शुक्रवार, 3 मई 2024

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

एवं राजा विदुरेणानुजेन
     प्रज्ञाचक्षुर्बोधित आजमीढः ।
छित्त्वा स्वेषु स्नेहपाशान्द्रढिम्नो
     निश्चक्राम भ्रातृसन्दर्शिताध्वा ॥ २८ ॥
पतिं प्रयान्तं सुबलस्य पुत्री
     पतिव्रता चानुजगाम साध्वी ।
हिमालयं न्यस्तदण्डप्रहर्षं
     मनस्विनामिव सत्सम्प्रहारः ॥ २९ ॥
अजातशत्रुः कृतमैत्रो हुताग्निः
     विप्रान् नत्वा तिलगोभूमिरुक्मैः ।
गृहं प्रविष्टो गुरुवन्दनाय
     न चापश्यत् पितरौ सौबलीं च ॥ ३० ॥
तत्र सञ्जयमासीनं पप्रच्छोद्विग्नमानसः ।
गावल्गणे क्व नस्तातो वृद्धो हीनश्च नेत्रयोः ॥ ३१ ॥
अम्बा च हतपुत्राऽऽर्ता पितृव्यः क्व गतः सुहृत् ।
अपि मय्यकृतप्रज्ञे हतबन्धुः स भार्यया ।
आशंसमानः शमलं गङ्‌गायां दुःखितोऽपतत् ॥ ३२ ॥
पितर्युपरते पाण्डौ सर्वान्नः सुहृदः शिशून् ।
अरक्षतां व्यसनतः पितृव्यौ क्व गतावितः ॥ ३३ ॥

जब छोटे भाई विदुर ने अंधे राजा धृतराष्ट्रको  इस प्रकार समझाया, तब उनकी प्रज्ञा के नेत्र खुल गये; वे भाई-बन्धुओंके सुदृढ़ स्नेह-पाशोंको काटकर अपने छोटे भाई विदुर के दिखलाये हुए मार्गसे निकल पड़े ॥ २८ ॥ जब परम पतिव्रता सुबलनन्दिनी गान्धारी ने देखा कि मेरे पतिदेव तो उस हिमालयकी यात्रा कर रहे हैं, जो संन्यासियों को वैसा ही सुख देता है, जैसा वीर पुरुषोंको लड़ाईके मैदानमें अपने शत्रुके द्वारा किये हुए न्यायोचित प्रहारसे होता है, तब वे भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं ॥ २९ ॥ अजातशत्रु युधिष्ठिर ने प्रात:काल सन्ध्यावन्दन तथा अग्रिहोत्र करके ब्राह्मणों को नमस्कार किया और उन्हें तिल, गौ, भूमि और सुवर्णका दान दिया। इसके बाद जब वे गुरुजनों की चरणवन्दना के लिये राजमहल में गये, तब उन्हें धृतराष्ट्र, विदुर तथा गान्धारीके दर्शन नहीं हुए ॥ ३० ॥ युधिष्ठिरने उद्विग्रचित्त होकर वहीं बैठे हुए सञ्जयसे पूछा—‘सञ्जय ! मेरे वे वृद्ध और नेत्रहीन पिता धृतराष्ट्र कहाँ हैं ? ॥ ३१ ॥ पुत्रशोकसे पीडि़त दुखिया माता गान्धारी और मेरे परम हितैषी चाचा विदुरजी कहाँ चले गये ? ताऊजी अपने पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके मारे जानेसे दुखी थे। मैं बड़ा मन्दबुद्धि हूँ— कहीं मुझसे किसी अपराधकी आशङ्का करके वे माता गान्धारीसहित गङ्गाजीमें तो नहीं कूद पड़े ॥ ३२ ॥ जब हमारे पिता पाण्डुकी मृत्यु हो गयी थी और हमलोग नन्हे- नन्हे बच्चे थे, तब इन्हीं दोनों चाचाओंने बड़े-बड़े दु:खोंसे हमें बचाया था। वे हमपर बड़ा ही प्रेम रखते थे। हाय ! वे यहाँसे कहाँ चले गये ?’ ॥ ३३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


गुरुवार, 2 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

श्रीयशोदोवाच -
न जानामि कथं बालो भारभूतो गिरींद्रवत् ।
तस्मान्मया कृतो भूमौ चक्रवाते महाभये ॥४०॥


गोप्य ऊचुः -
मा मृषा वद कल्याणि हे यशोदे गतव्यथे ।
अयं दुग्धमुखो बालो लघुं कुसुमतूलवत् ॥४१॥


श्रीनारद उवाच -
तदा गोप्योऽथ गोपाश्च नंदाद्या आगते शिशौ ।
अतीव मोदं संप्रापुर्वदन्तः कुशलं जनैः ॥४२॥
यशोदा बालकं नीत्वा पाययित्वा स्तनं मुहुः ।
आघ्रायोरसि वस्त्रेण रोहिणीं प्राह मोहिता ॥४३॥


श्रीयशोदोवाच -
एको दैवेन दत्तोऽयं न पुत्रा बहवश्च मे ।
तस्यापि बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणेन वै ॥४४॥
अद्य मृत्युमुखान्मुक्तो भविष्यत्किमतः परम् ।
किं करोमि क्व गच्छामि कुत्र वासो भवेदतः ॥४५॥
वज्रसाराश्च ये दैत्या निर्दया घोरदर्शनाः ।
वैरं कुर्वन्ति मे बाले दैव दैव कुतः सुखम् ॥४६॥
धनं देहो गृहं सौधो रत्‍नानि विविधानि च ।
सर्वेषां तु ह्यवशं वै भूयान्मे कुशली शिशुः ॥४७॥
हरेरर्चां दानमिष्टं पूर्तं देवालयं शतम् ।
करिष्यामि तदा बालोऽरिष्टेभ्यो विजयी यदा ॥४८॥
एकबालेन मे सौख्यमन्धयष्टिरिव प्रिये ।
बालं नीत्वा गमिष्यामि देशे रोहिणि निर्भये ॥४९॥


श्रीनारद उवाच -
तदैव विप्रा विद्वांस आगता नंदमंदिरम् ।
यशोदया च नंदेन पूजिता आसनस्थिताः ॥५०॥


