सोमवार, 6 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



ययाति चरित्र


श्रीपूरुरुवाच ।

को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान् ।

प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम् ॥ ४३ ॥

उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः ।

अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितुः ॥ ४४ ॥

इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः ।

सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप ॥ ४५ ॥

सप्तद्वीपपतिः सम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः ।

यथोपजोषं विषयान् जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः ॥ ४६ ॥

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग् देहवस्तुभिः ।

प्रेयसः परमां प्रीतिं उवाह प्रेयसी रहः ॥ ४७ ॥

अयजद् यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।

सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ॥ ४८ ॥

यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः ।

नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः ॥ ४९ ॥

तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् ।

नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम् ॥ ५० ॥

एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम् ।

विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥ ५१ ॥


पूरु ने कहा—‘पिताजी ! पिता की कृपा से मनुष्य को परमपद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्रका शरीर पिताका ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्थामें ऐसा कौन है, जो इस संसारमें पिताके उपकारोंका बदला चुका सके ? ॥ ४३ ॥ उत्तम पुत्र तो वह है, जो पिताके मनकी बात बिना कहे ही कर दे। कहनेपर श्रद्धाके साथ आज्ञापालन करनेवाले पुत्रको मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होनेपर भी अश्रद्धासे उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है। और जो किसी प्रकार भी पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिताका मल-मूत्र ही है ॥ ४४ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहकर पूरुने बड़े आनन्दसे अपने पिताका बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयोंका सेवन करने लगे ॥ ४५ ॥ वे सातों द्वीपोंके एकच्छत्र सम्राट् थे। पिताके समान भलीभाँति प्रजाका पालन करते थे। उनकी इन्द्रियोंमें पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयोंका यथेच्छ उपभोग करते थे ॥ ४६ ॥ देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययातिको अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओंके द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्तमें सुख देने लगी ॥ ४७ ॥ राजा ययातिने समस्त वेदोंके प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान्‌ श्रीहरिका बहुतसे बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे यजन किया ॥ ४८ ॥ जैसे आकाशमें दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्माके स्वरूपमें यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्यके समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपोंके रूपमें प्रतीत होता है और कभी नहीं भी ॥ ४९ ॥ वे परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान्‌ श्रीनारायणको अपने हृदयमें स्थापित करके राजा ययातिने निष्काम भावसे उनका यजन किया ॥ ५० ॥ इस प्रकार एक हजार वर्षतक उन्होंने अपनी उच्छृङ्खल इन्द्रियोंके साथ मनको जोडक़र उसके प्रिय विषयोंको भोगा। परंतु इतनेपर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययातिकी भोगोंसे तृप्ति न हो सकी ॥ ५१ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



ययाति चरित्र


श्रीययातिरुवाच ।

अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते ।

व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति ॥ ३७ ॥

इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत ।

यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥ ३८ ॥

मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् ।

वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥ ३९ ॥



श्रीयदुरुवाच ।

नोत्सहे जरसा स्थातुं अन्तरा प्राप्तया तव ।

अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः ॥ ४० ॥

तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत ।

प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः ॥ ४१ ॥

अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।

न त्वं अग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि ॥ ४२ ॥


ययातिने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपकी पुत्रीके साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शापसे तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।इसपर शुक्राचार्यजीने कहा—‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नतासे तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो॥ ३७ ॥ शुक्राचार्यजीने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानीमें आकर ययातिने अपने बड़े पुत्र यदुसे कहा—‘बेटा ! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नानाका दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र ! मैं अभी विषयोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षोंतक और आनन्द भोगूँगा॥ ३८-३९ ॥
यदुने कहा—‘पिताजी ! बिना समयके ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक विषय-सुखका अनुभव नहीं कर लेता, तबतक उसे उससे वैराग्य नहीं होता॥ ४० ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुने भी पिताकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रोंको धर्मका तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीरको ही नित्य माने बैठे थे ॥ ४१ ॥ अब ययातिने अवस्थामें सबसे छोटे किन्तु गुणोंमें बड़े अपने पुत्र पूरुको बुलाकर पूछा और कहा—‘बेटा ! अपने बड़े भाइयोंके समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये ॥ ४२ ॥



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रविवार, 5 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ययाति चरित्र


स्वानां तत् संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् ।

देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत् ॥ २९ ॥

नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना ।

तमाह राजन् शर्मिष्ठां आधास्तल्पे न कर्हिचित् ॥ ३० ॥

विलोक्यौशनसीं राजन् शर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित् ।

तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती ॥ ३१ ॥

राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित् ।

स्मरन् शुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥ ३२ ॥

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।

द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ३३ ॥

गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी ।

देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता ॥ ३४ ॥

प्रियां अनुगतः कामी वचोभिः उपमन्त्रयन् ।

न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः ॥ ३५ ॥

शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष ।

त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम् ॥ ३६ ॥


शर्मिष्ठा ने अपने परिवारवालों का संकट और उनके कार्यका गौरव देखकर देवयानीकी बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियोंके साथ दासीके समान उसकी सेवा करने लगी ॥ २९ ॥ शुक्राचार्यजीने देवयानीका विवाह राजा ययातिके साथ कर दिया और शर्मिष्ठाको दासीके रूपमें देकर उनसे कह दिया—‘राजन् ! इसको अपनी सेजपर कभी न आने देना॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठाने भी अपने ऋतुकालमें देवयानीके पति ययातिसे एकान्तमें सहवासकी याचना की ॥ ३१ ॥ शर्मिष्ठाकी पुत्रके लिये प्रार्थना धर्मसंगत हैयह देखकर धर्मज्ञ राजा ययातिने शुक्राचार्यकी बात याद रहनेपर भी यही निश्चय किया कि समयपर प्रारब्धके अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा ॥ ३२ ॥ देवयानीके दो पुत्र हुएयदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके तीन पुत्र हुएद्रुह्यु, अनु और पूरु ॥ ३३ ॥ जब मानिनी देवयानीको यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठाको भी मेरे पतिके द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोधसे बेसुध होकर अपने पिताके घर चली गयी ॥ ३४ ॥ कामी ययातिने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदिके द्वारा देवयानीको मनानेकी चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँतक गये भी, परंतु मना न सके ॥ ३५ ॥ शुक्राचार्यजीने भी क्रोधमें भरकर ययातिसे कहा—‘तू अत्यन्त स्त्रीलम्पट, मन्दबुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीरमें वह बुढ़ापा आ जाय, जो मनुष्योंको कुरूप कर देता है॥ ३६ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ययाति चरित्र


तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन् ।

प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥ १८ ॥

दत्त्वा स्वमुत्तरं वासः तस्यै राजा विवाससे ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं उज्जहार दयापरः ॥ १९ ॥

तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।

राजन् त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय ॥ २० ॥

हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे ।

एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः ।

यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम ॥ २१ ॥

न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।

कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा ॥ २२ ॥

ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः ।

मनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः ॥ २३ ॥

गते राजनि सा धीरे तत्र स्म रुदती पितुः ।

न्यवेदयत् ततः सर्वं उक्तं शर्मिष्ठया कृतम् ॥ २४ ॥

दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् ।

स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥ २५ ॥

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीक विवक्षितम् ।

गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि ॥ २६ ॥

क्षणार्ध मन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः ।

कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ २७ ॥

तथेति अवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम् ।

पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥ २८ ॥


शर्मिष्ठा के चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कूएँमें पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देख लिया ॥ १८ ॥ उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर निकाल लिया ॥ १९ ॥ देवयानीने प्रेमभरी वाणीसे वीर ययातिसे कहा—‘वीर- शिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ ! कूएँ में गिर जानेपर मुझे तो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान्‌का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है ॥ २०-२१ ॥ वीरश्रेष्ठ ! पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दे दिया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’[*] ॥ २२ ॥ ययाति को शास्त्रप्रतिकूल होनेके कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परंतु उन्होंने देखा कि प्रारब्धने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है, और मेरा मन भी इसकी ओर ङ्क्षखच रहा है। इसलिये ययातिने उसकी बात मान ली ॥ २३ ॥
वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्यके पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २४ ॥ शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान्‌ शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अत: अपनी कन्या देवयानीको साथ लेकर वे नगरसे निकल पड़े ॥ २५ ॥ जब वृषपर्वाको यह मालूम हुआ, तो उनके मनमें यह शङ्का हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओंकी जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करनेके लिये पीछे-पीछे गये और रास्तेमें उनके चरणोंपर सिरके बल गिर गये ॥ २६ ॥ भगवान्‌ शुक्राचार्यजीका क्रोध तो आधे ही क्षणका था। उन्होंने वृषपर्वासे कहा—‘राजन् ! मैं अपनी पुत्री देवयानीको नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलनेमें कोई आपत्ति न होगी॥ २७ ॥ जब वृषपर्वाने ठीक हैकहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानीने अपने मनकी बात कही। उसने कहा—‘पिताजी मुझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियोंके साथ मेरी सेवाके लिये वहीं चले॥ २८ ॥

