|| जय श्री हरि: ||
कर्म फल भोग में परतन्त्रता
कर्म बंधन में जकडा हुआ यह अखिल जगत् परिवर्तनशील तो है ही,
जीव को नीच योनियों में भी जाना पड़ता है | यदि
जीव कर्म-परतंत्र न होकर
स्वतंत्र होता तो यह परिस्थिति सामने क्यों आती ! भला, स्वर्ग
में रहने और अनेक प्रकार के सुख भोगने की सुविधा को छोड़कर विष्ठा एवं मूत्र के
भण्डार में भयभीत होकर रहना कौन चाहता है ? त्रिलोकी में
गर्भवास से बढ़कर दूसरा कोई नरक नहीं है | गर्भवास से भयभीत
होकर मुनि लोग कठिन तपस्या में तत्पर हो जाते हैं | गर्भ में
कीड़े काटते हैं | नीचे से जठराग्नि ताप पहुंचाती है |
निर्दयतापूर्वक बंधे रहना पड़ता है | गर्भ से
बाहर निकलते समय भी वैसे ही कठिन परिस्थिति सामने आती है; क्योंकि
निकलने का मार्ग जो योनियंत्र है, वह स्वयं दारुण है |
फिर बचपन में नाना प्रकार के दारुण दु:ख भोगने पड़ते हैं | विवेकी पुरुष किस सुख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा कर सकते हैं;
परन्तु देवता, मनुष्य एवं पशु आदि का शरीर
धारण करके किये हुए अच्छे-बुरे कर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है | तप यज्ञ और दान के प्रभाव से मनुष्य इंद्र बन सकता है और पुण्य समाप्त हो
जाने पर इन्द्र भी धरातल पर आते हैं | इसमें कोई संशय नहीं
है !
.....(महर्षि व्यास)
.....(महर्षि व्यास)
(गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण के
पुनर्जन्मांक से)
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