॥ ॐ
श्रीपरमात्मने नम:॥
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ २२॥
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ोंको छोड़कर
दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाता
है।
व्याख्या—
जैसे कपड़े बदलनेसे मनुष्य बदल नहीं
जाता, ऐसे
ही अनेक शरीरोंको धारण करने और छोड़नेपर भी शरीरी वही-का-वही रहता है,
बदलता
नहीं । तात्पर्य है कि शरीरके परिवर्तन
तथा नाशसे स्वयंका परिवर्तन तथा नाश नहीं होता ।
यह सबका अनुभव है कि हम रहते हैं, बचपन
आता और चला जाता है । हम रहते हैं, जवानी
आती और चली जाती है । हम रहते हैं, बुढ़ापा
आता और चला जाता है । वास्तवमें न बचपन है,
न
जवानी है, न
बुढ़ापा है, न
मृत्यु है, प्रत्युत
केवल हमारी सत्ता ही है ।
ॐ
तत्सत् !
शेष
आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर
द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🕉️🥀🌺जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय