व्यवहार के विविध रूप
साधारण (विषयी) पुरुष, विवेकी (साधक) पुरुष और तत्त्वज्ञ (सिद्ध) पुरुष‒तीनोंके भाव अलग-अलग होते हैं । साधारण पुरुष संसारको सत् मानकर राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप व्यवहार करते हैं । इसके आगे विचारदृष्टिकी प्रधानतावाले विवेकी पुरुषका व्यवहार राग-द्वेषरहित एवं शास्त्रविधिके अनुसार होता है[*] । विवेकदृष्टिकी प्रधानता रहनेके कारण‒किंचित राग-द्वेष रहनेपर भी उसका (विवेकदृष्टि-प्रधान साधकका) व्यवहार राग-द्वेषपूर्वक नहीं होता अर्थात् वह राग-द्वेषके वशीभूत होकर व्यवहार नहीं करता[**] । उसमें राग-द्वेष बहुत कम‒नहींके बराबर रहते हैं । जितने अंशमें अविवेक रहता है, उतने ही अंशमें राग-द्वेष रहते हैं । जैसे-जैसे विवेक जाग्रत् होता जाता है, वैसे-वैसे राग-द्वेष कम होते चले जाते हैं और वैराग्य बढ़ता चला जाता है । वैराग्य बढ़नेसे बहुत सुख मिलता है; क्योंकि दुःख तो रागमें ही है[***] । पूर्ण विवेक जाग्रत् होनेपर राग-द्वेष पूर्णतः मिट जाते हैं । विवेकी पुरुषको संसारकी सत्ता दर्पणमें पड़े हुए प्रतिबिम्बके समान असत् दीखती है । इसके आगे तत्त्वदृष्टि प्राप्त होनेपर तत्त्वज्ञ पुरुष स्वप्नकी स्मृतिके समान संसारको देखता है । इसलिये बाहरसे व्यवहार समान होनेपर भी विवेकी और तत्त्वज्ञ पुरुषके भावोंमें अत्यन्त अन्तर रहता है ।
साधारण पुरुषमें इन्द्रियोंकी, साधक पुरुषमें विवेक-विचारकी और सिद्ध पुरुषमें स्वरूपकी प्रधानता रहती है । साधारण पुरुषके राग-द्वेष पत्थरपर पड़ी लकीरके समान (दृढ़) होते हैं । विवेकी पुरुषके राग-द्वेष आरम्भमें बालूपर पड़ी लकीरके समान एवं विवेककी पूर्णता होनेपर जलपर पड़ी लकीरके समान होते हैं । तत्त्वज्ञ पुरुषके राग-द्वेष आकाशमें पड़ी लकीरके समान (जिसमें लकीर खिंचती ही नहीं, केवल अँगुली दीखती है) होते हैं; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती ।
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[*] “तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ॥“
.........................(गीता १६ । २४)
‘तेरे लिये कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है । ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्र-विधिसे नियत कर्म ही करनेयोग्य है ।’
[**] “इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥“
......................(गीता ३ । ३४)
‘इन्द्रिय, इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके विषयमें राग और द्वेष व्यवस्थासे स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहिये; क्योंकि वे दोनों ही इसके कल्याण-मार्गमें विघ्र करनेवाले महान् शत्रु हैं ।’
[***] साधकको चाहिये कि वह इस साधनजन्य सुखमें सन्तोष अथवा सुखका भोग न करें भगवान् कहते हैं कि‒---
“तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसड्गेन चानघ ॥“
.........................(गीता १४ । ६)
‘हे निष्पाप अर्जुन ! उन तीनों गुणोंमें सत्त्वगुण निर्मल होनेके कारण प्रकाश करनेवाला और विकाररहित है । वह सुखके सम्बन्ध (भोग) से और ज्ञानके सम्बन्ध-(अभिमान-) से साधकको बाँधता है ।’
नारायण ! नारायण !!
(शेष आगामी पोस्ट में )
जय श्री हरि
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जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय