मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

उद्धार का सुगम उपाय..(02)




|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

उद्धार का सुगम उपाय..(02)


हमारे भाई-बहनों में यह विचार उठता है कि हमारे को कोई विशेष साधन बताया जाय, और जब उनको कहते हैं कि ऐसे प्राणायाम करो, ऐसे बैठो, ऐसे आहार-विहार करो तो कह देंगे‒‘महाराज ! ऐसे तो हमारे से होता नहीं, हम तो साधारण आदमी हैं, हम गृहस्थी हैं, निभता नहीं है, क्या करें ? यह तो कठिन है ।फिर राम-रामकरो तो वे कहेंगे कि राम-रामहरेक बालक भी करते हैं । ‘राम-राममें क्या है ? अब कौन-सा बढ़िया साधन बतावें ? अगर विधियाँ बतावें तो होती नहीं हमारे से, और राम-राम तो हरेक बालक ही करता है । राम-राममें क्या है ! यह जवाब मिलता है । अब आप ही बताओ उनको क्या कहा जाय !

परमात्म तत्त्वसे विमुख होने का यह एक तरह से बढ़िया तरीका है । भगवन्नाम के प्रकट हो जाने से नाम में शक्ति कम नहीं हुई है । नाम में अपार शक्ति है और ज्यों-की-त्यों मौजूद है । इसको संतों ने हम लोगों पर कृपा करके प्रकट कर दिया; परंतु लोगों को यह साधारण दीखता है । नाम-जप साधारण तभी तक दीखता है, जब तक इसका सहारा नहीं लेते हैं, इसके शरण नहीं होते हैं । शरण कैसे होवें ? विधि क्या है ?

शरण लेनेकी विधि नहीं होती है । शरण लेनेकी तो आवश्यकता होती है । जैसे, चोर-डाकू आ जाये मारने-पीटने लगें, ऐसी आफतमें आ जायँ तो पुकारते हैं कि नहीं, ‘मेरी रक्षा करो, मुझे बचाओऐसे चिल्लाते हैं । कोई लाठी लेकर कुत्ते के पीछे पड़ जाय और वहाँ भागने की कहीं जगह नहीं हो तो बेचारा कुत्ता लाठी लगने से पहले ही चिल्लाने लगता है । यह चिल्लाना क्या है ? वह पुकार करता है कि मेरी रक्षा होनी चाहिये । उसके पुकार की कोई विधि होती है क्या ? मुहूर्त होता है क्या ? ‘हरिया बंदीवान ज्यूँ करिये कूक पुकार

शरणागति सुगम होती है, जब अपने पर आफत आती है और अपनेको कोई भी उपाय नहीं सूझता, तब हम भगवान्‌के शरण होते हैं । उस समय हम जितना भगवान्‌के आधीन होते हैं, उतना ही काम बहुत जल्दी बनता है । इसमें विधि की आवश्यकता नहीं है । बालक माँको पुकारता है तो क्या कोई विधि पूछता है, या मुहूर्त पूछता है कि इस समयमें रोना शुरू करूँ, यह सिद्ध होगा कि नहीं होगा अथवा ऐसा समय बाँधता है कि आधा घण्टा रोऊँ या दस मिनट रोऊँ; वह तो माँ नहीं मिले, तबतक रोता रहता है । इस माँके मिलनेमें सन्देह है । यह माँ मर गयी हो या कहीं दूर चली गयी हो तो कैसे आवेगी ? पर ठाकुरजी तो सर्वतः श्रुतिमल्लोकेसब जगह सुनते हैं । इसलिये हे नाथ ! हे नाथ ! मैं आपकी शरण हूँ’‒ऐसे भगवान्‌के शरण हो जायँ, उनके आश्रित हो जायँ । इसमें अगर कोई बाधक है तो वह है अपनी बुद्धिका, अपने वर्णका, अपने आश्रमका, अपनी योग्यता-विद्या आदिका अभिमान । भीतरमें उनका सहारा रहता है कि मैं ऐसा काम कर सकता हूँ । जबतक यह बल, बुद्धि, योग्यता आदिको अपनी मानता रहता है, तबतक सच्ची शरण हो नहीं सकता । इसलिये इनके अभिमानसे रहित होकर चाहे कोई शरण हो जाय और जब कभी हो जाय, उसी वक्त उसका बेड़ा पार है ।

राम ! राम !! राम !!!

---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे



उद्धार का सुगम उपाय..(01)



ॐ श्री परमात्मने नम: ||

उद्धार का सुगम उपाय..(01)


सत्ययुग, त्रेता, द्वापरमें आदमी शुद्ध होते थे, पवित्र होते थे, वे विधियाँ जानते थे, उन्हें ज्ञान होता था, समझ होती थी, उनकी आयु बड़ी होती थी । कलियुगके आनेपर इन सब बातों की कमी आ गयी, इसलिये जीवों के उद्धार के लिये बहुत सुगम उपाय बता दिया ।

कलियुग केवल नाम अधारा ।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहिं पारा ॥

संसार से पार होना चाहते हो तो नाम का जप करो ।

जुगति बताओ जालजी राम मिलनकी बात ।
मिल जासी ओ मालजी थे राम रटो दिन रात ॥

रात-दिन भगवान्‌ के नाम का जप करते चले जाओ । हरिरामदास जी महाराज भी कहते हैं

जो जिव चाहे मुकुतिको तो सुमरिजे राम ।
हरिया गेले चालतां जैसे आवे गाम ॥

जैसे रास्ते चलते-चलते गाँव पहुँच ही जाते हैं, ऐसे ही राम-रामकरते-करते भगवान् आ ही जाते हैं, भगवान्‌ की प्राप्ति अवश्य हो जाती है । इसलिये यह रामनाम बहुत ही सीधा और सरल साधन है ।

रसनासे रटबो करे आठुं पहर अभंग ।
रामदास उस सन्त का राम न छाड़े संग ॥

संत-महापुरुषों ने नाम को बहुत विशेषता से सबके लिये प्रकट कर दिया, जिससे हर कोई ले सके; परंतु लोगोंमें प्रायः एक बात हुआ करती है कि जो वस्तु ज्यादा प्रकट होती है, उसका आदर नहीं करते हैं । अतिपरिचयादवज्ञा’‒अत्यधिक प्रसिद्धि हो जानेसे उसका आदर नहीं होता । नामकी अवज्ञा करने लग जाते हैं कि कोरा राम-रामकरनेसे क्या होता है ? ‘राम-रामतो हरेक करता है । टट्टी फिरते बच्चे भी करते रहते हैं । इसमें क्या है ! ऐसे अवज्ञा कर देते हैं ।

राम ! राम !! राम !!!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की मानस में नाम-वन्दनापुस्तकसे
 — 



जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 02)



श्री परमात्मने नम:

जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 02)

एक कथा आती है । एक सज्जनने एकादशीका व्रत किया । द्वादशीके दिन किसीको भोजन कराकर पारणा करना था, पर कोई मिला नहीं । वर्षा हो रही थी । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते आखिर एक बूढ़े साधु मिल गये । उनको भोजनके लिये घर बुलाया । उनको बैठाकर उनके सामने पत्तल परोसी तो वे चट खाने लग गये । उन सज्जनने कहा कि महाराज, आपने भगवान्‌को भोग तो लगाया ही नहीं !वह साधु बोला कि भगवान्‌ क्या होता है ? तुम तो मूर्ख हो, समझते नहीं ।यह सुनते ही उन सज्जनने पत्तल खींच ली और बोला कि भगवान्‌ कुछ नहीं होता तो तुम कौन होते हो ? हम भगवान्‌के नाते ही तो आपको भोजन कराते हैं ।उसी समय आकाशवाणी हुई कि अरे ! मेरी निन्दा करते-करते यह साधु बूढ़ा हो गया, पर अभीतक मैं इसको भोजन दे रहा हूँ, तू एक समय भी भोजन नहीं दे सकता और मेरा भक्त कहलाता है ! अगर मैं भोजन न दूँ तो यह कितने दिन जीये ?’ आकाशवाणी सुनकर उनको बड़ी शर्म आयी और फिर उस साधुसे माफ़ी माँगकर उसको प्रेमपूर्वक भोजन कराया ।

ऐसो को उदार जग माहीं ।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर राम सरिस कोउ नाहीं ॥
..............(विनयपत्रिका १६२)

ऐसे परम उदार भगवान्‌के रहते हुए हम दुःख पा रहे हैं और गुरुजी हमें सुखी कर देंगे, हमारा उद्धार कर देंगेयह कितनी ठगाई है ! अपने उद्धारके लिये हम खुद तैयार हो जायँ, बस, इतनी ही जरूरत है ।

भगवान्‌ महान् दयालु हैं । वे सबके जीवन-निर्वाहका प्रबन्ध करते हैं तो क्या कल्याणका प्रबन्ध नहीं करेंगे ? इसलिये आप सच्चे- हृदयसे अपने कल्याणकी चाहना बढ़ाओ और भगवान्‌से प्रार्थना करो कि हे नाथ ! मेरा कल्याण हो जाय, उद्धार हो जाय । मैं नहीं जानता कि कल्याण क्या होता है, पर मैं किसी भी जगह फँसूँ नहीं, सदाके लिये सुखी हो जाऊँ । हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ भगवान्‌ सच्ची प्रार्थना अवश्य सुनते हैं

सच्चेह हृदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है ।
तो भक्तवत्सल कान में, वह पहुँच झट ही जाय है ॥

हमें अपने कल्याणकी जितनी चिन्ता है, उससे ज्यादा भगवान्‌को और सन्त-महात्माओंको चिन्ता है ! बच्चे को अपनी जितनी चिन्ता होती है, उससे ज्यादा माँको चिन्ता होती है, पर बच्चा! इस बातको समझता नहीं ।

हेतु रहित जग जुग उपकारी ।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी ॥
........... (मानस, उत्तरकाण्ड ४७/३)

जो सच्चे हृदयसे भगवान्‌की तरफ चलता है, उसकी सहायताके लिये सभी सन्त-महात्मा उत्कण्ठित रहते हैं । सन्तोंके हृदयमें सबके कल्याणके लिये अपार दया भरी हुई रहती है । बच्चा भूखा हो तो उसको अन्न देनेका भाव किसके मनमें नहीं आता ?

अगर कोई सच्चे हृदयसे अपना कल्याण चाहते है तो भगवान्‌ अवश्य उसका कल्याण करते हैं । भगवान्‌ समान हमारा हित करनेवाला गुरु भी नहीं है

उमा राम सम हित जग माहीं ।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं ॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती ।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती ॥
............. (मानस, किष्किन्धाकाण्ड १२/१)

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक से




जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 01)


श्री परमात्मने नम:
जगद्गुरु भगवान्‌ की उदारता (पोस्ट 01)
भगवान्‌में अनन्त गुण हैं, जिनका कोई पार नहीं पा सकता । आजतक भगवान्‌के गुणोंका जितना शास्त्रमें वर्णन हुआ है, जितना महात्माओंने वर्णन किया है, वह सब-का-सब मिलकर भी अधूरा है । भगवान्‌के परम भक्त गोस्वामीजी महाराज भी कहते हैं‒ ‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ (मानस, बालकाण्ड २६/४)। सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि अपनी शक्तिको खुद भगवान्‌ भी नहीं जानते !ऐसे अनन्त गुणोंवाले भगवान्‌में कम-से-कम तीन गुण मुख्य हैंसर्वज्ञता, सर्वसमर्थता और सर्वसुहृत्ता । तात्पर्य है कि भगवान्‌के समान कोई सर्वज्ञ नहीं है, कोई सर्वसमर्थ नहीं है और कोई सर्वसुहृद् (परम दयालु) नहीं है । ऐसे भगवान्‌के रहते हुए भी आप दुःख पा रहे हैं, आपकी मुक्ति नहीं हो रही है तो क्या गुरु आपको मुक्त कर देगा ? क्या गुरु भगवान्‌से भी अधिक सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और दयालु है ? कोरी ठगाईके सिवाय कुछ नहीं होगा ! जबतक आपके भीतर अपने कल्याणकी लालसा जाग्रत नहीं होगी, तबतक भगवान्‌ भी आपका कल्याण नहीं कर सकते, फिर गुरु कैसे कर देगा ?
आपको गुरुमें, सन्त-महात्मामें जो विशेषता दिखती है, वह भी उनकी अपनी विशेषता नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌से आयी हुई और आपकी मानी हुई है ।जैसे कोई भी मिठाई बनायें, उसमें मिठास चीनीकी ही होती है, ऐसे ही जहाँ भी विशेषता दीखती है, वह सब भगवान्‌की ही होती है । भगवान्‌ने गीतामें कहा भी है
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ॥
.............(१०/४१)
जो-जो ऐश्वर्ययुक्त, शोभायुक्त और बलयुक्त प्राणी तथा पदार्थ है, उस-उसको तुम मेरे ही तेज (योग अर्थात्‌ सामर्थ्य) के अंशसे उत्पन्न हुई समझो ।
भगवान्‌का विरोध करनेवाले राक्षसोंको भी भगवान्‌से ही बल मिलता है तो क्या भगवान्‌का भजन करनेवालोंको भगवान्‌से बल नहीं मिलेगा ? आप भगवान्‌के सम्मुख हो जाओ तो करोड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जायँगे, पर आप सम्मुख ही नहीं होंगे तो पाप कैसे नष्ट होंगे ? भगवान्‌ अपने शत्रुओंको भी शक्ति देते हैं, प्रेमियोंको भी शक्ति देते हैं और उदासीनोंको भी शक्ति देते हैं । भगवान्‌की रची हुई पृथ्वी दुष्ट-सज्जन, आस्तिक-नास्तिक, पापी-पुण्यात्मा सबको रहनेका स्थान देती है । उनका बनाया हुआ अन्न सबकी भूख मिटाता है । उनका बनाया हुआ जल सबकी प्यास बुझाता है । उनका बनाया हुआ पवन सबको श्वास देता है । दुष्ट-से-दुष्ट, पापी-से-पापीके लिये भी भगवान्‌की दयालुता समान है । हम घरमें बिजलीका एक लट्टू भी लगाते हैं तो उसका किराया देना पड़ता है, पर भगवान्‌के बनाये सूर्य और चन्द्रने कभी किराया माँगा है ? पानीका एक नल लगा लें तो रुपया लगता है, पर भगवान्‌की बनायी नदियाँ रात-दिन बह रही हैं । क्या किसीने उसका रुपया माँगा है ? रहनेके लिये थोड़ी-सी जमीन भी लें तो उसका रुपया देना पड़ता है, पर भगवान्‌ने रहनेके लिये इतनी बड़ी पृथ्वी दे दी । क्या उसका किराया माँगा है ? अगर उसका किराया माँगा तो किसमें देनेकी ताकत है ? जिसकी बनायी हुई सृष्टि भी इतनी उदार है, वह खुद कितना उदार होगा !
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
शेष आगामी पोस्ट में ......
.........गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ?’ पुस्तक से




