रविवार, 5 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ययाति चरित्र


तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन् ।

प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥ १८ ॥

दत्त्वा स्वमुत्तरं वासः तस्यै राजा विवाससे ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं उज्जहार दयापरः ॥ १९ ॥

तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।

राजन् त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय ॥ २० ॥

हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे ।

एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः ।

यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम ॥ २१ ॥

न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।

कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा ॥ २२ ॥

ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः ।

मनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः ॥ २३ ॥

गते राजनि सा धीरे तत्र स्म रुदती पितुः ।

न्यवेदयत् ततः सर्वं उक्तं शर्मिष्ठया कृतम् ॥ २४ ॥

दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् ।

स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥ २५ ॥

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीक विवक्षितम् ।

गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि ॥ २६ ॥

क्षणार्ध मन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः ।

कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ २७ ॥

तथेति अवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम् ।

पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥ २८ ॥


शर्मिष्ठा के चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कूएँमें पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देख लिया ॥ १८ ॥ उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर निकाल लिया ॥ १९ ॥ देवयानीने प्रेमभरी वाणीसे वीर ययातिसे कहा—‘वीर- शिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ ! कूएँ में गिर जानेपर मुझे तो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान्‌का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है ॥ २०-२१ ॥ वीरश्रेष्ठ ! पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दे दिया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’[*] ॥ २२ ॥ ययाति को शास्त्रप्रतिकूल होनेके कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परंतु उन्होंने देखा कि प्रारब्धने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है, और मेरा मन भी इसकी ओर ङ्क्षखच रहा है। इसलिये ययातिने उसकी बात मान ली ॥ २३ ॥
वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्यके पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २४ ॥ शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान्‌ शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अत: अपनी कन्या देवयानीको साथ लेकर वे नगरसे निकल पड़े ॥ २५ ॥ जब वृषपर्वाको यह मालूम हुआ, तो उनके मनमें यह शङ्का हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओंकी जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करनेके लिये पीछे-पीछे गये और रास्तेमें उनके चरणोंपर सिरके बल गिर गये ॥ २६ ॥ भगवान्‌ शुक्राचार्यजीका क्रोध तो आधे ही क्षणका था। उन्होंने वृषपर्वासे कहा—‘राजन् ! मैं अपनी पुत्री देवयानीको नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलनेमें कोई आपत्ति न होगी॥ २७ ॥ जब वृषपर्वाने ठीक हैकहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानीने अपने मनकी बात कही। उसने कहा—‘पिताजी मुझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियोंके साथ मेरी सेवाके लिये वहीं चले॥ २८ ॥

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[*] बृहस्पतिजी का पुत्र कच शुक्राचार्यजी से मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़ता था। अध्ययन समाप्त करके जब वह अपने घर जाने लगा तो देवयानीने उसे वरण करना चाहा। परंतु गुरुपुत्री होनेके कारण कच ने उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इसपर देवयानी ने उसे शाप दे दिया कि तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या निष्फल हो जाय।कच ने भी उसे शाप दिया कि कोई भी ब्राह्मण तुम्हें पत्नीरूप में स्वीकार न करेगा।



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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