ब्राह्मणा ऊचुः -
मा शोचं कुरु हे नंद हे यशोदे व्रजेश्वरी ।
करिष्यामः शिशो रक्षां चिरंजीवी भवेदयम् ॥५१॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा द्विजमुख्यास्ते कुशाग्रैर्नवपल्लवैः ।
पवित्रकलशैस्तोयैर्ऋग्यजुःसामजैः स्तवैः ॥५२॥
परैः स्वस्त्ययनैर्यज्ञं कारयित्वा विधानतः ।
अग्निं सम्पूज्यविधिवद्‌रक्षां विदधिरे शिशोः ॥५३॥

यशोदाजीने कहा- बहिनो ! समझमें नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराजके समान भारी लगने लगा था, इसीलिये उस महा- भयंकर बवंडरमें भी मैंने इसे गोदीसे उतारकर भूमिपर रख दिया ॥ ४० ॥

गोपियाँ कहने लगीं-यशोदाजी ! रहने दो, झूठ न बोलो। कल्याणी ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दया- माया नहीं है । यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल और रूई के समान हलका है ॥ ४१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— बालक श्रीकृष्णके घर आ जानेपर नन्द आदि गोप और गोपियाँ – सभीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सब लोगोंके साथ उसकी कुशल- वार्ता कहने लगे । यशोदाजी बालक श्रीकृष्णको उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघकर और आँचलसे छातीमें छिपाकर छोह-मोहके वशीभूत हो, रोहिणीसे कहने लगीं ॥। ४२-४३ ॥

श्रीयशोदाजी बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं हैं; इस एक पुत्रपर भी क्षणभरमें अनेक प्रकारके अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौतके मुँहसे बचा है। इससे अधिक उत्पात और क्या होगा ? अतः अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहनेकी व्यवस्था करूँ ? धन, शरीर, मकान, अटारी और विविध प्रकारके रत्न – इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक कुशलसे रहे ।। ४४-४७ ।।

यदि मेरा यह बच्चा अरिष्टोंपर विजयी हो जाय तो मैं भगवान् श्रीहरिकी पूजा, दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदिका निर्माण करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अंधेके लिये लाठी ही सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालकसे ही है। अतः बहिन ! अब मैं अपने लालाको उस स्थानपर ले जाऊँगी, जहाँ कोई भय न हो ॥ ४८-४९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय नन्दमन्दिरमें बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण पधारे और उत्तम आसनपर बैठे । नन्द और यशोदाजीने उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ ५० ॥

 

ब्राह्मण बोले—[व्रजपति]  नन्दजी  तथा व्रजेश्वरी यशोदे ! तुम चिन्ता मत करो। हम इस बालक की [कवच आदि से] रक्षा करेंगे, जिससे यह दीर्घजीवी हो जाय ॥ ५१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुशाग्रों, नूतन पल्लवों, पवित्र कलशों, शुद्ध जल तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदके स्तोत्रों और उत्तम स्वस्तिवाचन आदिके द्वारा विधि-विधान से यज्ञ करवाकर अग्निकी पूजा करायी । तब उन्होंने बालक श्रीकृष्णकी विधिवत् रक्षा की ( रक्षार्थ निम्नाङ्कित कवच पढ़ा) । ५२-५३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

येन चैवाभिपन्नोऽयं प्राणैः प्रियतमैरपि ।
जनः सद्यो वियुज्येत किमुतान्यैः धनादिभिः ॥ २० ॥
पितृभ्रातृसुहृत्पुत्रा हतास्ते विगतं वयः ।
आत्मा च जरया ग्रस्तः परगेहमुपाससे ॥ २१ ॥
अहो महीयसी जन्तोः जीविताशा यया भवान् ।
भीमापवर्जितं पिण्डं आदत्ते गृहपालवत् ॥ २२ ॥
अग्निर्निसृष्टो दत्तश्च गरो दाराश्च दूषिताः ।
हृतं क्षेत्रं धनं येषां तद्दत्तैरसुभिः कियत् ॥ २३ ॥
तस्यापि तव देहोऽयं कृपणस्य जिजीविषोः ।
परैत्यनिच्छतो जीर्णो जरया वाससी इव ॥ २४ ॥
गतस्वार्थमिमं देहं विरक्तो मुक्तबन्धनः ।
अविज्ञातगतिः जह्यात् स वै धीर उदाहृतः ॥ २५ ॥
यः स्वकात्परतो वेह जातनिर्वेद आत्मवान् ।
हृदि कृत्वा हरिं गेहात् प्रव्रजेत् स नरोत्तमः ॥ २६ ॥
अथोदीचीं दिशं यातु स्वैरज्ञात गतिर्भवान् ।
इतोऽर्वाक् प्रायशः कालः पुंसां गुणविकर्षणः ॥ २७ ॥

(विदुरजी धृतराष्ट्र से कहते हैं)  काल के वशीभूत होकर जीव का अपने प्रियतम प्राणों से भी बात-की-बात में वियोग हो जाता है; फिर धन, जन आदि दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या है ॥ २० ॥ आपके चाचा, ताऊ, भाई, सगे- सम्बन्धी और पुत्र—सभी मारे गये, आपकी उम्र भी ढल चुकी, शरीर बुढ़ापेका शिकार हो गया, आप पराये घरमें पड़े हुए हैं ॥ २१ ॥ ओह ! इस प्राणी को जीवित रहने की कितनी प्रबल इच्छा होती है ! इसीके कारण तो आप भीमका दिया हुआ टुकड़ा खाकर कुत्तेका-सा जीवन बिता रहे हैं ॥ २२ ॥ जिनको आपने आगमें जलानेकी चेष्टाकी, विष देकर मार डालना चाहा, भरी सभामें जिनकी विवाहिता पत्नीको अपमानित किया, जिनकी भूमि और धन छीन लिये, उन्हीं के अन्नसे पले हुए प्राणोंको रखनेमें क्या गौरव है ॥ २३ ॥ आपके अज्ञानकी हद हो गयी कि अब भी आप जीना चाहते हैं ! परन्तु आपके चाहनेसे क्या होगा; पुराने वस्त्रकी तरह बुढ़ापेसे गला हुआ आपका शरीर आपके न चाहनेपर भी क्षीण हुआ जा रहा है ॥ २४ ॥ अब इस शरीरसे आपका कोई स्वार्थ सधने वाला नहीं है; इसमें फँसिये मत, इसकी ममता का बन्धन काट डालिये। जो संसार के सम्बन्धियों से अलग रहकर उनके अनजान में अपने शरीर का त्याग करता है, वही धीर कहा गया है ॥ २५ ॥ चाहे अपनी समझ से हो या दूसरेके समझानेसे—जो इस संसारको दु:खरूप समझकर इससे विरक्त हो जाता है और अपने अन्त:करण को वश में करके हृदय में भगवान्‌ को धारण कर संन्यास के लिये घर से निकल पड़ता है, वही उत्तम मनुष्य है ॥ २६ ॥ इसके आगे जो समय आनेवाला है, वह प्राय: मनुष्यों के गुणों को घटानेवाला होगा; इसलिये आप अपने कुटुम्बियों से छिपकर उत्तराखण्ड में चले जाइये’ ॥ २७ ॥

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बुधवार, 1 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 03)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

श्रीनारद उवाच -
तस्मादुत्कदैत्यस्तु मुक्तो लोमशतेजसा ।
सद्‌भ्यो नमोऽस्तु ये नूनं समर्था वरशापयोः ॥२४॥
उत्संगे क्रीडितं बालं लालयंत्येकदा नृप ।
गिरिभारं न सेहे सा वोढुं श्रीनंदगेहिनी ॥२५॥
अहो गिरिसमो बालः कथं स्यादिति विस्मिता ।
भूमौ निधाय तं सद्यो नेदं कस्मै जगाद ह ॥२६॥
कंसप्रणोदितो दैत्यस्तृणावर्तो महाबलः ।
जहार बालं क्रीडन्तं वातावर्तेन सुंदरम् ॥२७॥
रजोऽन्धकारोऽभूत्तत्र घोरशब्दश्च गोकुले ।
रजस्वलानि चक्षूंषि बभूवुर्घटिकाद्वयम् ॥२८॥
ततो यशोदा नापश्यत्पुत्रं तं मंदिराजिरे ।
मोहिता रुदती घोरान् पश्यंती गृहशेखरान् ॥२९॥
अदृष्टे च यदा पुत्रे पतिता भुवि मूर्छिता ।
उच्चै रुरोद करुणं मृतवत्सा यथा हि गौः ॥३०॥
रुरुदुश्च तदा गोप्यः प्रेमस्नेहसमाकुलाः ।
अश्रुमुख्यो नंदसूनुं पश्यंत्यस्ता इतस्ततः ॥३१॥
तृणावर्तो नभः प्राप्त ऊर्ध्वं वै लक्षयोजनम् ।
स्कंधे सुमेरुवद्‌बालं मन्यमानः प्रपीडितः ॥३२॥
अथ कृष्णं पातयितुं दैत्यस्तत्र समुद्यतः ।
गलं जग्राह तस्यापि परिपूर्णतमः स्वयम् ॥३३॥
मुंच मुंचेति गदिते दैत्ये कृष्णोऽद्‌भुतोऽर्भकः ।
गलग्राहेण महता व्यसुं दैत्यं चकार ह ॥३४॥
तज्ज्योतिः श्रीघनश्यामे लीनं सौदामिनी यथा ।
दैत्योऽम्बरान्निपतितः शिलायां शिशुना सह ॥३५॥
विशीर्णावयवस्यापि पतितस्य स्वनेन वै ।
विनेदुश्च दिशः सर्वाः कंपितं भूमिमंडलम् ॥३६॥
तत्पृष्ठस्थं शिशुं तूष्णीं रुदंत्यो गोपिकास्ततः ।
ददृशुर्युगपत्सर्वा नीत्वा मात्रे ददुर्जगुः ॥३७॥


गोप्य ऊचुः -
न योग्यासि यशोदे त्वं बालं लालयितुं मनाक् ।
न घृणा ते क्वचिद्‌दृष्टा क्रुद्धासि कथितेन वै ॥३८॥
प्राप्तेऽन्धकारे स्वारोहात्कोऽपि बालं जहाति हि ।
त्वया निर्घृणया भूमौ धृतो बालो महाभये ॥३९॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! उक्त वरद शापके कारण लोमशजीके प्रतापसे दानव उत्कच भी भगवान्‌ के परम धामका अधिकारी हो गया। जो वर और शाप देने में पूर्ण स्वतन्त्र हैं, उन श्रेष्ठ संतोंके लिये मेरा नमस्कार है ॥ २४ ॥

राजन् ! एक दिन नन्दरानी यशोदाजीकी गोदमें बालक श्रीकृष्ण खेल रहे थे और नन्दरानी उन्हें लाड़ लड़ा रही थीं। थोड़ी ही देरमें बालक पर्वतके समान भारी प्रतीत होने लगा। वे उसे गोदमें उठाये रखने में असमर्थ हो गयीं और मन-ही-मन सोचने लगीं— 'अहो ! इस बालकमें पहाड़-सा भारीपन कहाँसे आ गया ?' फिर उन्होंने बालगोपालको भूमिपर रख दिया, किंतु यह रहस्य किसी को बतलाया नहीं । उसी समय कंस का भेजा हुआ महाबली दैत्य 'तृणावर्त' वहाँ आकर आँगन में खेलते हुए सुन्दर बालक श्रीकृष्ण को बवंडररूप से उठा ले गया ।।२५-२७।।

तब गोकुलमें ऐसी धूल उठी, जिसके कारण अँधेरा छा गया और भयंकर शब्द होने लगा। दो घड़ीतक सबकी आँखोंमें धूल भरी रही। उस समय यशोदाजी नन्द-मन्दिरके आँगनमें अपने लालाको न देखकर घबरा गयीं। रोती हुई महलके शिखरोंकी ओर देखने लगीं। वे बड़े भयंकर दीखते थे ।। ३८-३९ ।।

जब कहीं भी अपना लाला नहीं दिखायी दिया, तब वे मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर

पड़ीं और होश में आनेपर उच्चस्वर से इस प्रकार करुण-विलाप करने लगीं, मानो बछड़े के मर जानेपर गौ क्रन्दन कर रही हो । प्रेम और स्नेहसे व्याकुल हुई गोपियाँ भी रो रहीं थीं। उन सबके मुखपर आँसुओं की धारा बह रहीं थी । वे इधर-उधर देखती हुई नन्द- नन्दन की खोज में लग गयीं ।। ३०-३१ ।।

उधर तृणावर्त आकाश में दस योजन ऊपर जा पहुँचा। बालक श्रीकृष्ण उसके कंधे पर थे। उनका शरीर उसे सुमेरु पर्वत की भाँति भारी प्रतीत होने लगा। उसे अत्यन्त पीड़ा होने लगी । तब वह दानव श्रीकृष्ण को वहाँ नीचे पटकनेकी चेष्टामें लग गया। यह जानकर परिपूर्णतम भगवान् ने स्वयं उसका गला पकड़ लिया ।। ३२-३३ ।।

निशाचर के 'छोड़ दे, छोड़ दे ।' कहने पर अद्भुत बालक श्रीकृष्ण ने बड़े जोरसे उसका गला दबाया, इससे उसके प्राण-पखेरू उड़ गये। उसकी देहसे ज्योति निकली और घनश्याम में उसी प्रकार विलीन हो गयी, जैसे बादल में बिजली । तब आकाश से दैत्य का शरीर बालक के साथ ही एक शिला पर गिर पड़ा। गिरते ही उसकी बोटी-बोटी छितरा गयी। गिरनेके  धमाके से सम्पूर्ण दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं, भूमण्डल काँपने लगा । उस समय रोती हुई सब गोपियोंने राक्षसकी पीठपर चुपचाप बैठे बालक श्रीकृष्णको एक साथ ही देखा और दौड़कर उन्हें उठा लिया। फिर माता यशोदाको देकर वे कहने लगीं-- ॥। ३४–३७ ॥

गोपियाँ बोलीं- यशोदे ! तुममें बालकके लालनपालनकी रत्तीभर भी योग्यता नहीं है। कहने से तो तुम बुरा मान जाती हो; किंतु सच बात यह है कि कहीं, कभी तुमसे दया देखी नहीं गयी। भला कहो तो, इस प्रकार अन्धकार आ जानेपर कोई भी अपने बच्चेको गोदसे अलग करता है ! तू ऐसी निर्दय है कि ऐसे महान् भय के अवसरपर भी बालक को जमीन पर रख दिया ? ॥ ३८-३९ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

कञ्चित् कालमथावात्सीत् सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत् सर्वेषां सुखमावहन् ॥ १४ ॥
अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावत् अघकारिषु ।
यावद् दधार शूद्रत्वं शापात् वर्षशतं यमः ॥ १५ ॥
युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैः मुमुदे परया श्रिया ॥ १६ ॥
एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामत् अविज्ञातः कालः परमदुस्तरः ॥ १७ ॥
विदुरस्तत् अभिप्रेत्य धृतराष्ट्रं अभाषत ।
राजन् निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम् ॥ १८ ॥
प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित् कर्हिचित् प्रभो ।
स एष भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः ॥ १९ ॥

पाण्डव विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण-कामना से सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ १४ ॥ विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे [*]। इतने दिनों तक यमराज के पदपर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ १५ ॥ राज्य प्राप्त हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित्‌ को देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने लगे ॥ १६ ॥ इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ॥ १७ ॥
परन्तु विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये ॥ १८ ॥ हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है ॥ १९ ॥ 
........................................................
[*] एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरी में शामिल होंगे। अत: वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञासे सबके साथ उनको भी सूलीपर चढ़ा दिया गया। राजाको यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं—ऋषिको सूलीसे उतरवा दिया और हाथ जोडक़र उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्यजीने यमराजके पास जाकर पूछा—‘मुझे किस पापके फलस्वरूप यह दण्ड मिला ?’ यमराजने बताया कि ‘आपने लडक़पनमें एक टिड्डीको कुशकी नोकसे छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इसपर मुनिने कहा—‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटेसे अपराधके लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्षतक शूद्रयोनिमें रहोगे।’ माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया था।

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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

बाला ऊचुः -
प्रेंखस्थोऽयं क्षिपन्पादौ रुदन्दुग्धार्थमेव हि ।
तताड पादं शकटे तेनेदं पतितं खलु ॥१४॥
श्रद्धां न चक्रुर्बालोक्ते गोपा गोप्यश्च विस्मिताः ।
त्रैमासिकः क्व बालोऽयं क्व चैतद्‌भारभृत्त्वनः ॥१५॥
बालमंके सा गृहित्वा यशोदा ग्रहशंकिता ।
कारयामास विधिवद्यज्ञं विप्रैः सुतर्पितैः ॥१६॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं तु कुशली दैत्य उत्कचनामभाक् ।
अहो कृष्णपदस्पर्शाद्‌गतो मोक्षं महामुने ॥१७॥


श्रीनारद उवाच -
हिरण्याक्षसुतो दैत्य उत्कचो नाम मैथिल ।
लोमशस्याश्रमे गच्छन् वृक्षांश्चूर्णीचकार ह ॥१८॥
तं दृष्ट्वा स्थूलदेहाढ्यमुत्कचाख्यं महाबलम् ।
शशाप रोषयुग्विप्रो विदेहो भव दुर्मते ॥१९॥
सर्पकंचुकवद्देहोऽपतत्कर्मविपाकतः ।
सद्यस्तच्चरणोपांते पतित्वा प्राह दैत्यराट् ॥२०॥


उत्कच उवाच -
हे मुने हे कृपासिंधो कृपां कुरु ममोपरि ।
ते प्रभावं न जानामि देहं मे देहि हे प्रभो ॥२१॥


श्रीनारद उवाच -
तदा प्रसन्नः स मुनिर्दृष्टं नयशतं विधेः ।
सतां रोषोऽपि वरदो वरो मोक्षार्थदः किमु ॥२२॥


श्रीलोमश उवाच -
वातदेहस्तु ते भूयातद्‌व्यतीते चाक्षुषांतरे ।
वैवस्वतांतरे मुक्तिः भविता च पदा हरेः ॥२३॥

बालकोंने कहा- पालनेपर सोया हुआ यह बालक दूध पीनेके लिये रोते-रोते ही पैर फेंक रहा था। वही पैर छकड़ेसे टकराया, इसीसे यह छकड़ा उलट गया । व्रजबालकोंकी इस बातपर गोप और गोपियोंको विश्वास नहीं हुआ। वे सभी आश्चर्यमग्न होकर सोचने लगे- 'कहाँ तो तीन महीनेका यह छोटा-सा बालक और कहाँ इतने विशाल बोझवाला यह छकड़ा !' यशोदाको यह शङ्का हो गयी कि बच्चेको कोई बालग्रह लग गया है। अतः उन्होंने बालकको गोदमें लेकर ब्राह्मणोंद्वारा विधिपूर्वक ग्रहयज्ञ करवाया। उसमें उन्होंने ब्राह्मणोंको धन आदिसे पूर्णतया तृप्त कर दिया ॥। १४ – १६ ॥

श्रीबहुलाश्वने पूछा- महामुने ! इस 'उत्कच' नामके राक्षसने पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णके चरणका स्पर्श पाकर वह तत्काल मोक्षका भागी हो गया ? ॥ १७ ॥

श्रीनारदजीने कहा- मिथिलेश्वर ! यह उत्कच पूर्वजन्ममें हिरण्याक्षका पुत्र था। एक दिन वह लोमशजीके आश्रमपर गया और वहाँ उसने आश्रमके वृक्षोंको चूर्ण कर दिया । स्थूलदेहसे युक्त महाबली उत्कचको खड़ा देख ब्राह्मण ऋषिने रोष- युक्त होकर उसे शाप दे दिया- 'दुर्मते ! तू देह- रहित हो जा।' उसी कर्मके परिपाकसे उसका वह शरीर सर्प- शरीरसे केंचुलकी भाँति छूटकर गिर पड़ा। यह देख वह महान् दानव मुनिके चरणों में गिर पड़ा और बोला ॥। १८ - २० ॥

उत्कचने कहा- मुने ! आप कृपाके सागर हैं। मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिये । भगवन् ! मैंने आपके प्रभावको नहीं जाना । आप मेरी देह मुझे दे दीजिये ॥ २१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तदनन्तर वे मुनि लोमश प्रसन्न हो गये। जिन्होंने विधाताकी सौ नीतियाँ देखी हैं, अर्थात् जिनके सामने सौ ब्रह्मा बीत चुके हैं, ऐसे संतोंका रोष भी वरदायक होता है। फिर उनका वरदान मोक्षप्रद हो, इसके लिये तो कहना ही क्या है ॥२२॥

लोमशजी बोले - चाक्षुष - मन्वन्तरतक तो तेरा शरीर वायुमय रहेगा। इसके बीत जानेपर वैवस्वत- मन्वन्तर आयेगा । उसी समयमें (अट्ठाईसवें द्वापरके अन्तमें) भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंका स्पर्श होनेसे तेरी मुक्ति होगी ।। २३ ।।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

युधिष्ठिर उवाच ।

अपि स्मरथ नो युष्मत् पक्षच्छायासमेधितान् ।
विपद्‍गणाद् विषाग्न्यादेः मोचिता यत्समातृकाः ॥ ८ ॥
कया वृत्त्या वर्तितं वः चरद्‌भिः क्षितिमण्डलम् ।
तीर्थानि क्षेत्रमुख्यानि सेवितानीह भूतले ॥ ९ ॥
भवद्विधा भागवताः तीर्थभूताः स्वयं विभो ।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता ॥ १० ॥
अपि नः सुहृदस्तात बान्धवाः कृष्णदेवताः ।
दृष्टाः श्रुता वा यदवः स्वपुर्यां सुखमासते ॥ ११ ॥
इत्युक्तो धर्मराजेन सर्वं तत् समवर्णयत् ।
यथानुभूतं क्रमशो विना यदुकुलक्षयम् ॥ १२ ॥
नन्वप्रियं दुर्विषहं नृणां स्वयमुपस्थितम् ।
नावेदयत् सकरुणो दुःखितान् द्रष्टुमक्षमः ॥ १३ ॥

युधिष्ठिर ने (विदुरजी से) कहा—चाचाजी ! जैसे पक्षी अपने अंडों को पंखों की छाया के नीचे रखकर उन्हें सेते और बढ़ाते हैं, वैसे ही आपने अत्यन्त वात्सल्य से अपने कर-कमलों की छत्रछाया में हमलोगों को पाला-पोसा है। बार-बार आपने हमें और हमारी माता को विषदान और लाक्षागृहके दाह आदि विपत्तियोंसे बचाया है। क्या आप कभी हमलोगोंकी भी याद करते रहे हैं ? ॥ ८ ॥ आपने पृथ्वीपर विचरण करते समय किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह किया ? आपने पृथ्वीतलपर किन-किन तीर्थों और मुख्य क्षेत्रोंका सेवन किया ? ॥ ९ ॥ प्रभो ! आप-जैसे भगवान्‌के प्यारे भक्त स्वयं ही तीर्थस्वरूप होते हैं। आपलोग अपने हृदयमें विराजमान भगवान्‌ के द्वारा तीर्थोंको  भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते हैं ॥ १० ॥ चाचाजी ! आप तीर्थयात्रा करते हुए द्वारका भी अवश्य ही गये होंगे। वहाँ हमारे सुहृद् एवं भाई-बन्धु यादवलोग, जिनके एकमात्र आराध्यदेव श्रीकृष्ण हैं, अपनी नगरीमें सुखसे तो हैं न ? आपने यदि जाकर देखा नहीं होगा तो सुना तो अवश्य ही होगा ॥ ११ ॥ युधिष्ठिरके इस प्रकार पूछनेपर विदुरजीने तीर्थों और यदुवंशियोंके सम्बन्धमें जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया था, सब क्रमसे बतला दिया, केवल यदुवंशके विनाश की बात नहीं कही ॥ १२ ॥ करुणहृदय विदुरजी पाण्डवोंको दुखी नहीं देख सकते थे। इसलिये उन्होंने यह अप्रिय एवं असह्य घटना पाण्डवोंको नहीं सुनायी; क्योंकि वह तो स्वयं ही प्रकट होनेवाली थी ॥ १३ ॥

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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 01)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

इत्येवं कथितं दिव्यं श्रीकृष्णचरितं वरम् ।
यं शृणोति नतो भक्त्या स कृतार्थो न संशयः ॥१॥


श्रीशौनक उवाच -
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
श्रुत्वा त्वन्मुखतः साक्षात्कृतार्थाः स्मो वयं मुने ॥२॥
श्रीकृष्णभक्तः शांतात्मा बहुलाश्वः सतां वरः ।
अथो मुनिं किं पप्रच्छ तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३॥


