श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
चौदहवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
शकटभञ्जन; उत्कच और
तृणावर्त का उद्धार; दोनों के पूर्वजन्मों का वर्णन
इत्येवं
कथितं दिव्यं श्रीकृष्णचरितं वरम् ।
यं शृणोति नतो भक्त्या स कृतार्थो न संशयः ॥१॥
श्रीशौनक उवाच -
सुधाखंडात्परं मिष्टं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
श्रुत्वा त्वन्मुखतः साक्षात्कृतार्थाः स्मो वयं मुने ॥२॥
श्रीकृष्णभक्तः शांतात्मा बहुलाश्वः सतां वरः ।
अथो मुनिं किं पप्रच्छ तन्मे ब्रूहि तपोधन ॥३॥
श्रीगर्ग उवाच -
अथ राजा मैथिलेंद्रो हर्षितः प्रेमविह्वलः ।
नारदं प्राह धर्मात्मा परिपूर्णतमं स्मरन् ॥४॥
श्रीबहुलाश्व उवाच -
धन्योऽहं च कृतार्थोऽहं भवता भूरिकर्मणा ।
संगो भगवदीयानां दुर्लभो दुर्घटोऽस्ति हि ॥५॥
श्रीकृष्णस्त्वर्भकः साक्षादद्भुतो भक्तवत्सलः ।
अग्रे चकार किं चित्रं चरित्रं वद मे मुने ॥६॥
श्रीनारद उवाच -
साधु पृष्टं त्वया राजन् भवता कृष्णधर्मिणा ।
संगमः खलु साधूनां सर्वेषां वितनोति शम् ॥७॥
एकदा कृष्णजन्मर्क्षे यशोदा नंदगेहिनी ।
गोपीगोपान्समाहूय मंगलं चाकरोद्द्विजैः ॥८॥
रक्तांबरं कनकभूषणभूषिताङ्गं
बालं प्रगृह्य कलितांजनपद्मनेत्रम् ।
श्यामं स्फुरद्धरिनखावृतचंद्रहारं
देवान् प्रणम्य सुधनं प्रददौ द्विजेभ्यः ॥९॥
प्रेंखे निधाय निजमात्मजमाशु गोपी
संपूज्य मंगलदिने प्रतिगोपिकास्ताः ।
नैवाशृणोत्सुरुदितस्य सुतस्य शब्दं
गोपेषु मंगलगृहेषु गतागतेषु ॥१०॥
तत्रैव कंसखलनोदित उत्कचाख्यो
दैत्यः प्रभंजनतनुः शकटं स एत्य ।
बालस्य मूर्ध्नि परिपातयितुं प्रवृत्तः
कृष्णोऽपि तं किल तताड पदारुणेन ॥११॥
चूर्ण गतेथ शकटे पतिते च दैत्ये
त्यक्त्वा प्रभंजनतनुं विमलो बभूव ।
नत्वा हरिं शतहयेन रथेन युक्तो
गोलोकधाम निजलोकमलं जगाम ॥१२॥
नंदादयो व्रजजना व्रजगोपिकाश्च
सर्वे समेत्य युगपत्पृथुकान् तदाहुः ।
एष स्वयं च पतितः शकटः कथं हि
जानीथ हे व्रजसुताः सुगताश्च यूयम् ॥१३॥
श्रीगर्गजीने
कहा- शौनक ! इस प्रकार मैंने भगवान् श्रीकृष्णके सर्वोत्कृष्ट दिव्य चरित्रका
वर्णन किया। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका श्रवण करता है,
वह कृतार्थ है, उसे परम पुरुषार्थ प्राप्त हो
गया—इसमें संशय नहीं है ॥ १ ॥
श्रीशौनकजी
बोले- मुने ! भगवान् श्रीकृष्ण- का मङ्गलमय चरित्र अमृत रससे तैयार की हुई परम
मधुर खाँड़ है। इसे साक्षात् आपके मुखसे सुनकर हम कृतार्थ हो गये। तपोधन !