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[*] बृहस्पतिजी का पुत्र कच शुक्राचार्यजी से मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़ता था। अध्ययन समाप्त करके जब वह अपने घर जाने लगा तो देवयानीने उसे वरण करना चाहा। परंतु गुरुपुत्री होनेके कारण कच ने उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इसपर देवयानी ने उसे शाप दे दिया कि तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या निष्फल हो जाय।कच ने भी उसे शाप दिया कि कोई भी ब्राह्मण तुम्हें पत्नीरूप में स्वीकार न करेगा।



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शनिवार, 4 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



ययाति चरित्र


श्रीशुक उवाच ।

एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका ।

सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥ ६ ॥

देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले ।

व्यचरत् कलगीतालि नलिनीपुलिनेऽबला ॥ ७ ॥

ता जलाशयम आसाद्य कन्याः कमललोचनाः ।

तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः ॥ ८ ॥

वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम् ।

सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः ॥ ९ ॥

शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत् ।

स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानी इदमब्रवीत् ॥ १० ॥

अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम् ।

अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥ ११ ॥

यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये ।

धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाः प्रदर्शितः ॥ १२ ॥

यान् वन्दन्ति उपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः ।

भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः ॥ १३ ॥

वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः ।

अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती ॥ १४ ॥

एवं क्षिपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीं अभाषत ।

रुषा श्वसन्ति उरंगीघ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा ॥ १५ ॥

आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि ।

किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा ॥ १६ ॥

एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम् ।

शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वासे आदाय मन्युना ॥ १७ ॥


श्रीशुकदेवजीने कहाराजन् ! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानीके श्रेष्ठ उद्यानमें टहल रही थी। उस उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवरमें कमल खिले हुए थे और उनपर बड़े ही मधुर स्वरसे भौंरे गुँजार कर रहे थे। उसकी ध्वनिसे सरोवरका तट गूँज रहा था ॥ ६-७ ॥ जलाशयके पास पहुँचनेपर उन सुन्दरी कन्याओंने अपने-अपने वस्त्र तो घाटपर रख दिये और उस तालाबमें प्रवेश करके वे एक-दूसरेपर जल उलीच-उलीचकर क्रीडा करने लगीं ॥ ८ ॥ उसी समय उधरसे पार्वतीजीके साथ बैलपर चढ़े हुए भगवान्‌ शङ्कर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवरसे निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये ॥ ९ ॥ शीघ्रताके कारण शर्मिष्ठाने अनजानमें देवयानीके वस्त्रको अपना समझकर पहन लिया। इसपर देवयानी क्रोधके मारे आग- बबूला हो गयी। उसने कहा॥ १० ॥ अरे, देखो तो सही, इस दासीने कितना अनुचित काम कर डाला ! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञका हविष्य उठा ले जाय, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं ॥ ११ ॥ जिन ब्राह्मणोंने अपने तपोबलसे इस संसारकी सृष्टि की है, जो परम पुरुष परमात्माके मुखरूप हैं, जो अपने हृदयमें निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्माको धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये वैदिक मार्गका निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र, ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना और सेवा करते हैंऔर तो क्या, लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय परम पावन विश्वात्मा भगवान्‌ भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैंउन्हीं ब्राह्मणोंमें हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं। और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इसपर भी इस दुष्टाने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ोंको पहन लिया है॥ १२१४ ॥ जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोधसे तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिनके समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतोंसे होठ दबाकर कहा॥ १५ ॥ भिखारिन ! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बातका भी पता है ? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजेपर रोटीके टुकड़ोंके लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरोंकी ओर नहीं ताकती रहती॥ १६ ॥ शर्मिष्ठाने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानीका तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कूएँमें ढकेल दिया ॥ १७ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