श्रीगर्ग उवाच -
अथ राजा मैथिलेंद्रो हर्षितः प्रेमविह्वलः ।
नारदं प्राह धर्मात्मा परिपूर्णतमं स्मरन् ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
धन्योऽहं च कृतार्थोऽहं भवता भूरिकर्मणा ।
संगो भगवदीयानां दुर्लभो दुर्घटोऽस्ति हि ॥५॥
श्रीकृष्णस्त्वर्भकः साक्षादद्‌भुतो भक्तवत्सलः ।
अग्रे चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे मुने ॥६॥


श्रीनारद उवाच -
साधु पृष्टं त्वया राजन् भवता कृष्णधर्मिणा ।
संगमः खलु साधूनां सर्वेषां वितनोति शम् ॥७॥
एकदा कृष्णजन्मर्क्षे यशोदा नंदगेहिनी ।
गोपीगोपान्समाहूय मंगलं चाकरोद्‌द्विजैः ॥८॥
रक्तांबरं कनकभूषणभूषिताङ्गं
बालं प्रगृह्य कलितांजनपद्मनेत्रम् ।
श्यामं स्फुरद्धरिनखावृतचंद्रहारं
देवान् प्रणम्य सुधनं प्रददौ द्विजेभ्यः ॥९॥
प्रेंखे निधाय निजमात्मजमाशु गोपी
संपूज्य मंगलदिने प्रतिगोपिकास्ताः ।
नैवाशृणोत्सुरुदितस्य सुतस्य शब्दं
गोपेषु मंगलगृहेषु गतागतेषु ॥१०॥
तत्रैव कंसखलनोदित उत्कचाख्यो
दैत्यः प्रभंजनतनुः शकटं स एत्य ।
बालस्य मूर्ध्नि परिपातयितुं प्रवृत्तः
कृष्णोऽपि तं किल तताड पदारुणेन ॥११॥
चूर्ण गतेथ शकटे पतिते च दैत्ये
त्यक्त्वा प्रभंजनतनुं विमलो बभूव ।
नत्वा हरिं शतहयेन रथेन युक्तो
गोलोकधाम निजलोकमलं जगाम ॥१२॥
नंदादयो व्रजजना व्रजगोपिकाश्च
सर्वे समेत्य युगपत्पृथुकान् तदाहुः ।
एष स्वयं च पतितः शकटः कथं हि
जानीथ हे व्रजसुताः सुगताश्च यूयम् ॥१३॥

श्रीगर्गजीने कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्णके सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्रका वर्णन किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है, वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो गया—इसमें संशय नहीं है ॥ १ ॥

श्रीशौनकजी बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण- का मङ्गलमय चरित्र अमृत रससे तैयार की हुई परम मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात् आपके मुखसे सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन ! संतोंमें श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे । उनके मनमें सदा शान्ति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारदजीसे कौन-सी बात पूछी, यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २-३ ॥

श्रीगर्गजीने कहा— शौनक ! तदनन्तर मिथिलाके महाराज बहुलाश्व हर्षसे उत्फुल्ल और प्रेमसे विह्वल हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेशने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए नारदजीसे कहा ॥ ४ ॥

राजा बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्यकर्म किये हैं। आपके सम्पर्कसे मैं धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान्‌के भक्तोंका सङ्ग दुर्लभ और दुस्साध्य है । मुने! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें आगे चलकर कौन-सी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये ॥ ५-६ ।।

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तुम श्रीकृष्ण- सम्मत धर्मके पालक हो, तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषोंका सङ्ग सबके कल्याणका विस्तार करनेवाला होता है ॥ ७ ॥

एक दिन, जब भगवान् श्रीकृष्णके जन्मका नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजीने गोप और गोपियोंको अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणोंके बताये अनुसार मङ्गल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम सलोने बालक श्रीकृष्णको लाल रंगका वस्त्र पहनाया गया। अङ्गोंको सुवर्णमय भूषणोंसे भूषित किया गया। उन्हें गोदमें लेकर मैयाने उनके विकसित कमल-सदृश कमनीय नेत्रोंमें काजल लगाया और गलेमें बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंके लिये उत्तम धनका दान दिया ॥ ८- ९ ॥

तदनन्तर गोपी यशोदाजीने शीघ्र ही अपने लालाको पालनेपर लिटा दिया और मङ्गल- दिवसपर गोपियोंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग स्वागत किया । उस मङ्गल-भवनमें उस दिन बहुत-से गोपोंका आना-जाना लगा रहा, अतः उन्हींके सत्कारमें व्यस्त रहनेके कारण वे अपने रोते हुए बालकका रुदन - शब्द सुन न सकीं। उसी क्षण पापात्मा कंसका भेजा हुआ एक राक्षस आया। उसका नाम 'उत्कच' था। वह वायुमय शरीर धारण किये रहता था। वह आकर छकड़ेपर ( जिसपर बड़े-बड़े वजनदार दही-दूधके मटके रखे जाते थे) बैठ गया और बालकके मस्तक- पर उस शकटको उलटकर गिरानेके प्रयासमें लगा। इतनेमें ही श्रीकृष्णने रोते-रोते ही उस शकटपर पैरसे प्रहार कर दिया। फिर तो वह बड़ा छकड़ा टूक-टूक हो गया और दैत्य मरकर नीचे आ गिरा। ऐसी स्थितिमें वह वायुमय शरीर छोड़कर निर्मल दिव्य देहसे सम्पन्न हो गया और भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके सौ घोड़ोंसे जुते हुए दिव्य विमानपर बैठकर भगवान्‌ के निजी परमधाम गोलोकको चला गया ॥ १०- १२ ॥

उस समय व्रजवासी नन्द आदि गोप तथा गोपियाँ सब-के-सब एक साथ वहाँ आ गये और बालकोंसे पूछने लगे- 'व्रजकुमारो ! यह शकट अपने आप ही गिर पड़ा या किसीने इसे गिराया है? कैसे इसकी यह दशा हुई है, तुम जानते हो तो बताओ ॥ १३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और 
गान्धारीका वनमें जाना

