गुरुवार, 2 मई 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट 04)

 

शकटभञ्जन; उत्कच और तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन

 

श्रीयशोदोवाच -
न जानामि कथं बालो भारभूतो गिरींद्रवत् ।
तस्मान्मया कृतो भूमौ चक्रवाते महाभये ॥४०॥


गोप्य ऊचुः -
मा मृषा वद कल्याणि हे यशोदे गतव्यथे ।
अयं दुग्धमुखो बालो लघुं कुसुमतूलवत् ॥४१॥


श्रीनारद उवाच -
तदा गोप्योऽथ गोपाश्च नंदाद्या आगते शिशौ ।
अतीव मोदं संप्रापुर्वदन्तः कुशलं जनैः ॥४२॥
यशोदा बालकं नीत्वा पाययित्वा स्तनं मुहुः ।
आघ्रायोरसि वस्त्रेण रोहिणीं प्राह मोहिता ॥४३॥


श्रीयशोदोवाच -
एको दैवेन दत्तोऽयं न पुत्रा बहवश्च मे ।
तस्यापि बहवोऽरिष्टा आगच्छन्ति क्षणेन वै ॥४४॥
अद्य मृत्युमुखान्मुक्तो भविष्यत्किमतः परम् ।
किं करोमि क्व गच्छामि कुत्र वासो भवेदतः ॥४५॥
वज्रसाराश्च ये दैत्या निर्दया घोरदर्शनाः ।
वैरं कुर्वन्ति मे बाले दैव दैव कुतः सुखम् ॥४६॥
धनं देहो गृहं सौधो रत्‍नानि विविधानि च ।
सर्वेषां तु ह्यवशं वै भूयान्मे कुशली शिशुः ॥४७॥
हरेरर्चां दानमिष्टं पूर्तं देवालयं शतम् ।
करिष्यामि तदा बालोऽरिष्टेभ्यो विजयी यदा ॥४८॥
एकबालेन मे सौख्यमन्धयष्टिरिव प्रिये ।
बालं नीत्वा गमिष्यामि देशे रोहिणि निर्भये ॥४९॥


श्रीनारद उवाच -
तदैव विप्रा विद्वांस आगता नंदमंदिरम् ।
यशोदया च नंदेन पूजिता आसनस्थिताः ॥५०॥


ब्राह्मणा ऊचुः -
मा शोचं कुरु हे नंद हे यशोदे व्रजेश्वरी ।
करिष्यामः शिशो रक्षां चिरंजीवी भवेदयम् ॥५१॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा द्विजमुख्यास्ते कुशाग्रैर्नवपल्लवैः ।
पवित्रकलशैस्तोयैर्ऋग्यजुःसामजैः स्तवैः ॥५२॥
परैः स्वस्त्ययनैर्यज्ञं कारयित्वा विधानतः ।
अग्निं सम्पूज्यविधिवद्‌रक्षां विदधिरे शिशोः ॥५३॥

यशोदाजीने कहा- बहिनो ! समझमें नहीं आता कि उस समय मेरा लाला क्यों गिरिराजके समान भारी लगने लगा था, इसीलिये उस महा- भयंकर बवंडरमें भी मैंने इसे गोदीसे उतारकर भूमिपर रख दिया ॥ ४० ॥

गोपियाँ कहने लगीं-यशोदाजी ! रहने दो, झूठ न बोलो। कल्याणी ! तुम्हारे दिलमें जरा भी दया- माया नहीं है । यह दुधमुँहा बच्चा तो फूल और रूई के समान हलका है ॥ ४१ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं— बालक श्रीकृष्णके घर आ जानेपर नन्द आदि गोप और गोपियाँ – सभीको बड़ा हर्ष हुआ। वे सब लोगोंके साथ उसकी कुशल- वार्ता कहने लगे । यशोदाजी बालक श्रीकृष्णको उठा ले गयीं और बार-बार स्तन्य पिलाकर, मस्तक सूँघकर और आँचलसे छातीमें छिपाकर छोह-मोहके वशीभूत हो, रोहिणीसे कहने लगीं ॥। ४२-४३ ॥

श्रीयशोदाजी बोलीं- बहिन ! मुझे दैवने यह एक ही पुत्र दिया है, मेरे बहुत-से पुत्र नहीं हैं; इस एक पुत्रपर भी क्षणभरमें अनेक प्रकारके अरिष्ट आते रहते हैं। आज यह मौतके मुँहसे बचा है। इससे अधिक उत्पात और क्या होगा ? अतः अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा अब और कहाँ रहनेकी व्यवस्था करूँ ? धन, शरीर, मकान, अटारी और विविध प्रकारके रत्न – इन सबसे बढ़कर मेरे लिये यह एक ही बात है कि मेरा यह बालक कुशलसे रहे ।। ४४-४७ ।।

यदि मेरा यह बच्चा अरिष्टोंपर विजयी हो जाय तो मैं भगवान् श्रीहरिकी पूजा, दान एवं यज्ञ करूँगी; तड़ागवापी आदिका निर्माण करूँगी और सैकड़ों मन्दिर बनवा दूँगी। प्रिय रोहिणी ! जैसे अंधेके लिये लाठी ही सहारा है, उसी प्रकार मेरा सारा सुख इस बालकसे ही है। अतः बहिन ! अब मैं अपने लालाको उस स्थानपर ले जाऊँगी, जहाँ कोई भय न हो ॥ ४८-४९ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उसी समय नन्दमन्दिरमें बहुत-से विद्वान् ब्राह्मण पधारे और उत्तम आसनपर बैठे । नन्द और यशोदाजीने उन सबका विधिवत् पूजन किया ॥ ५० ॥

 

ब्राह्मण बोले—[व्रजपति]  नन्दजी  तथा व्रजेश्वरी यशोदे ! तुम चिन्ता मत करो। हम इस बालक की [कवच आदि से] रक्षा करेंगे, जिससे यह दीर्घजीवी हो जाय ॥ ५१ ॥

 

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने कुशाग्रों, नूतन पल्लवों, पवित्र कलशों, शुद्ध जल तथा ऋक्, यजु एवं सामवेदके स्तोत्रों और उत्तम स्वस्तिवाचन आदिके द्वारा विधि-विधान से यज्ञ करवाकर अग्निकी पूजा करायी । तब उन्होंने बालक श्रीकृष्णकी विधिवत् रक्षा की ( रक्षार्थ निम्नाङ्कित कवच पढ़ा) । ५२-५३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से



1 टिप्पणी:

  1. 💐💖🌷🥀जय श्री हरि:🙏🙏
    ॐ श्री परमात्मने नमः
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण 🙏 जय हो बाल मुकुंद कृष्ण गोविंद

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