श्रीदुर्गासप्तशती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
श्रीदुर्गासप्तशती लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

गीता प्रबोधनी दूसरा अध्याय (पोस्ट.१५)


 

॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥

  

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय  

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-  

न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ २२॥

 

मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता हैऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता है।

 

व्याख्या

 

जैसे कपड़े बदलनेसे मनुष्य बदल नहीं जाता, ऐसे ही अनेक शरीरोंको धारण करने और छोड़नेपर भी शरीरी वही-का-वही रहता है, बदलता नहीं ।  तात्पर्य है कि शरीरके परिवर्तन तथा नाशसे स्वयंका परिवर्तन तथा नाश नहीं होता ।  यह सबका अनुभव है कि हम रहते हैं, बचपन आता और चला जाता है । हम रहते हैं, जवानी आती और चली जाती है । हम रहते हैं, बुढ़ापा आता और चला जाता है ।  वास्तवमें न बचपन है, न जवानी है, न बुढ़ापा है, न मृत्यु है, प्रत्युत केवल हमारी सत्ता ही है ।

 

ॐ तत्सत् !

 

शेष आगामी पोस्ट में .........

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)




रविवार, 10 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना

श्रीशुक उवाच ।
कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः ।
देवकी वसुदेवाभ्यां अनुज्ञातो आविशत् गृहम् ॥ २८ ॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मंत्रिणः ।
तेभ्य आचष्ट तत् सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया ॥ २९ ॥
आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तं ऊचुः देवशत्रवः ।
देवान् प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः ॥ ३० ॥
एवं चेत्तर्हि भोजेन्द्र पुरग्राम व्रजादिषु ।
अनिर्दशान् निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून् ॥ ३१ ॥
किं उद्यमैः करिष्यन्ति देवाः समरभीरवः ।
नित्यं उद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव ॥ ३२ ॥
अस्यतस्ते शरव्रातैः हन्यमानाः समन्ततः ।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः ॥ ३३ ॥
केचित् प्राञ्जलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः ।
मुक्तकच्छशिखाः केचिद् भीताः स्म इति वादिनः ॥ ३४ ॥
न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान् विरथान् भयसंवृतान् ।
हंस्यन्यासक्तविमुखान् भग्नचापानयुध्यतः ॥ ३५ ॥
किं क्षेमशूरैर्विबुधैः असंयुगविकत्थनैः ।
रहोजुषा किं हरिणा शंभुना वा वनौकसा ।
किं इंद्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता ॥ ३६ ॥
तथापि देवाः सापत्‍न्यान् नोपेक्ष्या इति मन्महे ।
ततः तन्मूलखनने नियुंक्ष्वास्मान् अनुव्रतान् ॥ ३७ ॥
यथामयोंऽगे समुपेक्षितो नृभिः
न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम् ।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथा
रिपुर्महान् बद्धबलो न चाल्यते ॥ ३८ ॥
मूलं हि विष्णुः देवानां यत्र धर्मः सनातनः ।
तस्य च ब्रह्मगोविप्राः तपो यज्ञाः सदक्षिणाः ॥ ३९ ॥
तस्मात्सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ।
तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्च हन्मो हविर्दुघाः ॥ ४० ॥
विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः ।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः ॥ ४१ ॥
स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्‌विड् गुहाशयः ।
तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः ।
अयं वै तद्‌वधोपायो यद्‌ऋषीणां विहिंसनम् ॥ ४२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब वसुदेव और देवकीने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपटभाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महलमें चला गया ॥ २८ ॥ वह रात्रि बीत जानेपर कंसने अपने मन्ङ्क्षत्रयोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २९ ॥ कंसके मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे । दैत्य होनेके कारण स्वभावसे ही वे देवताओंके प्रति शत्रुताका भाव रखते थे । अपने स्वामी कंसकी बात सुनकर वे देवताओंपर और भी चिढ़ गये और कंससे कहने लगे॥ ३० ॥ भोजराज ! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरोंमें, छोटे-छोटे गाँवोंमें, अहीरोंकी बस्तियोंमें और दूसरे स्थानोंमें जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिनसे अधिकके हों या कमके, सबको आज ही मार डालेंगे ॥ ३१ ॥ समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे ? वे तो आपके धनुषकी टङ्कार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं ॥ ३२ ॥ जिस समय युद्धभूमिमें आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षासे घायल होकर अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये समराङ्गण छोडक़र देवतालोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं ॥ ३३ ॥ कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीनपर डाल देते हैं और हाथ जोडक़र आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं । कोई-कोई अपनी चोटीके बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शरणमें आकर कहते हैं कि—‘हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये॥ ३४ ॥ आप उन शत्रुओंको नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोडक़र अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्धसे अपना मुख मोड़ लिया होउन्हें भी आप नहीं मारते ॥ ३५ ॥ देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो । रणभूमिके बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं । उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शङ्कर, अल्पवीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मासे भी हमें क्या भय हो सकता है ॥ ३६ ॥ फिर भी देवताओंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहियेऐसी हमारी राय है । क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही । इसलिये उनकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकोंको नियुक्त कर दीजिये ॥ ३७ ॥ जब मनुष्यके शरीरमें रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जातीउपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है । अथवा जैसे इन्द्रियोंकी उपेक्षा कर देनेपर उनका दमन असम्भव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रुकी उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है ॥ ३८ ॥ देवताओं की जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधर्म है । सनातनधर्म की जड़ हैंवेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिनमें दक्षिणा दी जाती है ॥३९॥ इसलिये भोजराज ! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञके लिये घी आदि हविष्य पदार्थ देनेवाली गायोंका पूर्णरूपसे नाश कर डालेंगे ॥ ४० ॥ ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णुके शरीर हैं ॥ ४१ ॥ वह विष्णु ही सारे देवताओंका स्वामी तथा असुरोंका प्रधान द्वेषी है । परंतु वह किसी गुफामें छिपा रहता है । महादेव, ब्रह्मा और सारे देवताओंकी जड़ वही है । उसको मार डालनेका उपाय यह है कि ऋषियोंको मार डाला जाय॥ ४२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 14 अप्रैल 2019