सूत उवाच ।

विदुरस्तीर्थयात्रायां मैत्रेयादात्मनो गतिम् ।
ज्ञात्वागाt हास्तिनपुरं तयावाप्तविवित्सितः ॥ १ ॥
यावतः कृतवान् प्रश्नान् क्षत्ता कौषारवाग्रतः ।
जातैकभक्तिः गोविन्दे तेभ्यश्चोपरराम ह ॥ २ ॥
तं बन्धुमागतं दृष्ट्वा धर्मपुत्रः सहानुजः ।
धृतराष्ट्रो युयुत्सुश्च सूतः शारद्वतः पृथा ॥ ३ ॥
गान्धारी द्रौपदी ब्रह्मन् सुभद्रा चोत्तरा कृपी ।
अन्याश्च जामयः पाण्डोः ज्ञातयः ससुताः स्त्रियः ॥ ४ ॥
प्रत्युज्जग्मुः प्रहर्षेण प्राणं तन्व इवागतम् ।
अभिसङ्‌गम्य विधिवत् परिष्वङ्‌गाभिवादनैः ॥ ५ ॥
मुमुचुः प्रेमबाष्पौघं विरहौत्कण्ठ्य कातराः ।
राजा तमर्हयां चक्रे कृतासन परिग्रहम् ॥ ६ ॥
तं भुक्तवन्तं विश्रान्तं आसीनं सुखमासने ।
प्रश्रयावनतो राजा प्राह तेषां च श्रृण्वताम् ॥ ७ ॥

सूतजी कहते हैं—विदुरजी तीर्थयात्रामें महर्षि मैत्रेयसे आत्माका ज्ञान प्राप्त करके हस्तिनापुर लौट आये। उन्हें जो कुछ जाननेकी इच्छा थी, वह पूर्ण हो गयी थी ॥ १ ॥ विदुरजीने मैत्रेय ऋषिसे जितने प्रश्र किये थे, उनका उत्तर सुननेके पहले ही श्रीकृष्णमें अनन्य भक्ति हो जानेके कारण वे उत्तर सुननेसे उपराम हो गये ॥ २ ॥ शौनकजी ! अपने चाचा विदुरजीको आया देख धर्मराज युधिष्ठिर, उनके चारों भाई, धृतराष्ट्र, ययुत्सु, संजय, कृपाचार्य, कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, उत्तरा, कृपी तथा पाण्डव-परिवारके अन्य सभी नर-नारी और अपने पुत्रोंसहित दूसरी स्त्रियाँ—सब-के-सब बड़ी प्रसन्नतासे, मानो मृत शरीरमें प्राण आ गया हो—ऐसा अनुभव करते हुए उनकी अगवानीके लिये सामने गये। यथायोग्य आलिङ्गन और प्रणामादिके द्वारा सब उनसे मिले और विरहजनित उत्कण्ठासे कातर होकर सबने प्रेमके आँसू बहाये। युधिष्ठिरने आसनपर बैठाकर उनका यथोचित सत्कार किया ॥ ३—६ ॥ जब वे भोजन एवं विश्राम करके सुखपूर्वक आसनपर बैठे थे तब युधिष्ठिरने विनयसे झुककर सबके सामने ही उनसे कहा ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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रविवार, 28 अप्रैल 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तेरहवाँ अध्याय (पोस्ट 02)

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तेरहवाँ अध्याय  (पोस्ट 02)

 

पूतनाका उद्धार

 

गोप्य ऊचुः -
श्रीकृष्णस्ते शिरः पातु वैकुण्ठः कण्ठमेव हि ।
श्वेतद्वीपपतिः कर्णौ नासिकां यज्ञरूपधृक् ॥१५॥
नृसिंहो नेत्रयुग्मं च जिह्वां दशरथात्मजः ।
अधराववतां ते तु नरनाराणावृषी ॥१६॥
कपोलौ पातु ते साक्षात्सनकाद्याः कला हरेः ।
भालं ते श्वेतवाराहो नारदो भ्रूलतेऽवतु ॥१७॥
चिबुकं कपिलः पातु दत्तात्रेय उरोऽवतु ।
स्कंधौ द्वावृषभः पातु करौ मत्स्यः प्रपातु ते ॥१८॥
दोर्दण्डं सततं रक्षेत्पृथुः पृथुलविक्रमः ।
उदरं कमठः पातु नाभिं धन्वन्तरिश्च ते ॥१९॥
मोहिनी गुह्यदेशं च कटिं ते वामनोऽवतु ।
पृष्ठं परशुरामश्च तवोरू बादरायणः ॥२०॥
बलो जानुद्वयं पातु जंघे बुद्धः प्रपातु ते ।
पादौ पातु सगुल्फौ च कल्किर्धर्मपतिः प्रभुः ॥२१॥
सर्वरक्षाकरं दिव्यं श्रीकृष्णकवचं परम् ।
इदं भगवता दत्तं ब्रह्मणे नाभिपंकजे ॥२२॥
ब्रह्मणा शंभवे दत्तं शंभुर्दुर्वाससे ददौ ।
दुर्वासाः श्रीयशोमत्यै प्रादाच्छ्रीनन्दमन्दिरे ॥२३॥
अनेन रक्षां कृत्वास्य गोपीभिः श्रीयशोमती ।
पाययित्वा स्तनं दानं विप्रेभ्यः प्रददौ महत् ॥२४॥
तदा नंदादयो गोपा आगता मथुरापुरात् ।
दृष्ट्वा घोरां पूतनाख्यां बभूवुर्भयविह्वलाः ॥२५॥
छित्वा कुठारैस्तद्देहं गोपाः श्रीयमुनातटे ।
अनेकाश्च चिताः कृत्वा दाहयामासुरेव ताम् ॥२६॥
एलालवंगश्रीखंडतगरागरुगंधिभृत् ।
धूमो दग्धस्य देहस्य पवित्रस्य समुत्थितः ॥२७॥
अहो कृष्णमृते कं वा व्रजाम शरणं त्विह ।
पूतनायै मोक्षगतिं ददौ पतितपावनः ॥२८॥


श्रीबहुलाश्व उवाच -
केयं वा राक्षसी पूर्वं पूतना बालघातिनी ।
विषस्तना दुष्टभावा परं मोक्षं कथं गता ॥२९॥