सोमवार, 10 दिसंबर 2018

कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥




कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। 
प्रणत क्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥


जिनके हृदय में निरन्तर प्रेमरूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्त:करण पुरुष स्वप्नमें भी यमराजको नहीं देखते ॥ जिनके हृदयमें भक्ति महारानीका निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करनेमें भी समर्थ नहीं हो सकते ॥ भगवान्‌ तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधनसे वशमें नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्ति से ही वशीभूत होते हैं। इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥ मनुष्योंका सहस्रों जन्मके पुण्य-प्रतापसे भक्तिमें अनुराग होता है। कलियुगमें केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है। भक्तिसे तो साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥ 

येषां चित्ते वसेद्‌भक्तिः सर्वदा प्रेमरूपिणी ।
नते पश्यन्ति कीनाशं स्वप्नेऽप्यमलमूर्तयः ॥ 
न प्रेतो न पिशाचो वा राक्षसो वासुरोऽपि वा ।
भक्तियुक्तमनस्कानां स्पर्शने न प्रभुर्भवेत् ॥ 
न तपोभिर्न वेदैश्च न ज्ञानेनापि कर्मणा ।
हरिर्हि साध्यते भक्त्या प्रमाणं तत्र गोपिकाः ॥ 
नृणां जन्मसहस्रेण भक्तौ प्रीतिर्हि जायते ।
कलौ भक्तिः कलौ भक्तिः भक्त्या कृष्णः पुरः स्थितः ॥ 

………. (श्रीमद्भागवतमाहात्म्य २|१६-१९)



रविवार, 9 दिसंबर 2018

“सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||”



|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||

सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा |
यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||”


श्रीमद्भागवत की कथा का सदा-सर्वदा सेवन, आस्वादन करना चाहिए | इसके श्रवणमात्र से श्रीहरि हृदय में आ विराजते हैं |

इस ग्रन्थमें अठारह हजार श्लोक और बारह स्कन्ध हैं तथा श्रीशुकदेव और राजा परीक्षित्‌ का संवाद है । यह जीव तभी तक अज्ञानवश इस संसारचक्र में भटकता है, जबतक क्षणभर के लिये भी कानों में इस शुकशास्त्र की कथा नहीं पड़ती | बहुत-से शास्त्र और पुराण सुननेसे क्या लाभ है, इससे तो व्यर्थ का भ्रम बढ़ता है । मुक्ति देने के लिये तो एकमात्र भागवतशास्त्र ही गरज रहा है | जिस घर में नित्यप्रति श्रीमद्भागवत की कथा होती है, वह तीर्थरूप हो जाता है और जो लोग उसमें रहते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं | हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस शुकशास्त्र की कथा का सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते | जब तक लोग अच्छी तरह श्रीमद्भागवत का श्रवण नहीं करते, तभी तक उनके शरीर में पाप निवास करते हैं | फल की दृष्टि से इस शुकशास्त्रकथा की समता गङ्गा, गया, काशी, पुष्कर या प्रयागकोई तीर्थ भी नहीं कर सकता |

जो पुरुष अन्तसमय में श्रीमद्भागवत का वाक्य सुन लेता है, उस पर प्रसन्न होकर भगवान् उसे वैकुण्ठधाम देते हैं |

अन्तकाले तु येनैव श्रूयते शुकशास्त्रवाक् |
प्रीत्या तस्यैव वैकुण्ठं गोविन्दोऽपि प्रयच्छति ||”

कलियुग में जीवों के उद्धार के लिए श्रीमद्भागवत ही एकमात्र उपाय है।

|| ॐ तत्सत् ||



निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं, मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः||



निगमकल्पतरोर्गलितं फलं, शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् |
पिबत भागवतं रसमालयं, मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः||

महामुनि व्यासदेव के द्वारा निर्मित इस श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फलकी कामना से रहित परम धर्मका निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषोंके जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्माका निरूपण हुआ है, जो तीनों तापोंका जड़से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है। अब और किसी साधन या शास्त्रसे क्या प्रयोजन। जिस समय भी सुकृती पुरुष इसके श्रवणकी इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदयमें आकर बन्दी बन जाता है |

रसके मर्मज्ञ भक्तजन ! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का पका हुआ फल है । श्रीशुकदेवरूप तोते के [*] मुखका सम्बन्ध हो जानेसे यह परमानन्दमयी सुधासे परिपूर्ण हो गया है । इस फलमें छिलका, गुठली आदि त्याज्य अंश तनिक भी नहीं है। यह मूर्तिमान् रस है । जब तक शरीरमें चेतना रहे, तबतक इस दिव्य भगवद्-रसका निरन्तर बार-बार पान करते रहो । यह पृथ्वीपर ही सुलभ है ॥ 