ययाति चरित्र


श्रीशुक उवाच ।

यतिर्ययातिः संयातिः आयतिर्वियतिः कृतिः ।

षडिमे नहुषस्यासन् इन्द्रियाणीव देहिनः ॥ १ ॥

राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।

यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥ २ ॥

पितरि भ्रंशिते स्थानाद् इन्द्राण्या धर्षणाद्‌ द्विजैः ।

प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥ ३ ॥

चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः ।

कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः ॥ ४ ॥



श्रीराजोवाच ।

ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः ।

राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः ॥ ५ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जैसे शरीरधारियों के छ: इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छ: पुत्र थे। उनके नाम थेयति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति ॥ १ ॥ नहुष अपने बड़े पुत्र यतिको राज्य देना चाहते थे। परंतु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पानेका परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदिमें भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूपको नहीं समझ सकता ॥ २ ॥ जब इन्द्रपत्नी शचीसे सहवास करनेकी चेष्टा करनेके कारण नहुषको ब्राह्मणोंने इन्द्रपदसे गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजाके पदपर ययाति बैठे ॥ ३ ॥ ययातिने अपने चार छोटे भाइयोंको चार दिशाओंमें नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको पत्नीके रूपमें स्वीकार करके पृथ्वीकी रक्षा करने लगा ॥ ४ ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वरका प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ ? ॥ ५ ॥



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शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंशका वर्णन


देवैरभ्यर्थितो दैत्यान् हत्वेन्द्रायाददाद् दिवम् ।

इन्द्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजेः ॥ १३ ॥

आत्मानमर्पयामास प्रह्रादाद्यरिशंकितः ।

पितरि उपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः ॥ १४ ॥

त्रिविष्टपं महेन्द्राय यज्ञभागान् समाददुः ।

गुरुणा हूयमानेऽग्नौ बलभित् तनयान् रजेः ॥ १५ ॥

अवधीद् भ्रंशितान् मार्गान् न कश्चित् अवशेषितः ।

कुशात् प्रतिः क्षात्रवृद्धात् संजयस्तत्सुतो जयः ॥ १६ ॥

ततः कृतः कृतस्यापि जज्ञे हर्यवनो नृपः ।

सहदेवस्ततो हीनो जयसेनस्तु तत्सुतः ॥ १७ ॥

सङ्‌कृतिस्तस्य च जयः क्षत्रधर्मा महारथः ।

क्षत्रवृद्धान्वया भूपा इमे श्रृणु वंशं च नाहुषात् ॥ १८ ॥



देवताओंकी प्रार्थनासे रजि ने दैत्यों का वध करके इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया। परंतु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओंसे भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजिको लौटा दिया और उनके चरण पकडक़र उन्हींको अपनी रक्षाका भार भी सौंप दिया। जब रजिकी मृत्यु हो गयी, तब इन्द्रके माँगनेपर भी रजिके पुत्रोंने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञोंका भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पतिजीने इन्द्रकी प्रार्थनासे अभिचार-विधिसे हवन किया। इससे वे धर्मके मार्गसे भ्रष्ट हो गये। तब इन्द्रने अनायास ही उन सब रजिके पुत्रोंको मार डाला। उनमेंसे कोई भी न बचा। क्षत्रवृद्धके पौत्र कुशसे प्रति, प्रतिसे सञ्जय और सञ्जयसे जयका जन्म हुआ ॥ १३१६ ॥ जय से कृत, कृत से राजा हर्यवन, हर्यवन से सहदेव, सहदेव से हीन और हीन से जयसेन नामक पुत्र हुआ ॥ १७ ॥ जयसेन का सङ्कृति, सङ्कृतिका पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्ध की वंश-परम्परा में इतने ही नरपति हुए। अब नहुषवंश का वर्णन सुनो ॥ १८ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंशका वर्णन


श्रीशुक उवाच ।

यः पुरूरवसः पुत्र आयुः तस्याभवन् सुताः ।

नहुषः क्षत्रवृद्धश्च रजी रंभश्च वीर्यवान् ॥ १ ॥

अनेना इति राजेन्द्र शृणु क्षत्रवृधोऽन्वयम् ।

क्षत्रवृद्धसुतस्यासन् सुहोत्रस्यात्मजास्त्रयः ॥ २ ॥

काश्यः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत् ।

शुनकः शौनको यस्य बह्वृचप्रवरो मुनिः ॥ ३ ॥

काश्यस्य काशिः तत्पुत्रो राष्ट्रो दीर्घतमःपिता ।

धन्वन्तरिर्दैर्घतम आयुर्वेदप्रवर्तकः ॥ ४ ॥

यज्ञभुग् वासुदेवांशः स्मृतमात्रार्तिनाशनः ।

तत्पुत्रः केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः ॥ ५ ॥

दिवोदासो द्युमांस्तस्मात् प्रतर्दन इति स्मृतः ।

स एव शत्रुजिद् वत्स ऋतध्वज इतीरितः ।

तथा कुवलयाश्वेति प्रोक्तोऽलर्कादयस्ततः ॥ ६ ॥

षष्टि वर्षसहस्राणि षष्टि वर्षशतानि च ।

नालर्काद् अपरो राजन् मेदिनीं बुभुजे युवा ॥ ७ ॥

अलर्कात् सन्ततिस्तस्मात् सुनीथोऽथ निकेतनः ।

धर्मकेतुः सुतस्तस्मात् सत्यकेतुरजायत ॥ ८ ॥

धृष्टकेतुः सुतस्तस्मात् सुकुमारः क्षितीश्वरः ।

वीतिहोत्रोऽस्य भर्गोऽतो भार्गभूमिरभून्नृप ॥ ९ ॥

इतीमे काशयो भूपाः क्षत्रवृद्धान्वयायिनः ।

रम्भस्य रभसः पुत्रो गम्भीरश्चाक्रियस्ततः ॥ १० ॥

तस्य क्षेत्रे ब्रह्म जज्ञे श्रृणु वंशमनेनसः ।

शुद्धस्ततः शुचिस्तस्मात् त्रिककुद् धर्मसारथिः ॥ ११ ॥

ततः शान्तरजो जज्ञे कृतकृत्यः स आत्मवान् ।

रजेः पञ्चशतान्यासन् पुत्राणां अमितौजसाम् ॥ १२ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजेन्द्र पुरूरवा का एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लडक़े हुएनहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब क्षत्रवृद्ध का वंश सुनो। क्षत्रवृद्ध के पुत्र थे सुहोत्र। सुहोत्र के तीन पुत्र हुएकाश्य, कुश और गृत्समद। गृत्समद का पुत्र हुआ शुनक। इसी शुनक के पुत्र ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ मुनिवर शौनकजी हुए ॥ १३ ॥ काश्य का पुत्र काशि, काशिका राष्ट्र, राष्ट्रका दीर्घतमा और दीर्घतमाके धन्वन्तरि। यही आयुर्वेदके प्रवर्तक हैं ॥ ४ ॥ ये यज्ञभागके भोक्ता और भगवान्‌ वासुदेवके अंश हैं। इनके स्मरणमात्रसे ही सब प्रकारके रोग दूर हो जाते हैं। धन्वन्तरिका पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान्का भीमरथ ॥ ५ ॥ भीमरथका दिवोदास और दिवोदासका द्युमान्जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही द्युमान् शत्रुजित्, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्वके नामसे भी प्रसिद्ध है। द्युमान्के ही पुत्र अलर्क आदि हुए ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! अलर्कके सिवा और किसी राजाने छाछठ हजार (६६०००) वर्षतक युवा रहकर पृथ्वीका राज्य नहीं भोगा ॥ ७ ॥ अलर्कका पुत्र हुआ सन्तति, सन्ततिका सुनीथ, सुनीथका सुकेतन, सुकेतनका धर्मकेतु और धर्मकेतुका सत्यकेतु ॥ ८ ॥ सत्यकेतुसे धृष्टकेतु, धृष्टकेतुसे राजा सुकुमार, सुकुमारसे वीतिहोत्र, वीतिहोत्रसे भर्ग और भर्गसे राजा भार्गभूमिका जन्म हुआ ॥ ९ ॥
ये सब-के-सब क्षत्रवृद्धके वंशमें काशिसे उत्पन्न नरपति हुए। रम्भके पुत्रका नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीरसे अक्रिय का जन्म हुआ ॥ १० ॥ अक्रिय की पत्नी से ब्राह्मणवंश चला। अब अनेना का वंश सुनो। अनेनाका पुत्र था शुद्ध, शुद्धका शुचि, शुचिका त्रिककुद् और त्रिककुद्का धर्मसारथि ॥ ११ ॥ धर्मसारथि के पुत्र थे शान्तरय। शान्तरय आत्मज्ञानी होनेके कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तानकी आवश्यकता न थी। परीक्षित्‌ ! आयुके पुत्र रजिके अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे ॥ १२ ॥



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