श्रीनारद उवाच -
बलियज्ञे वामनस्य दृष्ट्वा रूपमतः परम् ।
बलिकन्या रत्‍नमाला पुत्रस्नेहं चकार ह ॥३०॥
एतादृशो यदि भवेद्‌बालस्तं हि शुचिस्मितम् ।
पाययामि स्तनं तेन प्रसन्नं मे मनस्तदा ॥३१॥
बलेः परमभक्तस्य सुतायै वामनो हरिः ।
मनोरथस्तु ते भूयान् मनस्यपि वरं ददौ ॥३२॥
यः पूतनामोक्षमिमं शृणोति
कृष्णस्य देवस्य परात्परस्य ।
भक्तिर्भवेत्प्रेमयुतापि तस्य
त्रिवर्गशुद्धिः किमु मैथिलेंद्र ॥३४॥

श्रीगोपियाँ बोलीं- मेरे लाल ! श्रीकृष्ण तेरे सिरकी रक्षा करें और भगवान् वैकुण्ठ कण्ठकी। श्वेतद्वीप के स्वामी दोनों कानों की, यज्ञरूपधारी श्रीहरि नासिका की, भगवान् नृसिंह दोनों नेत्रों की, दशरथ- नन्दन श्रीराम जिह्वा की और नर-नारायण ऋषि तेरे अधरों की रक्षा करें ।। १५-१६ ॥     

 

साक्षात् श्रीहरिके कलावतार सनक सनन्दन आदि चारों महर्षि तेरे दोनों कपोलोंकी रक्षा करें। भगवान् श्वेतवाराह तेरे भालदेशकी तथा नारद दोनों भ्रूलताओंकी रक्षा करें। भगवान् कपिल तेरी ठोढ़ीको और दत्तात्रेय तेरे वक्षःस्थलको सुरक्षित रखें। भगवान् ऋषभ तेरे दोनों कंधोंकी और मत्स्य- भगवान् तेरे दोनों हाथोंकी रक्षा करें ।। १७-१८ ॥    

पृथुल-पराक्रमी राजा पृथु सदा तेरे बाहुदण्डोंको सुरक्षित रखें। भगवान् कच्छप उदरको और धन्वन्तरि तेरी नाभिकी रक्षा करें। मोहिनी रूपधारी भगवान् तेरे गुह्यदेशको और वामन तेरी कटिको हानिसे बचायें । परशुरामजी तेरे पृष्ठभागकी और बादरायण व्यासजी तेरी दोनों जाँघोंकी रक्षा करें ।। १९-२० ॥     

बलभद्र दोनों घुटनोंकी और बुद्ध- देव तेरी पिंडलियोंकी रक्षा करें। धर्मपालक भगवान् कल्कि गुल्फोंसहित तेरे दोनों पैरोंको सकुशल रखें। यह सबकी रक्षा करनेवाला परम दिव्य 'श्रीकृष्ण- कवच' है। इसका उपदेश भगवान् विष्णुने अपने नाभि-कमलमें विद्यमान ब्रह्माजीको दिया था ।। २१-२२ ॥     

ब्रह्माजी ने शम्भु को शम्भु ने दुर्वासा को और दुर्वासा ने नन्द – मन्दिर में आकर श्रीयशोदाजी को इसका उपदेश दिया था । इस कवचके द्वारा गोपियोंसहित श्रीयशोदा- ने नन्दनन्दनकी रक्षा करके उन्हें अपना स्तन पिलाया और ब्राह्मणों को प्रचुर धन दिया  ॥ २३ – २४ ॥

उसी समय नन्द आदि गोप मथुरापुरी से गोकुल में लौट आये। पूतना के भयानक शरीर को देखकर वे सब- के-सब भयसे व्याकुल हो गये। गोपों ने कुठारों से उसके शरीर को काट-काटकर यमुनाजी के किनारे कई चिताएँ बनायीं और उसका दाह संस्कार किया । पूतना का शरीर परम पवित्र हो गया था। जलाने पर उससे जो धुआँ निकला, उसमें इलाइची - लवङ्ग, चन्दन, तगर और अगर की सुगन्ध भरी हुई थी। अहो ! जिन पतित- पावन ने पूतना को मोक्षगति प्रदान की, उन श्रीकृष्ण को छोड़कर हम यहाँ किसकी शरण में जायँ ।। २५-२८ ॥

बहुलाश्व ने पूछा- देवर्षे ! यह बालघातिनी राक्षसी पूतना पूर्वजन्ममें कौन थी ? इसके स्तनमें विष लगा हुआ था तथा उसके भीत रका भाव भी दूषित ही था; तथापि इसे उत्तम मोक्ष की प्राप्ति कैसे हुई ? ॥ २९ ॥

श्रीनारदजी बोले- पूर्वकाल में राजा बलि के यज्ञ में भगवान् वामन के परम उत्तम रूप को देखकर बलि-कन्या रत्नमाला ने उनके प्रति पुत्रोचित स्नेह किया था। उसने मन-ही-मन यह संकल्प किया था कि 'यदि मेरे भी ऐसा ही बालक उत्पन्न हो और उस पवित्र मुसकानवाले शिशुको मैं अपना स्तन पिला सकूँ तो उससे मेरा चित्त प्रसन्न हो जायगा ।' बलि भगवान्‌के परम भक्त हैं, अतः उनकी पुत्री को वामन- भगवान् ने यह वर दिया कि 'तेरे मनमें जो मनोरथ है, वह पूर्ण हो ' ॥ ३०-३२ ॥

वही रत्नमाला द्वापरके अन्तमें पूतना नामसे विख्यात राक्षसी हुई। भगवान् श्रीकृष्णके स्पर्शसे उसका उत्तम मनोरथ सफल हो गया। मिथिलानरेश ! जो मनुष्य परात्पर भगवान् श्रीकृष्णके इस पूतनोद्धारसम्बन्धी प्रसङ्गको सुनता है, उसको भगवान्‌ की प्रेमपूर्ण भक्ति प्राप्त हो जाती है; फिर उसे धर्म, अर्थ और कामरूप त्रिवर्गकी उपलब्धि हो जाय इसके लिये तो कहना ही क्या है । ३३ - ३४ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें गोलोकखण्डके अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'पूतना-मोक्ष' नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध तेरहवां अध्याय..(पोस्ट..०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥  श्रीमद्भागवतमहापुराण  प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५) विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और  गान्धारीका वनमे...