श्रीअम्बाजी की आरती




श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

श्रीअम्बाजी की आरती

जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामागौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री॥ १॥ जय अम्बे०
माँग सिंदूर विराजत टीको मृगमदको।।
उज्ज्वलसे दोउ नैना, चंद्रवदन नीको॥२॥ जय अम्बे०
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्त-पुष्प गल माला, कण्ठनपर साजै॥ ३॥ जय अम्बे०
केहरि वाहन राजत, खड्ग खपर धारी।।
सुर-नर-मुनि-जन सेवत, तिनके दुखहारी॥४॥ जय अम्बे०
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चंद्र दिवाकर सम राजत ज्योती॥५॥ जय अम्बे०
शुम्भ निशुम्भ विदारे, महिषासुर-घाती।
धूम्रविलोचन नैना निशिदिन मदमाती॥ ६॥ जय अम्बे०
चण्ड मुण्ड संहारे, शोणितबीज हरे।
मधु कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे॥ ७॥ जय अम्बे०
ब्रह्माणी, रुद्राणी तुम कमलारानी।
आगम-निगम-बखानी, तुम शिव पटरानी॥ ८॥ जय अम्बे०
चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ।
बाजत ताल मृदंगा औ बाजत डमरू॥ ९॥ जय अम्बे०
तुम ही जगकी माता, तुम ही हो भरता।
भक्तनकी दुख हरता सुख सम्पति करता॥१०॥ जय अम्बे०
भुजा चार अति शोभित, वर-मुद्रा धारी।।
मनवाञ्छित फल पावत, सेवत नर-नारी॥११॥ जय अम्बे०
कंचन थाल विराजत अगर कपुर बाती।
(श्री) मालकेतु में राजत कोटिरतन ज्योती॥ १२॥ जय अम्बे०
(श्री) अम्बेजीकी आरति जो कोई नर गावै।।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै॥ १३॥ जय अम्बे०

................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281





श्रीदेवीजी की आरती


श्रीदेवीजी की आरती


जगजननी जय! जय!! (मा! जगजननी जय! जय!!)
भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय! जय!!  जग०
तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥१॥ जग०
आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी।।
अमल अनन्त अगोचर अज आनंदराशी॥२॥ जग०
अविकारी, अघहारी, अकल, कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर सँहारकारी ॥ ३॥ जग०
तू विधिवधू, रमा, तू उमा, महामाया।
मूल प्रकृति विद्या तू, तू जननी, जाया॥४॥ जग०
राम, कृष्ण तू, सीता, व्रजरानी राधा।।
तू वाञ्छाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥५॥ जग०
दश विद्या, नव दुर्गा, नानाशस्त्रकरा।।
अष्टमातृका, योगिनि, नव नव रूप धरा॥ ६॥ जग०
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू ॥ ७॥ जग०
सुर-मुनि-मोहिनि सौम्या तू शोभाऽऽधारा।
विवसन विकट-सरूपा, प्रलयमयी धारा॥ ८॥ जग०
तू ही स्नेह-सुधामयि, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना॥ ९॥ जग०
मूलाधारनिवासिनि,इह-पर-सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥१०॥ जग०
शक्ति शक्तिधर तू ही नित्य अभेदमयी।
भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥ ११॥ जग०
हम अति दीन दुखी मा! विपत-जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥१२॥ जग०
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयि! चरण-शरण दीजै॥ १३॥
जगजननी जय! जय!! (मा! जगजननी जय! जय!!)

                    * * * * * * * *












शनिवार, 13 अप्रैल 2019

सप्तश्लोकी दुर्गा (हिन्दी भावार्थ)



श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:
 अथ सप्तश्लोकी दुर्गा (हिन्दी भावार्थ)

शिवजी बोले-
हे देवि! तुम भक्तों के लिए सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो | कलियुग में कामनाओं की सिद्धि-हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक् रूप से व्यक्त करो |

देवी ने कहा-
हे देव ! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है | कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊंगी, सुनो ! उसका नाम है ‘अम्बास्तुति’ |

ॐ इस दुर्गासप्तश्लोकी स्तोत्रमन्त्रके नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप्  छन्द है, श्रीमहाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, श्रीदुर्गाकी प्रसन्नताके लिये सप्तश्लोकी दुर्गापाठमें इसका विनियोग  किया जाता है।

वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं ||१||

माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं । दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवी ! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो ||२|| नारायणी ! आप सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हैं, आप ही कल्याणदायिनी शिवा हैं । आप सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी हैं । आपको नमस्कार है ||३|| शरणागतों, दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवी ! आपको नमस्कार है ||४|| सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी ! सब भयों से हमारी रक्षा कीजिये ; आपको नमस्कार है ||५|| देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हैं और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हैं । जो लोग आपकी शरण में हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं ; आपकी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं ||६|| सर्वेश्वरि ! आप इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करें और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो ||७||

|| इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा (हिन्दी भावार्थ) ||



सप्तश्लोकी दुर्गा


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:
 अथ सप्तश्लोकी दुर्गा

शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी |
कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नत: ||

देव्युवाच-
शृणु  देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम् |
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुति: प्रकाश्यते ||

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमहामन्त्रस्य नारायण ऋषिः । अनुष्टुपादीनि छन्दांसि ।
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः । श्री जगदम्बाप्रीत्यर्थ पाठे विनियोगः ॥

ॐज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥१॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्र चित्ता ॥२॥
सर्वमंगलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥४॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवी नमोऽस्तु ते ॥५॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥६॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ||७||

|| इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ||

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०३)

हुं हुं हुँकाररूपिण्यै, जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे  भवान्यै ते नमो नमः।।7||
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं 
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु  स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8||
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं, कुरुश्व मे ।
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं  मंत्रजागर्तिहेतवे  |
अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि, हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।

। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

हुं हुं हुंकार'  स्वरूपिणी, ‘जं जं जं' जम्भनादिनी, 'भ्रां भ्रीं भ्रूं' के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी! तुम्हें बार-बार प्रणाम ॥ ७॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं इन सबको तोड़ो और दीप्त करो करो स्वाहा। 'पां पीं पूं' के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो। 'खां खीं खूं' के रूप में तुम खेचरी (आकाशचारिणी) अथवा खेचरी मुद्रा हो ॥८॥ 'सां सीं सूं' स्वरूपिणी सप्तशतीदेवी के मन्त्र को मेरे लिये सिद्ध करो। यह कुञ्जिकास्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिये है। इसे भक्तिहीन पुरुषको नहीं देना चाहिये। हे पार्वती! इसे गुप्त रखो। हे देवी! जो बिना  कुञ्जिका के सप्तशतीका पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं  मिलती जिस प्रकार वनमें रोना निरर्थक होता है।

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के गौरीतन्त्र में शिव-पार्वती-संवादमें सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।

||ॐ तत्सत् ||
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...