…………………………………………………………
[*] यह प्रसिद्ध है कि तोते का काटा हुआ फल अधिक मीठा होता है


|| ॐ तत्सत् ||






सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः



सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः

 
श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीयरहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूप का अनुभव करानेवाला और समस्त वेदोंका सार है। संसार में फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकार से पार जाना चाहते हैं, उनके लिये आध्यात्मिक तत्त्वों को प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है।
यदि आपको परम गति की इच्छा है तो अपने मुखसे ही श्रीमद्भागवत के आधे अथवा चौथाई श्लोकका भी नित्य नियमपूर्वक पाठ कीजिये ॥ ॐकार, गायत्री, पुरुषसूक्त, तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, ‘ॐनमो भगवते वासुदेवाय’—यह द्वादशाक्षर मन्त्र, बारह मूर्तियोंवाले सूर्यभगवान्‌, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण, अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान्‌ पुरुषोत्तमइन सब में बुद्धिमान् लोग वस्तुत: कोई अन्तर नहीं मानते ॥ जो पुरुष अहर्निश अर्थसहित श्रीमद्भागवत-शास्त्रका पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंका पाप नष्ट हो जाता हैइसमें तनिक भी संदेह नहीं है ॥ जो पुरुष नित्यप्रति भागवतका आधा या चौथाई श्लोक भी पढ़ता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञों का फल मिलता है ॥ नित्य भागवतका पाठ करना, भगवान्‌ का चिन्तन करना, तुलसी को सींचना और गौ की सेवा करनाये चारों समान हैं ॥ जो पुरुष अन्तसमय में श्रीमद्भागवत का वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न होकर भगवान्‌ उसे वैकुण्ठधाम देते हैं ॥ जो पुरुष इसे सोने के सिंहासनपर रखकर विष्णुभक्त को दान करता है, वह अवश्य ही भगवान्‌ का सायुज्य प्राप्त करता है ॥

हरिः ॐ तत्सत् !

...........(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य ३|३३-४१)

 गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से



गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०७)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०७)

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् आज्ञा देते हैं‒

“यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥“
............ (९ । २७)

‘हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो यज्ञ करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर ।’ यहाँ यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त ‘यत्करोषि’ और ‘यदश्रासि’‒ये दो क्रियाएँ और आयी हैं । तात्पर्य यह है कि यज्ञ, दान और तपके अतिरिक्त हम जो कुछ भी शास्त्र-विहित कर्म करते हैं और शरीर-निर्वाहके लिये खाना, पीना, सोना आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं, वे सब भगवान्‌के अर्पण करनेसे ‘सत्’ हो जाती हैं । साधारण-से-साधारण स्वाभाविक-व्यावहारिक कर्म भी यदि भगवान्‌के लिये किया जाय तो वह भी ‘सत्’ हो जाता है । भगवान् कहते हैं‒

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
..................(गीता १८ । ४६)

‘अपने स्वाभाविक कर्मोंके द्वारा उस परमात्माकी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है ।’ जैसे, एक व्यक्ति प्राणियोंकी साधारण सेवा केवल भगवान्‌के लिये ही करता है और दूसरा व्यक्ति केवल भगवान्‌के लिये ही जप करता है । यद्यपि स्वरूपसे दो प्रकारकी छोटी-बड़ी क्रियाएँ दीखती हैं, परंतु दोनों (साधकों) का उद्देश्य परमात्मा होनेसे वस्तुतः उनमें किंचिन्मात्र भी अन्तर नहीं है; क्योंकि परमात्मा सर्वत्र समानरूपसे परिपूर्ण हैं । वे जैसे जप-क्रियामें हैं, वैसे ही साधारण सेवा-क्रियामें भी हैं ।

भगवान् ‘सत्’ स्वरूप हैं । अतः उनसे जिस किसीका भी सम्बन्ध होगा, वह सब ‘सत्’ हो जायगा । जिस प्रकार अग्निसे सम्बन्ध होनेपर लोहा, लकड़ी, ईंट, पत्थर, कोयला‒ये सभी एक-से चमकने लगते हैं, वैसे ही भगवान्‌के लिये ( भगवत्प्राप्तिके उद्देश्यसे) किये गये छोटे-बड़े सब-के-सब कर्म ‘सत्’ हो जाते हैं, अर्थात् सदाचार बन जाते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीतामें सदाचार-सूत्र[*] यही बतलाया गया है कि यदि मनुष्यका लक्ष्य (उद्देश्य) केवल सत् (परमात्मा) हो जाय तो उसके समस्त कर्म भी ‘सत्‌’ अर्थात्‌ सदाचाररूप ही हो जायँगे । अतएव सत्‌स्वरूप एवं सर्वत्र परिपूर्ण सच्चिदानन्दघन परमात्माकी ओर ही अपनी वृत्ति रखनी चाहिये, फिर सद्गुण, सदाचार स्वतः प्रकट होने लगेंगे ।

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[*] यद्यपि गीता सर्वशास्त्रमयी है और उसमें सर्वत्र सदाचार की ही चर्चा है, फिर भी भगवान्‌ ने कृपा करके इतने छोटे से ग्रन्थ में अनेक प्रकार से कई स्थानों पर सदाचारी पुरुष के लक्षणों का विभिन्न रूपों में वर्णन किया है, जिनमें निम्नलिखित स्थल प्रमुख हैं‒(१) दूसरे अध्याय के ५५वें श्लोकसे ७१वें श्लोक तक स्थितप्रज्ञ-सदाचारी का वर्णन, (२) बारहवें अध्यायके १३वें श्लोक से २०वें श्लोक तक भक्तसदाचारी का वर्णन, (३) तेरहवें अध्याय के ७वें श्लोकसे ११वें श्लोक तक ज्ञान के नामसे सदाचार का वर्णन, (४) चौदहवें अध्यायके २२वें श्लोकसे २५वें श्लोकतक गुणातीत सदाचारी के लक्षण-आचरण और प्राप्ति के उपाय का वर्णन और (५) सोलहवें अध्याय के पहले श्लोकसे तीसरे श्लोकतक दैवी (भगवान्‌की) सम्पत्तिरूप सदाचार का वर्णन ।

नारायण ! नारायण !! नारायण !!!

‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०६)


|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०६)

(४) ‘यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते’ (गीता १७ । २७)‒‘यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’‒कही जाती है ।’ सदाचारमें यज्ञ, दान और तप‒ये तीनों प्रधान हैं; किंतु इनका सम्बन्ध भगवान्‌से होना चाहिये । यदि इन (यज्ञादि) में मनुष्यकी दृढ़ स्थिति (निष्ठा) हो जाय तो स्वप्नमें भी उसके द्वारा दुराचार नहीं हो सकता । ऐसे दृढ़निश्रयी सदाचारी पुरुषके विषयमें ही कहा गया है‒

“निष्पीडितोऽपि मधु ह्युद्गमतीक्षुदण्डः ।“

‘ईखको पेरनेपर भी उसमेंसे मीठा रस ही प्राप्त होता है ।’

(५) ‘कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते’ (गीता १७ । २७)‒‘उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत्‒ऐसे कहा जाता है ।’ अपना कल्याण चाहनेवाला निषिद्ध आचरण कर ही नहीं सकता । जबतक अपने जाननेमें आनेवाले दुर्गुण-दुराचारका त्याग नहीं करता, तबतक वह चाहे कितनी ज्ञान-ध्यानकी ऊँची-ऊँची बातें बनाता रहे, उसे सत्-तत्त्वका अनुभव नहीं हो सकता । निषिद्ध और विहित कर्मोंके त्याग-ग्रहणके विषयमें भगवान् कहते हैं‒

“तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
..........(गीता १६ । २४)

‘इससे तेरे लिये इस कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर शास्त्रविधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’ विहित कर्म करनेकी अपेक्षा निषिद्धका त्याग श्रेष्ठ है । निषिद्ध आचरणके त्यागके बाद जो भी क्रियाएँ होंगी, वे सब भगवदर्थ होनेपर सत्-आचार (सदाचार) ही कहलायेगी । भगवदर्थ कर्म करनेवालोंसे एक बड़ी भूल यह होती है कि वे कर्मोंके दो विभाग कर लेते हैं । (१) संसार और शरीरके लिये किये जानेवाले कर्म अपने लिये और (२) पूजा-पाठ, जप-ध्यान, सत्संगादि सात्त्विक कर्म भगवान्‌के लिये मानते हैं; वास्तवमें जैसे पतिव्रता स्त्री घरका काम, शरीरकी क्रिया, पूजा-पाठादि सब कुछ पतिके लिये ही करती है, वैसे ही साधकको भी सब कुछ केवल भगवदर्थ करना चाहिये । भगवदर्थ कर्म सुगमतापूर्वक करनेके लिये पाँच बातें (पंचामृत) सदैव याद रखनी चाहिये‒(१) मैं भगवान्‌का हूँ, (२) भगवान्‌के घर (दरबार) में रहता हूँ, (३) भगवान्‌के घरका काम करता हूँ, (४) भगवान्‌का दिया हुआ प्रसाद पाता हूँ और (५) भगवान्‌के जनों (परिवार) की सेवा करता हूँ । इस प्रकार शास्त्र-विहित कर्म करनेपर सदाचार स्वतः पुष्ट होगा ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०५)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०५)

सद्‌गुण-सदाचारकी स्वतन्त्र सत्ता है, पर दुर्गुण-दुराचारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । कारण कि असत्‌को तो सत्‌की जरूरत है, पर सत्‌को असत्‌की जरूरत नहीं है । झूठ बोलनेवाला व्यक्ति थोड़े-से पैसोंके लोभमें सत्य बोल सकता है, पर सत्य बोलनेवाला व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोल सकता ।

(३) ‘प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते’‒‘तथा हे पार्थ ! उत्तम कर्ममें भी ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है ।’ दान, पूजा, पाठादि जितने भी शास्त्र-विहित शुभकर्म हैं, वे स्वयं ही प्रशंसनीय होनेसे सत्कर्म हैं, किंतु इन प्रशस्त कर्मोंका भगवान्‌के साथ सम्बन्ध नहीं रखनेसे वे ‘सत्’ न कहलाकर केवल शास्त्र-विहित कर्ममात्र रह जाते हैं । यद्यपि दैत्य-दानव भी प्रशंसनीय कर्म तपस्यादि करते हैं, परन्तु असद् भाव‒दुरुपयोग करनेसे इनका परिणाम विपरीत हो जाता है‒

“मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः ।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् ॥“
.............(गीता १७ । १९)

‘जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से, मन, वाणी और शरीरकी पीड़ा के सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने के लिये किया जाता है, वह तप तामस कहा गया है ।’ वस्तुतः प्रशंसनीय कर्म वे होते हैं, जो स्वार्थ और अभिमानके त्यागपूर्वक ‘सर्वभूतहिते रताः’ भावसे किये जाते हैं । शास्त्र-विहित सत्कर्म भी यदि अपने लिये किये जायँ तो वे असत्कर्म हो जाते हैं, बाँधनेवाले हो जाते हैं । उनसे यदि ब्रह्मलोककी प्राप्ति भी हो जाय तो वहाँसे लौटकर आना पड़ता है‒‘आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।’ (गीता ८ । १६)

भगवान्‌के लिये कर्म करनेवाले सदाचारी पुरुषका कभी नाश नहीं होता‒

“पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥“
..................(गीता ६ । ४०)

‘हे पार्थ ! उस पुरुषका न तो इस लोकमें नाश होता है और न परलोकमें ही । क्योंकि हे प्यारे ! कल्याणकारी (भगवत्प्राप्तिके लिये) कर्म करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको प्राप्त नहीं होता ।’

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से



गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०४)


|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०४)

अच्छे आचरण करनेवालेको कोई यह नहीं कहता कि तुम अच्छे आचरण क्यों करते हो, पर बुरे आचरण करनेवाले को सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों करते हो ? प्रसन्न रहनेवाले को कोई यह नहीं कहता कि तुम प्रसन्न क्यों रहते हो, पर दुःखी रहनेवाले को सब कहते हैं कि तुम दुःखी क्यों रहते हो ? तात्पर्य है कि भगवान्‌ का ही अंश होने से जीवमें दैवी सम्पत्ति स्वाभाविक है‒‘ईश्वर अंस जीव अबिनासी चेतन अमल सहज सुखरासी ॥’ (मानस ७ । ११७ । १) । आसुरी सम्पत्ति स्वाभाविक नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है और नाशवान्‌के संगसे आती है । जब जीव भगवान्‌से विमुख होकर नाशवान् (असत्) का संग कर लेता है अर्थात् शरीरमें अहंता-ममता कर लेता है, तब उसमें आसुरी सम्पत्ति आ जाती है और दैवी सम्पत्ति दब जाती है । नाशवान्‌का संग छूटते ही सद्‌गुण-सदाचार स्वतः प्रकट हो जाते हैं ।

(२) ‘साधुभावे च सदित्येतत्ययुज्यते’‒अन्तःकरणके श्रेष्ठ भावोंको ‘साधुभाव’ कहते हैं । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे श्रेष्ठ भावोंके लिये ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है । श्रेष्ठ भाव अर्थात् सद्‌गुण-सदाचार दैवी सम्पत्ति है । ‘देव’ नाम भगवान्‌का है और उनकी सम्पत्ति ‘दैवी सम्पत्ति’ कहलाती है । भगवान्‌की सम्पत्तिको अपनी माननेसे अथवा अपने बलसे उपार्जित माननेसे अभिमान आ जाता है, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है । अभिमानकी छायामें सभी दुर्गुण-दुराचार रहते हैं ।

सद्‌गुण-सदाचार किसीकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है । अगर ये व्यक्तिगत होते तो एक व्यक्तिमें जो सद्‌गुण-सदाचार हैं, वे दूसरे व्यक्तियोंमें नहीं आते । वास्तवमें ये सामान्य धर्म हैं, जिनको मनुष्यमात्र धारण कर सकता है । जैसे पिता की सम्पत्तिपर सन्तानमात्र का अधिकार होता है, ऐसे ही भगवान्‌ की सम्पत्ति (सद्‌गुण-सदाचार) पर प्राणिमात्र का समान अधिकार है ।

अपने में सद्‌गुण-सदाचार होने का जो अभिमान आता है, वह वास्तवमें सद्‌गुण-सदाचारकी कमीसे अर्थात् उसके साथ आंशिकरूपसे रहनेवाले दुर्गुण-दुराचारसे ही पैदा होता है । जैसे, सत्य बोलनेका अभिमान तभी आता है; जब सत्यके साथ आंशिक असत्य रहता है । सत्यकी पूर्णतामें अभिमान आ ही नहीं सकता । असत्य साथमें रहनेसे ही सत्यकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । जैसे, किसी गाँवमें सब निर्धन हों और एक लखपति हो तो उस लखपतिकी महिमा दीखती है और उसका अभिमान आता है । परन्तु जिस गाँवमें सब-के-सब करोडपति हों, वहाँ लखपतिकी महिमा नहीं दीखती और उसका अभिमान नहीं आता । तात्पर्य है कि अपनेमें विशेषता दीखनेसे ही अभिमान आता है । अपनेमें विशेषता दीखना परिच्छिन्नताको पुष्ट करता है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०३)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०३)

यह सत्-तत्त्व ही सद्‌गुणों और सदाचारका मूल आधार है । अतः उपर्युक्त सत् शब्दका थोड़ा विस्तारसे विचार करें ।

(१) ‘सद्भावे’‒सद्भाव कहते हैं‒परमात्माके अस्तित्व या होनेपनको । प्रायः सभी आस्तिक यह बात तो मानते ही हैं कि सर्वोपरि सर्वनियन्ता कोई विलक्षण शक्ति सदासे है और वह अपरिवर्तनशील है । जो संसार प्रत्यक्ष प्रतिक्षण बदल रहा है, उसे ‘है’ अर्थात् स्थिर कैसे कहा जाय ? यह तो नदीके जलके प्रवाहकी तरह निरन्तर बह रहा है । जो बदलता है, वह ‘है’ कैसे कहा जा सकता है ? क्योंकि इन्द्रियों, बुद्धि आदिसे जिसको जानते, देखते हैं, वह संसार पहले नहीं था, आगे भी नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी जा रहा है‒यह सभीका अनुभव है । फिर भी आश्चर्य यह है कि ‘नहीं’ होते हुए भी वह ‘है’ के रूपमें स्थिर दिखायी दे रहा है । ये दोनों बातें परस्पर सर्वथा विरुद्ध हैं । वह होता, तब तो बदलता नहीं और बदलता है तो ‘है’ अर्थात् स्थिर नहीं । इससे सिद्ध होता है कि यह ‘होनापन’ संसार-शरीरादिका नहीं है, प्रत्युत सत्-तत्त्व (परमात्मा) का है, जिससे नहीं होते हुए भी संसार ‘है’ दीखता है । परमात्माके होनेपनका भाव दृढ़ होनेपर सदाचारका पालन स्वतः होने लगता है ।

भगवान् हैं‒ऐसा दृढ़तासे माननेपर न पाप, अन्याय, दुराचार होंगे और न चिन्ता, भय आदि ही । जो सच्चे हृदयसे सर्वत्र परमात्माकी सत्ता मानते हैं, उनसे पाप हो ही कैसे सकते हैं ?[1] परम दयालु, परम सुहद् परमात्मा सर्वत्र हैं, ऐसा माननेपर न भय होगा और न चिन्ता होगी । भय लगने अथवा चिन्ता होनेपर ‘मैंने भगवान्‌को नहीं माना’‒इस प्रकार विपरीत धारणा नहीं करनी चाहिये, किंतु भगवान्‌के रहते चिन्ता, भय कैसे आ सकते हैं‒ऐसा माने । दैवी सम्पत्ति (सदाचार) के छब्बीस लक्षणोंमें प्रथम ‘अभय’ है (गीता १६ । १) ।

[1] जो व्यक्ति भगवान्‌को भी मानता हो और असत्-आचरण (दुराचार) भी करता हो, उसके द्वारा असत्-आचरणोंका विशेष प्रचार होता है, जिससे समाजका बड़ा नुकसान होता है । कारण कि जो व्यक्ति भीतरसे भी बुरा हो और बाहरसे भी बुरा हो, उससे बचना बड़ा सुगम होता है; क्योंकि उससे दूसरे लोग सावधान हो जाते हैं । परन्तु जो व्यक्ति भीतरसे बुरा हो और बाहरसे भला बना हो, उससे बचना बड़ा कठिन होता है । जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्‌जीके सामने कालनेमि राक्षस आये तो उनको सीताजी और हनुमान्‌जी पहचान नहीं सके; क्योंकि उनका वेश साधुओंका था ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक


गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार..(पोस्ट..०२)

भगवान् घोषणा करते हैं‒

“अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥“
(गीता ९ । ३०)

‘अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये । कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है ।’

तात्पर्य है कि बाहर से साधु न दीखने पर भी उसको साधु ही मानना चाहिये; क्योंकि उसने यह पक्का निश्चय कर लिया है कि अब मेरे को केवल भजन ही करना है । स्वयं का निश्चय होने के कारण वह किसी प्रकार के प्रलोभन से अथवा विपत्ति आने पर भी अपने ध्येय से विचलित नहीं किया जा सकता ।

साधक तभी अपने ध्येय-लक्ष्यसे विचलित होता है, जब वह असत्‒संसार और शरीरको ‘है’ अर्थात् सदा रहनेवाला मान लेता है । असत्‌की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी भूलसे मनुष्यने उसे सत् मान लिया और भोग-संग्रहकी ओर आकृष्ट हो गया । अतः असत्‒संसार, शरीर, परिवार, रुपये-पैसे, जमीन, मान, बड़ाईसे विमुख होकर (इन्हें अपना मानकर इनसे सुख न लेकर और सुख लेनेकी इच्छा न रखकर) इनका यथायोग्य सदुपयोग करना है तथा सत्‌-तत्त्व (परमात्मा) को ही अपना मानना है । श्रीमद्भगवद्गीताके अनुसार असत् (संसार) की सत्ता नहीं है और सत्-तत्त्व (परमात्मा) का अभाव नहीं है‒

“नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।“
.......... (२ । १६)

