॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान् वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
एवं
स निश्चित्य रिपोः शरीरं
आधावतो निर्विविशेऽसुरेन्द्र ।
श्वासानिलान्तर्हितसूक्ष्मदेहः
तत्प्राणरन्ध्रेण विविग्नचेताः ॥ १० ॥
स
तन्निकेतं परिमृश्य
शून्यमपश्यमानः कुपितो ननाद ।
क्ष्मां
द्यां दिशः खं विवरान्समुद्रान्
विष्णुं विचिन्वन् न ददर्श वीरः ॥ ११ ॥
अपश्यन्
इति होवाच मयान्विष्टमिदं जगत् ।
भ्रातृहा
मे गतो नूनं यतो नावर्तते पुमान् ॥ १२ ॥
वैरानुबन्ध
एतावान् आमृत्योरिह देहिनाम् ।
अज्ञानप्रभवो
मन्युः अहंमानोपबृंहितः ॥ १३ ॥
पिता
प्रह्लादपुत्रस्ते तद्विद्वान् द्विजवत्सलः ।
स्वमायुर्द्विजलिंगेभ्यो
देवेभ्योऽदात् स याचितः ॥ १४ ॥
भवान्
आचरितान् धर्मान् आस्थितो गृहमेधिभिः ।
ब्राह्मणैः
पूर्वजैः शूरैः अन्यैश्चोद्दामकीर्तिभिः ॥ १५ ॥
तस्मात्
त्वत्तो महीमीषद् वृणेऽहं वरदर्षभात् ।
पदानि
त्रीणि दैत्येन्द्र सम्मितानि पदा मम ॥ १६ ॥
न
अन्यत् ते कामये राजन् वदान्यात् जगदीश्वरात् ।
नैनः
प्राप्नोति वै विद्वान् यावदर्थप्रतिग्रहः ॥ १७ ॥
असुरशिरोमणे ! जिस समय हिरण्यकशिपु उनपर झपट रहा था, उसी समय ऐसा निश्चय करके डरसे काँपते हुए विष्णुभगवान् ने
अपने शरीर को सूक्ष्म बना लिया और उसके प्राणों के द्वारा नासिकामें से होकर
हृदयमें जा बैठे ॥ १० ॥ हिरण्यकशिपु ने उनके लोकको भलीभाँति छान डाला, परंतु उनका कहीं पता न चला। इसपर क्रोधित होकर वह सिंहनाद
करने लगा। उस वीरने पृथ्वी,
स्वर्ग, दिशा, आकाश, पाताल और
समुद्र—सब कहीं विष्णुभगवान्को ढूँढ़ा, परंतु वे कहीं भी उसे दिखायी न दिये ॥ ११ ॥ उनको कहीं न
देखकर वह कहने लगा—मैंने सारा जगत् छान डाला, परंतु वह मिला नहीं। अवश्य ही वह भ्रातृघाती उस लोकमें चला गया, जहाँ जाकर फिर लौटना नहीं होता ॥ १२ ॥ बस, अब उससे वैरभाव रखनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वैर तो देहके साथ ही समाप्त हो जाता है। क्रोधका
कारण अज्ञान है और अहंकारसे उसकी वृद्धि होती है ॥ १३ ॥ राजन् ! आपके पिता
प्रह्लादनन्दन विरोचन बड़े ही ब्राह्मण भक्त थे। यहाँतक कि उनके शत्रु देवताओंने
ब्राह्मणोंका वेष बनाकर उनसे उनकी आयुका दान माँगा और उन्होंने ब्राह्मणोंके छलको
जानते हुए भी अपनी आयु दे डाली ॥ १४ ॥ आप भी उसी धर्मका आचरण करते हैं, जिसका शुक्राचार्य आदि गृहस्थ ब्राह्मण, आपके पूर्वज प्रह्लाद और दूसरे यशस्वी वीरोंने पालन किया है
॥ १५ ॥ दैत्येन्द्र ! आप मुँहमाँगी वस्तु देनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं। इसीसे मैं
आपसे थोड़ी-सी पृथ्वी—केवल अपने पैरोंसे तीन डग माँगता हूँ ॥ १६ ॥ माना कि आप
सारे जगत्के स्वामी और बड़े उदार हैं, फिर भी मैं आपसे इससे अधिक नहीं चाहता। विद्वान् पुरुषको केवल अपनी आवश्यकताके
अनुसार ही दान स्वीकार करना चाहिये। इससे वह प्रतिग्रहजन्य पापसे बच जाता है ॥ १७
॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌹💖🥀जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण