाप्त

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गुरुवार, 21 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

ब्रह्मण्यवस्थितमतिः भगवति आत्मसंश्रये ।
निवृत्तजीवापत्तित्वात् क्षीणक्लेशाऽऽप्त निर्वृतिः ॥ २६ ॥
नित्यारूढसमाधित्वात् परावृत्तगुणभ्रमा ।
न सस्मार तदाऽऽत्मानं स्वप्ने दृष्टमिवोत्थितः ॥ २७ ॥
तद्देहः परतः पोषोऽपि अकृशश्चाध्यसम्भवात् ।
बभौ मलैरवच्छन्नः सधूम इव पावकः ॥ २८ ॥
स्वाङ्गं तपोयोगमयं मुक्तकेशं गताम्बरम् ।
दैवगुप्तं न बुबुधे वासुदेवप्रविष्टधीः ॥ २९ ॥

इस प्रकार जीव के अधिष्ठानभूत परब्रह्म श्रीभगवान्‌ में ही बुद्धिकी स्थिति हो जानेसे उनका (देवहूतिजी का) जीवभाव निवृत्त हो गया और वे समस्त क्लेशोंसे मुक्त होकर परमानन्दमें निमग्न हो गयीं ॥ २६ ॥ अब निरन्तर समाधिस्थ रहनेके कारण उनकी विषयोंके सत्यत्व की भ्रान्ति मिट गयी और उन्हें अपने शरीरकी भी सुधि न रही—जैसे जागे हुए पुरुषको अपने स्वप्नमें देखे हुए शरीरकी नहीं रहती ॥ २७ ॥ उनके शरीरका पोषण भी दूसरोंके द्वारा ही होता था। किन्तु किसी प्रकारका मानसिक क्लेश न होनेके कारण वह दुर्बल नहीं हुआ। उसका तेज और भी निखर गया और वह मैलके कारण धूमयुक्त अग्नि के समान सुशोभित होने लगा। उनके बाल बिथुर गये थे और वस्त्र भी गिर गया था; तथापि निरन्तर श्रीभगवान्‌ में ही चित्त लगा रहनेके कारण उन्हें अपने तपोयोगमय शरीर की कुछ भी सुधि नहीं थी, केवल प्रारब्ध ही उसकी रक्षा करता था ॥ २८-२९ ॥

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बुधवार, 20 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

वनं प्रव्रजिते पत्यौ अपत्यविरहातुरा ।
ज्ञाततत्त्वाप्यभून्नष्टे वत्से गौरिव वत्सला ॥ २१ ॥
तमेव ध्यायती देवं अपत्यं कपिलं हरिम् ।
बभूवाचिरतो वत्स निःस्पृहा तादृशे गृहे ॥ २२ ॥
ध्यायती भगवद्‌रूपं यदाह ध्यानगोचरम् ।
सुतः प्रसन्नवदनं समस्तव्यस्तचिन्तया ॥ २३ ॥
भक्तिप्रवाहयोगेन वैराग्येण बलीयसा ।
युक्तानुष्ठानजातेन ज्ञानेन ब्रह्महेतुना ॥ २४ ॥
विशुद्धेन तदात्मानं आत्मना विश्वतोमुखम् ।
स्वानुभूत्या तिरोभूत मायागुणविशेषणम् ॥ २५ ॥

पति के वनगमन के अनन्तर पुत्र का भी वियोग हो जाने से वे(देवहूतिजी) आत्मज्ञानसम्पन्न होकर भी ऐसी व्याकुल हो गयीं, जैसे बछड़े के बिछुड़ जाने से उसे प्यार करनेवाली गौ ॥ २१ ॥ वत्स विदुर ! अपने पुत्र कपिलदेवरूप भगवान्‌ हरिका ही चिन्तन करते-करते वे कुछ ही दिनोंमें ऐसे ऐश्वर्यसम्पन्न घरसे भी उपरत हो गयीं ॥ २२ ॥ फिर वे, कपिलदेवजीने भगवान्‌के जिस ध्यान करनेयोग्य वदनारविन्दयुक्त स्वरूपका वर्णन किया था, उसके एक-एक अवयवका तथा उस समग्र रूपका भी चिन्तन करती हुई ध्यानमें तत्पर हो गयीं ॥ २३ ॥ भगवद्भक्तिके प्रवाह, प्रबल वैराग्य और यथोचित्त कर्मानुष्ठानसे उत्पन्न हुए ब्रह्म साक्षात्कार करानेवाले ज्ञानद्वारा चित्त शुद्ध हो जानेपर वे उस सर्वव्यापक आत्माके ध्यानमें मग्न हो गयीं, जो अपने स्वरूपके प्रकाशसे मायाजनित आवरणको दूर कर देता है ॥ २४-२५ ॥ 

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मंगलवार, 19 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

अभीक्ष्ण अवगाहकपिशान् जटिलान् कुटिलालकान् ।
आत्मानं च उग्रतपसा बिभ्रती चीरिणं कृशम् ॥ १४ ॥
प्रजापतेः कर्दमस्य तपोयोगविजृम्भितम् ।
स्वगार्हस्थ्यमनौपम्यं प्रार्थ्यं वैमानिकैरपि ॥ १५ ॥
पयःफेननिभाः शय्या दान्ता रुक्मपरिच्छदाः ।
आसनानि च हैमानि सुस्पर्शास्तरणानि च ॥ १६ ॥
स्वच्छस्फटिककुड्येषु महामारकतेषु च ।
रत्न्प्रदीपा आभान्ति ललना रत्नुसंयुताः ॥ १७ ॥
गृहोद्यानं कुसुमितै रम्यं बह्वमरद्रुमैः ।
कूजद् विहङ्गमिथुनं गायन् मत्तमधुव्रतम् ॥ १८ ॥
यत्र प्रविष्टमात्मानं विबुधानुचरा जगुः ।
वाप्यां उत्पलगन्धिन्यां कर्दमेनोपलालितम् ॥ १९ ॥
हित्वा तदीप्सिततमं अप्याखण्डलयोषिताम् ।
किञ्चिच्चकार वदनं पुत्रविश्लेषणातुरा ॥ २० ॥

त्रिकाल स्नान करने से उनकी(देवहूतिजी की) घुँघराली अलकें भूरी-भूरी जटाओं में परिणत हो गयीं तथा चीर-वस्त्रों से ढका हुआ शरीर उग्र तपस्या के कारण दुर्बल हो गया ॥ १४ ॥ उन्होंने प्रजापति कर्दमके तप और योगबलसे प्राप्त अनुपम गाहर्स्थ्यसुखको, जिसके लिये देवता भी तरसते थे, त्याग दिया ॥ १५ ॥ जिसमें दुग्धफेन के समान स्वच्छ और सुकोमल शय्यासे युक्त हाथी-दाँतके पलंग, सुवर्णके पात्र, सोनेके सिंहासन और उनपर कोमल-कोमल गद्दे बिछे हुए थे तथा जिसकी स्वच्छ स्फटिकमणि और महामरकतमणि की भीतों में रत्नोंकी बनी हुई रमणी-मूर्तियोंके सहित मणिमय दीपक जगमगा रहे थे, जो फूलोंसे लदे हुए अनेकों दिव्य वृक्षोंसे सुशोभित था, जिसमें अनेक प्रकारके पक्षियोंका कलरव और मतवाले भौंरोंका गुंजार होता रहता था, जहाँकी कमलगन्धसे सुवासित बावलियोंमें कर्दमजीके साथ उनका लाड़-प्यार पाकर क्रीडाके लिये प्रवेश करनेपर उसका (देवहूतिका) गन्धर्वगण गुणगान किया करते थे और जिसे पानेके लिये इन्द्राणियाँ भी लालायित रहती थीं—उस गृहोद्यानकी भी ममता उन्होंने त्याग दी। किन्तु पुत्रवियोगसे व्याकुल होनेके कारण अवश्य उनका मुख कुछ उदास हो गया ॥१६—२०॥

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सोमवार, 18 अगस्त 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति

मैत्रेय उवाच –
ईडितो भगवानेवं कपिलाख्यः परः पुमान् ।
वाचाविक्लवयेत्याह मातरं मातृवत्सलः ॥ ९ ॥

कपिल उवाच –
मार्गेणानेन मातस्ते सुसेव्येनोदितेन मे ।
आस्थितेन परां काष्ठां अचिराद् अवरोत्स्यसि ॥ १० ॥
श्रद्धत्स्वैतन्मतं मह्यं जुष्टं यद्ब्रयह्मवादिभिः ।
येन मां अभयं याया मृत्युमृच्छन्त्यतद्विदः ॥ ११ ॥

मैत्रेय उवाच -
इति प्रदर्श्य भगवान् सतीं तां आत्मनो गतिम् ।
स्वमात्रा ब्रह्मवादिन्या कपिलोऽनुमतो ययौ ॥ १२ ॥
सा चापि तनयोक्तेन योगादेशेन योगयुक् ।
तस्मिन् आश्रम आपीडे सरस्वत्याः समाहिता ॥ १३ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं—माताके इस प्रकार स्तुति करनेपर मातृवत्सल परमपुरुष भगवान्‌ कपिलदेवजीने उनसे गम्भीर वाणीमें कहा ॥ ९ ॥
कपिलदेवजीने कहा—माताजी ! मैंने तुम्हें जो यह सुगम मार्ग बताया है, इसका अवलम्बन करने से तुम शीघ्र ही परमपद प्राप्त कर लोगी ॥ १० ॥ तुम मेरे इस मत में विश्वास करो, ब्रह्मवादी लोगों ने इसका सेवन किया है; इसके द्वारा तुम मेरे जन्म-मरणरहित स्वरूप को प्राप्त कर लोगी। जो लोग मेरे इस मतको नहीं जानते, वे जन्म-मृत्युके चक्रमें पड़ते हैं ॥ ११ ॥
मैत्रेयजी कहते हैं—इस प्रकार अपने श्रेष्ठ आत्मज्ञानका उपदेशकर श्रीकपिलदेवजी अपनी ब्रह्मवादिनी जननीकी अनुमति लेकर वहाँसे चले गये ॥ १२ ॥ तब देवहूतिजी भी सरस्वतीके मुकुटसदृश अपने आश्रममें अपने पुत्रके उपदेश किये हुए योगसाधनके द्वारा योगाभ्यास करती हुई समाधिमें स्थित हो गयीं ॥ १३ ॥
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श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१) ध्रुवका वन-गमन मैत्रेय उवाच - सनकाद्या नारदश्च ऋभुर्...