जिस वास्तविक तत्त्वका कभी अभाव अथवा नाश नहीं होता, उसका अनुभव हम सबको हो सकता है । हमारा ध्यान उस तत्त्वकी ओर न होनेसे ही वह अप्राप्त-सा हो रहा है । उस सत्-तत्त्वका विवेचन गीतामें भगवान्‌ने पाँच प्रकारसे किया है ।

(१) सद्भावे (१७ । २६)
(२) साधुभावे च सदित्येतत् प्रयुज्यते । (१७ । २६)
(३) प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
(१७ । २६)
(४) यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
(१७ । २७)
(५) कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते ॥
(१७ । २७) 

(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से



गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)

|| जय श्रीहरिः ||

गीतोक्त सदाचार (पोस्ट..०१)

भगवान्‌ने अर्जुनको निमित्त बनाकर मनुष्यमात्रको सदाचारयुक्त जीवन बनाने तथा दुर्गुण-दुराचारोंका त्याग करनेकी अनेक युक्तियाँ श्रीमद्भगवद्गीतामें बतलायी हैं । वर्ण, आश्रम, स्वभाव और परिस्थितिके अनुरूप विहित कर्तव्य-कर्म करनेके लिये प्रेरणा करते हुए भगवान् कहते हैं‒

“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।“
......................(गीता ३ । २१)

‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं ।’

वस्तुतः मनुष्यके आचरणसे ही उसकी वास्तविक स्थिति जानी जा सकती है । आचरण दो प्रकारके होते हैं‒(१) अच्छे आचरण, जिन्हें सदाचार कहते हैं और (२) बुरे आचरण, जिन्हें दुराचार कहते हैं ।

सदाचार और सद्‌गुणों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्‌गुण से सदाचार प्रकट होता है और सदाचार से सद्‌गुण दृढ़ होते हैं । इसी प्रकार दुर्गुण-दुराचार का भी परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है । सद्‌गुण-सदाचार (सत् होनेसे) प्रकट होते हैं, पैदा नहीं होते । ‘प्रकट’ वही तत्त्व होता है, जो पहलेसे (अदर्शनरूपसे) रहता है । दुर्गुण-दुराचार मूल में हैं नहीं, वे केवल सांसारिक कामना और अभिमान से उत्पन्न होते हैं । दुर्गुण-दुराचार स्वयं मनुष्यने ही उत्पन्न किये हैं । अतः इनको दूर करनेका उत्तरदायित्व भी मनुष्य पर ही है । सद्‌गुण-सदाचार कुसंग के प्रभाव से दब सकते हैं, परंतु नष्ट नहीं हो सकते, जब कि दुर्गुण-दुराचार सत्संगादि सदाचार के पालन से सर्वथा नष्ट हो सकते हैं । सर्वथा दुर्गुण-दुराचाररहित सभी हो सकते हैं, किंतु कोई भी व्यक्ति सर्वथा सद्‌गुण-सदाचार से रहित नहीं हो सकता ।

यद्यपि लोक में ऐसी प्रसिद्धि है कि मनुष्य सदाचारी होने पर सद्‌गुणी और दुराचारी होने पर दुर्गुणी बनता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सद्‌गुणी होनेपर ही व्यक्ति सदाचारी और दुर्गुणी होने पर ही दुराचारी बनता है । जैसे‒दयारूप सद्‌गुणके पश्चात् दानरूप सदाचार प्रकट होता है । इसी प्रकार पहले चोरपने (दुर्गुण) का भाव अहंता (मैं) में उत्पन्न होनेपर व्यक्ति चोरीरूप दुराचार करता है । अतः मनुष्यको सद्‌गुणों का संग्रह और दुर्गुणोंका त्याग दृढ़तासे करना चाहिये । दृढ़ निश्चय होनेपर दुराचारी-से-दुराचारी को भी भगवत्प्राप्तिरूप सदाचार के चरम लक्ष्यकी प्राप्ति हो सकती है ।


(शेष आगामी पोस्ट में )
‒---- गीता प्रेस,गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण-पथ’ पुस्तक से


योगक्षेमं वहाम्यहम्

जय श्रीहरि

योगक्षेमं वहाम्यहम्

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ । (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ; किन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।

श्रीमद्भगवद्गीता.....नँवे अध्याय से
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]


योगक्षेमं वहाम्यहम्

जय श्रीहरि

योगक्षेमं वहाम्यहम्

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं : हे अर्जुन ! (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ, मैं ही जलको ग्रहण करता हूँ और (फिर उस जलको मैं ही) वर्षारूपसे बरसा देता हूँ । (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ ।

तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानको करनेवाले और सोमरसको पीनेवाले जो पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा (इन्द्ररूपसे) मेरा पूजन करके स्वर्गप्राप्तिकी प्रार्थना करते हैं, वे (पुण्योंके फलस्वरूप) पवित्र इन्द्रलोकको प्राप्त करके वहाँ स्वर्गके देवताओंके दिव्य भोगोंको भोगते हैं।
वे उस विशाल स्वर्गलोकके भोगोंको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदोंमें कहे हुए सकाम धर्मका आश्रय लिये हुए भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्य आवागमनको प्राप्त होते हैं।

जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भलीभाँति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।

हे कुन्तीनन्दन ! जो भी भक्त (मनुष्य) श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक अर्थात् देवताओंको मुझसे अलग मानते हैं। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञोंका भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ; किन्तु वे मुझे तत्त्वसे नहीं जानते, इसीसे उनका पतन होता है।
(सकामभावसे) देवताओंका पूजन करनेवाले (शरीर छोडऩेपर) देवताओंको प्राप्त होते हैं। पितरोंका पूजन करनेवाले पितरोंको प्राप्त होते हैं। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करनेवाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।

जो भक्त पत्र, पुष्प, फल, जल आदि (यथासाध्य एवं अनायास प्राप्त वस्तु)-को प्रेमपूर्वक मेरे अर्पण करता है, उस मुझमें तल्लीन हुए अन्त:करणवाले भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये हुए उपहार (भेंट)-को मैं खा लेता हूँ अर्थात् स्वीकार कर लेता हूँ।

हे कुन्तीपुत्र ! तू जो कुछ करता है, जो कुछ भोजन करता है, जो कुछ यज्ञ करता है, जो कुछ दान देता है और जो कुछ तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर दे।
इस प्रकार (मेरे अर्पण करनेसे) कर्मबन्धनसे और शुभ (विहित) और अशुभ (निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे सर्वथा मुक्त हुआ तू मुझे प्राप्त हो जायगा।
मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समान हूँ। (उन प्राणियोंमें) न तो कोई मेरा द्वेषी है और न कोई प्रिय है। परन्तु जो प्रेमपूर्वक मेरा भजन करते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें हूँ।

अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभक्त होकर मेरा भजन करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
वह तत्काल (उसी क्षण) धर्मात्मा हो जाता है और निरन्तर रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है । हे कुन्तीनन्दन ! मेरे भक्तका पतन नहीं होता—ऐसी तुम प्रतिज्ञा करो।

