शिवसंकल्पसूक्त
(कल्याणसूक्त)
[मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है, परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है; क्योंकि मन सभीको नियन्त्रित
करनेवाला, विलक्षण शक्तिसम्पन्न तथा सर्वाधिक प्रभावशाली है।
इसकी गति सर्वत्र है, सभी कर्मेन्द्रियाँ-ज्ञानेन्द्रियाँ, सुख-दुःख मनके
ही अधीन हैं। स्पष्ट है कि व्यक्तिका अभ्युदय मनके शुभ संकल्पयुक्त होनेपर निर्भर करता
है, यही प्रार्थना मन्त्रद्रष्टा ऋषिने इस सूक्तमें व्यक्त की
है। यह सूक्त शुक्लयजुर्वेदके ३४वें अध्यायमें पठित है। इसमें छ: मन्त्र हैं। यहाँ सूक्तको भावानुवाद के साथ दिया जा रहा है-]
यजाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवैति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥१॥
येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः।
यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥२॥
यत्प्रज्ञानमुत चेतो धृतिश्च यज्योतिरन्तरमृतं प्रजासु।
यस्मान्न ऋते किं चन कर्म क्रियते तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
।।३।।
येनेदं भूतं भुवनं भविष्यत् परिगृहीतममृतेन सर्वम्।
येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥४॥
यस्मिन्नृचः साम यजूᳬषि यस्मिन्
प्रतिष्ठिता रथनाभाविवाराः।
यस्मिंश्चित्तᳬसर्वमोतं
प्रजानां तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ॥ ५॥ सुषारथिरश्वानिव यन्यनुष्यान्नेनीयतेऽभीशुभिर्वाजिन
इव।
हृत्प्रतिष्ठं यदजिरं जविष्ठं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु
॥ ६ ॥
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जो
जागते हुए पुरुष का [मन] दूर चला जाता है और सोते हुए पुरुषका वैसे ही निकट
आ जाता है, जो परमात्माके साक्षात्कार का प्रधान साधन है;
जो भूत, भविष्य, वर्तमान,
संनिकृष्ट एवं व्यवहित पदार्थोंका एकमात्र ज्ञाता है तथा जो विषयोंका
ज्ञान प्राप्त करनेवाले श्रोत्र आदि इन्द्रियोंका एकमात्र प्रकाशक और प्रवर्तक है,
मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥१॥
कर्मनिष्ठ
एवं धीर विद्वान् जिसके द्वारा यज्ञिय पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करके यज्ञमें कर्मोंका
विस्तार करते हैं,
जो इन्द्रियोंका पूर्वज अथवा आत्मस्वरूप है, जो
पूज्य है और समस्त प्रजाके हृदयमें निवास करता है, मेरा वह मन
कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥२॥
जो
विशेष प्रकारके ज्ञानका कारण है, जो सामान्य ज्ञानका कारण है,
जो धैर्यरूप है, जो समस्त प्रजा के हृदयमें रहकर
उनकी समस्त इन्द्रियोंको प्रकाशित करता है, जो स्थूल शरीरकी मृत्यु
होनेपर भी अमर रहता है और जिसके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो ॥३॥
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जिस
अमृतस्वरूप मनके द्वारा भूत, वर्तमान और भविष्यत्सम्बन्धी सभी वस्तुएँ
ग्रहण की जाती हैं तथा जिसके द्वारा सात होतावाला अग्निष्टोम यज्ञ सम्पन्न होता है,
मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥४॥
जिस
मनमें रथचक्रकी नाभिमें अरोंके समान ऋग्वेद और सामवेद प्रतिष्ठित हैं तथा जिसमें यजुर्वेद
प्रतिष्ठित है,
जिसमें प्रजाका सब पदार्थों से सम्बन्ध रखनेवाला सम्पूर्ण ज्ञान ओतप्रोत
है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त हो॥५॥
श्रेष्ठ
सारथि जैसे घोड़ों का संचालन और रासके द्वारा घोड़ोंका नियन्त्रण करता है, वैसे ही जो प्राणियों का संचालन तथा नियन्त्रण करनेवाला है, जो हृदयमें रहता है, जो कभी बूढ़ा नहीं होता और जो अत्यन्त
वेगवान् है, मेरा वह मन कल्याणकारी भगवत्सम्बन्धी संकल्पसे युक्त
हो ॥६॥
… ……….[शुक्लयजुर्वेद अ० ३४]
………......गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित वैदिक सूक्त-संग्रह पुस्तक (कोड 1885) से