संतोंमें श्रेष्ठ राजा बहुलाश्व भगवान् श्रीकृष्णके परम भक्त थे । उनके मनमें सदा
शान्ति बनी रहती थी। इसके बाद उन्होंने मुनिवर नारदजीसे कौन-सी बात पूछी,
यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ॥ २-३ ॥
श्रीगर्गजीने
कहा— शौनक ! तदनन्तर मिथिलाके महाराज बहुलाश्व हर्षसे उत्फुल्ल और प्रेमसे विह्वल
हो गये। फिर उन धर्मात्मा नरेशने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए
नारदजीसे कहा ॥ ४ ॥
राजा
बहुलाश्व बोले- मुने ! आपने भूरि-भूरि पुण्यकर्म किये हैं। आपके सम्पर्कसे मैं
धन्य और कृतार्थ हो गया; क्योंकि भगवान्के
भक्तोंका सङ्ग दुर्लभ और दुस्साध्य है । मुने! अद्भुत भक्तवत्सल साक्षात् भगवान्
श्रीकृष्णने बाल्यावस्थामें आगे चलकर कौन-सी विचित्र लीला की, यह मुझे बताइये ॥ ५-६ ।।
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! तुम श्रीकृष्ण- सम्मत धर्मके पालक हो,
तुमने यह बहुत उत्तम प्रश्न किया है। निश्चय ही संत पुरुषोंका सङ्ग
सबके कल्याणका विस्तार करनेवाला होता है ॥ ७ ॥
एक
दिन,
जब भगवान् श्रीकृष्णके जन्मका नक्षत्र प्राप्त हुआ था, नन्दरानी श्रीयशोदाजीने गोप और गोपियोंको अपने यहाँ बुलाकर ब्राह्मणोंके
बताये अनुसार मङ्गल-विधान सम्पन्न किया। उस समय श्याम सलोने बालक श्रीकृष्णको लाल
रंगका वस्त्र पहनाया गया। अङ्गोंको सुवर्णमय भूषणोंसे भूषित किया गया। उन्हें
गोदमें लेकर मैयाने उनके विकसित कमल-सदृश कमनीय नेत्रोंमें काजल लगाया और गलेमें
बघनखायुक्त चन्द्रहार धारण कराया तथा देवताओंको नमस्कार करके ब्राह्मणोंके लिये
उत्तम धनका दान दिया ॥ ८- ९ ॥
तदनन्तर
गोपी यशोदाजीने शीघ्र ही अपने लालाको पालनेपर लिटा दिया और मङ्गल- दिवसपर
गोपियोंमेंसे प्रत्येकका अलग-अलग स्वागत किया । उस मङ्गल-भवनमें उस दिन बहुत-से
गोपोंका आना-जाना लगा रहा, अतः उन्हींके
सत्कारमें व्यस्त रहनेके कारण वे अपने रोते हुए बालकका रुदन - शब्द सुन न सकीं।
उसी क्षण पापात्मा कंसका भेजा हुआ एक राक्षस आया। उसका नाम 'उत्कच'
था। वह वायुमय शरीर धारण किये रहता था। वह आकर छकड़ेपर ( जिसपर
बड़े-बड़े वजनदार दही-दूधके मटके रखे जाते थे) बैठ गया और बालकके मस्तक- पर उस
शकटको उलटकर गिरानेके प्रयासमें लगा। इतनेमें ही श्रीकृष्णने रोते-रोते ही उस
शकटपर पैरसे प्रहार कर दिया। फिर तो वह बड़ा छकड़ा टूक-टूक हो गया और दैत्य मरकर
नीचे आ गिरा। ऐसी स्थितिमें वह वायुमय शरीर छोड़कर निर्मल दिव्य देहसे सम्पन्न हो
गया और भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके सौ घोड़ोंसे जुते हुए दिव्य विमानपर बैठकर
भगवान् के निजी परमधाम गोलोकको चला गया ॥ १०- १२ ॥
उस
समय व्रजवासी नन्द आदि गोप तथा गोपियाँ सब-के-सब एक साथ वहाँ आ गये और बालकोंसे
पूछने लगे- 'व्रजकुमारो ! यह शकट अपने आप ही
गिर पड़ा या किसीने इसे गिराया है? कैसे इसकी यह दशा हुई है,
तुम जानते हो तो बताओ ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
🌼💖🌺🌾जय श्री हरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे
हे नाथ नारायण वासुदेव