❈ श्री हरिः शरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 12)
( सम्पादक-कल्याण )
व्यक्तोपासना में भजन का अभ्यास, भगवान् के साकार-निराकार-तत्त्वका ज्ञान, उपास्य इष्टका ध्यान और उसीके लिये सर्व कर्मों का आचरण और उसी में सर्व कर्मफल का संन्यास रहता है। व्यक्तोपासक अपने उपास्यकी सेवाको छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहता। इसीसे अभ्यास, ज्ञान और ध्यानसे युक्त रहकर सर्व कर्मफलका परमात्माके लिये त्याग करते ही उसे परम शान्ति, परमात्माके परम पदका अधिकार मिल जाता है। यही भाव १२वें श्लोकमें व्यक्त किया गया है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धऽयानं विशिष्यते।
ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥
रहस्यज्ञानरहित अभ्याससे परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है। उससे परमात्मा का ज्ञान श्रेष्ठ है और जिस सर्व-कर्म-फलत्याग में अभ्यास, ज्ञान और ध्यान तीनों रहते हैं, वह सर्वश्रेष्ठ है। उस त्यागके अनन्तर ही परम शान्ति मिल जाती है। इसके बीचके ८ से ११ तकके चार श्लोकोंमें ध्यान, अभ्यास, भगवदर्थ कर्म और भगवत्प्राप्तिरूप योगका आश्रय लेकर कर्मफलत्याग-ये चार साधन बतलाये गये हैं। जो जिसका अधिकारी हो, वह उसीको ग्रहण करे। इनमें छोटा बड़ा समझने की कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, जिसमें चारों हों, वह सर्वोत्तम है; वही परम भक्त है। ऐसे भक्तको जब परम सिद्धि मिल जाती है तब उसमें जिन सब लक्षणोंका प्रादुर्भाव होता है, उन्हींका वर्णन अधायकी समाप्तितकके अगले आठ श्लोकोंमें है। वे लक्षण सिद्ध भक्तमें स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये आदर्श हैं। यही गीतोक्त व्यक्तोपासना का रहस्य है।
इससे यह सिद्धान्त नहीं निकालना चाहिये कि अव्यक्तोपासनाका दर्ज़ा नीचा है या उसकी उपासनामें आचरणोंकी कोई खास भिन्नता है। अव्यक्तोपासनाका अधिकार बहुत ही ऊँचा है। विरक्त, धीर, वीर और सर्वथा संयमी पुरुष-पुंगव ही इस कण्टककीर्ण-मार्गपर पैर रख सकते हैं। उपासनामें भी दो-एक बातोंको छोड़कर प्रायः सादृश्यता ही है। व्यक्तोपासकके लिये ‘सर्वभूतेषु निर्वैरः’ की और ‘मैत्रः करुण’ की शर्त है, तो अव्यक्तोपासक के लिये ‘सर्वभूतहिते रताः’ की है । उसके लिये भगवान्में मनको एकाग्र करना आवश्यक है, तो इसके लिये भी समस्त ‘इन्द्रियग्राम’ को भलीभाँति वशमें करना ज़रुरी है। वह अपने उपास्यमें ‘परम श्रद्धावान् है, तो यह भी सर्वत्र ब्रह्मदर्शनमें ‘समबुद्धि’ है।
वास्तवमें भगवान्का क्या स्वरूप है और उनकी वाणी गीताके श्लोकोंका क्या मर्म है, इस बातको यथार्थतः भगवान् ही जानते हैं अथवा जो महात्मा भगवत्कृपाका अनुभव कर चुके हैं, वे कुछ जान सकते हैं। मुझ-सरीखा विषयरत प्राणी इन विषयोंमें क्या जाने। मैंने यहाँपर जो कुछ लिखा है सो असलमें पूज्य महात्मा पुरुषोंका जूठन-प्रसाद ही है। जिन प्राचीन या अर्वाचीन महात्माओंका मत इस मतसे भिन्न है, वे भी मेरे लिये तो उसी भावसे पूज्य और आदरणीय हैं। मैंने उनकी वाणीका अनादर करनेके अभिप्रायसे एक अक्षर भी नहीं लिखा है। अवश्य ही मुझे यह मत प्यारा लगता है। सम्भव है इसमें मेरी रुचि और इस ओर की आसक्ति ही खास कारण हो। मैं तो सब सन्तोंका दासानुदास और उनकी चरण-रज का भिखारी हूँ।
ॐ तत्सत्
(श्रीवियोगी हरिजी-लिखित ‘भक्तियोग’ नामक पुस्तक की भूमिका से )
............हनुमानप्रसाद पोद्दार
............हनुमानप्रसाद पोद्दार
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें