॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)
विदुरजी के उपदेश से धृतराष्ट्र और
गान्धारीका वनमें जाना
कञ्चित् कालमथावात्सीत् सत्कृतो देववत्सुखम् ।
भ्रातुर्ज्येष्ठस्य श्रेयस्कृत् सर्वेषां सुखमावहन् ॥ १४ ॥
अबिभ्रदर्यमा दण्डं यथावत् अघकारिषु ।
यावद् दधार शूद्रत्वं शापात् वर्षशतं यमः ॥ १५ ॥
युधिष्ठिरो लब्धराज्यो दृष्ट्वा पौत्रं कुलन्धरम् ।
भ्रातृभिर्लोकपालाभैः मुमुदे परया श्रिया ॥ १६ ॥
एवं गृहेषु सक्तानां प्रमत्तानां तदीहया ।
अत्यक्रामत् अविज्ञातः कालः परमदुस्तरः ॥ १७ ॥
विदुरस्तत् अभिप्रेत्य धृतराष्ट्रं अभाषत ।
राजन् निर्गम्यतां शीघ्रं पश्येदं भयमागतम् ॥ १८ ॥
प्रतिक्रिया न यस्येह कुतश्चित् कर्हिचित् प्रभो ।
स एष भगवान् कालः सर्वेषां नः समागतः ॥ १९ ॥
पाण्डव विदुरजी का देवता के समान सेवा-सत्कार करते थे। वे कुछ दिनों तक अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र की कल्याण-कामना से सब लोगोंको प्रसन्न करते हुए सुखपूर्वक हस्तिनापुरमें ही रहे ॥ १४ ॥ विदुरजी तो साक्षात् धर्मराज थे, माण्डव्य ऋषिके शापसे ये सौ वर्षके लिये शूद्र बन गये थे [*]। इतने दिनों तक यमराज के पदपर अर्यमा थे और वही पापियों को उचित दण्ड देते थे ॥ १५ ॥ राज्य प्राप्त हो जानेपर अपने लोकपालों-सरीखे भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर वंशधर परीक्षित् को देखकर अपनी अतुल सम्पत्तिसे आनन्दित रहने लगे ॥ १६ ॥ इस प्रकार पाण्डव गृहस्थके काम-धंधोंमें रम गये और उन्हींके पीछे एक प्रकारसे यह बात भूल गये कि अनजानमें ही हमारा जीवन मृत्युकी ओर जा रहा है; अब देखते-देखते उनके सामने वह समय आ पहुँचा जिसे कोई टाल नहीं सकता ॥ १७ ॥
परन्तु विदुरजीने कालकी गति जानकर अपने बड़े भाई धृतराष्ट्रसे कहा—‘महाराज ! देखिये, अब बड़ा भयंकर समय आ गया है, झटपट यहाँसे निकल चलिये ॥ १८ ॥ हम सब लोगोंके सिरपर वह सर्वसमर्थ काल मँडराने लगा है, जिसके टालनेका कहीं भी कोई उपाय नहीं है ॥ १९ ॥
[*] एक समय किसी राजा के अनुचरों ने कुछ चोरों को माण्डव्य ऋषि के आश्रम पर पकड़ा। उन्होंने समझा कि ऋषि भी चोरी में शामिल होंगे। अत: वे भी पकड़ लिये गये और राजाज्ञासे सबके साथ उनको भी सूलीपर चढ़ा दिया गया। राजाको यह पता लगते ही कि ये महात्मा हैं—ऋषिको सूलीसे उतरवा दिया और हाथ जोडक़र उनसे अपना अपराध क्षमा कराया। माण्डव्यजीने यमराजके पास जाकर पूछा—‘मुझे किस पापके फलस्वरूप यह दण्ड मिला ?’ यमराजने बताया कि ‘आपने लडक़पनमें एक टिड्डीको कुशकी नोकसे छेद दिया था, इसीलिये ऐसा हुआ।’ इसपर मुनिने कहा—‘मैंने अज्ञानवश ऐसा किया होगा, उस छोटेसे अपराधके लिये तुमने मुझे बड़ा कठोर दण्ड दिया। इसलिये तुम सौ वर्षतक शूद्रयोनिमें रहोगे।’ माण्डव्यजी के इस शाप से ही यमराज ने विदुर के रूप में अवतार लिया था।
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्ट संस्करण) पुस्तक कोड 1535 से
जय श्री हरि
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जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नारायण नारायण हरि: ‼️ हरि: ‼️