श्रीमद्भगवद्गीता.....नँवे अध्याय से
[अनुवाद- परमश्रद्धेय स्वामीजी रामसुखदास जी महाराज विरचित गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता टीका "साधक संजीवनी" से ]


कर्म फल भोग में परतन्त्रता


|| जय श्री हरि: ||

कर्म फल भोग में परतन्त्रता

कर्म बंधन में जकडा हुआ यह अखिल जगत् परिवर्तनशील तो है ही, जीव को नीच योनियों में भी जाना पड़ता है | यदि जीव कर्म-परतंत्र न होकर स्वतंत्र होता तो यह परिस्थिति सामने क्यों आती ! भला, स्वर्ग में रहने और अनेक प्रकार के सुख भोगने की सुविधा को छोड़कर विष्ठा एवं मूत्र के भण्डार में भयभीत होकर रहना कौन चाहता है ? त्रिलोकी में गर्भवास से बढ़कर दूसरा कोई नरक नहीं है | गर्भवास से भयभीत होकर मुनि लोग कठिन तपस्या में तत्पर हो जाते हैं | गर्भ में कीड़े काटते हैं | नीचे से जठराग्नि ताप पहुंचाती है | निर्दयतापूर्वक बंधे रहना पड़ता है | गर्भ से बाहर निकलते समय भी वैसे ही कठिन परिस्थिति सामने आती है; क्योंकि निकलने का मार्ग जो योनियंत्र है, वह स्वयं दारुण है | फिर बचपन में नाना प्रकार के दारुण दु:ख भोगने पड़ते हैं | विवेकी पुरुष किस सुख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा कर सकते हैं; परन्तु देवता, मनुष्य एवं पशु आदि का शरीर धारण करके किये हुए अच्छे-बुरे कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | तप यज्ञ और दान के प्रभाव से मनुष्य इंद्र बन सकता है और पुण्य समाप्त हो जाने पर इन्द्र भी धरातल पर आते हैं | इसमें कोई संशय नहीं है !
.....(महर्षि व्यास)

(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के पुनर्जन्मांक से)



गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)

❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)
( सम्पादक-कल्याण )
व्यक्तोपासना में भजन का अभ्यास, भगवान्‌ के साकार-निराकार-तत्त्वका ज्ञान, उपास्य इष्टका ध्यान और उसीके लिये सर्व कर्मों का आचरण और उसी में सर्व कर्मफल का संन्यास रहता है। व्यक्तोपासक अपने उपास्यकी सेवाको छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहता। इसीसे अभ्यास, ज्ञान और ध्यानसे युक्त रहकर सर्व कर्मफलका परमात्माके लिये त्याग करते ही उसे परम शान्ति, परमात्माके परम पदका अधिकार मिल जाता है। यही भाव १२वें श्लोकमें व्यक्त किया गया है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धऽयानं विशिष्यते।
ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्‌ ॥
रहस्यज्ञानरहित अभ्याससे परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है। उससे परमात्मा का ज्ञान श्रेष्ठ है और जिस सर्व-कर्म-फलत्याग में अभ्यास, ज्ञान और ध्यान तीनों रहते हैं, वह सर्वश्रेष्ठ है। उस त्यागके अनन्तर ही परम शान्ति मिल जाती है। इसके बीचके ८ से ११ तकके चार श्लोकोंमें ध्यान, अभ्यास, भगवदर्थ कर्म और भगवत्प्राप्तिरूप योगका आश्रय लेकर कर्मफलत्याग-ये चार साधन बतलाये गये हैं। जो जिसका अधिकारी हो, वह उसीको ग्रहण करे। इनमें छोटा बड़ा समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, जिसमें चारों हों, वह सर्वोत्तम है; वही परम भक्त है। ऐसे भक्तको जब परम सिद्धि मिल जाती है तब उसमें जिन सब लक्षणोंका प्रादुर्भाव होता है, उन्हींका वर्णन अधायकी समाप्तितकके अगले आठ श्लोकोंमें है। वे लक्षण सिद्ध भक्तमें स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये आदर्श हैं। यही गीतोक्त व्यक्तोपासना का रहस्य है।
इससे यह सिद्धान्त नहीं निकालना चाहिये कि अव्यक्तोपासनाका दर्ज़ा नीचा है या उसकी उपासनामें आचरणोंकी कोई खास भिन्नता है। अव्यक्तोपासनाका अधिकार बहुत ही ऊँचा है। विरक्त, धीर, वीर और सर्वथा संयमी पुरुष-पुंगव ही इस कण्टककीर्ण-मार्गपर पैर रख सकते हैं। उपासनामें भी दो-एक बातोंको छोड़कर प्रायः सादृश्यता ही है। व्यक्तोपासकके लिये ‘सर्वभूतेषु निर्वैरः’ की और ‘मैत्रः करुण’ की शर्त है, तो अव्यक्तोपासक के लिये ‘सर्वभूतहिते रताः’ की है । उसके लिये भगवान्‌में मनको एकाग्र करना आवश्यक है, तो इसके लिये भी समस्त ‘इन्द्रियग्राम’ को भलीभाँति वशमें करना ज़रुरी है। वह अपने उपास्यमें ‘परम श्रद्धावान्‌ है, तो यह भी सर्वत्र ब्रह्मदर्शनमें ‘समबुद्धि’ है।
वास्तवमें भगवान्‌का क्या स्वरूप है और उनकी वाणी गीताके श्लोकोंका क्या मर्म है, इस बातको यथार्थतः भगवान्‌ ही जानते हैं अथवा जो महात्मा भगवत्कृपाका अनुभव कर चुके हैं, वे कुछ जान सकते हैं। मुझ-सरीखा विषयरत प्राणी इन विषयोंमें क्या जाने। मैंने यहाँपर जो कुछ लिखा है सो असलमें पूज्य महात्मा पुरुषोंका जूठन-प्रसाद ही है। जिन प्राचीन या अर्वाचीन महात्माओंका मत इस मतसे भिन्न है, वे भी मेरे लिये तो उसी भावसे पूज्य और आदरणीय हैं। मैंने उनकी वाणीका अनादर करनेके अभिप्रायसे एक अक्षर भी नहीं लिखा है। अवश्य ही मुझे यह मत प्यारा लगता है। सम्भव है इसमें मेरी रुचि और इस ओर की आसक्ति ही खास कारण हो। मैं तो सब सन्तोंका दासानुदास और उनकी चरण-रज का भिखारी हूँ।
ॐ तत्सत्
(श्रीवियोगी हरिजी-लिखित ‘भक्तियोग’ नामक पुस्तक की भूमिका से )
............हनुमानप्रसाद पोद्दार
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)


श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...