शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

तत्त्वज्ञान क्या है ? (आत्मज्ञान तथा परमात्मज्ञान)...पोस्ट 04


साधकको ‘सत्’ और ‘चित्’ (चेतन) की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिये । सत्‌का स्वरूप है‒सत्तामात्र और चित्‌का स्वरूप है‒ज्ञानमात्र । उत्पत्तिका आधार होनेसे यह ‘सत्ता’ (सत्) है तथा प्रतीतिका प्रकाशक होनेसे यह ‘ज्ञान’ (चित्) है । यह सत्ता और ज्ञान ही ‘चिन्मय सत्ता’ है, जो कि हमारा स्वरूप है । जैसे, सुषुप्तिमें अनुभव होता है कि ‘मैं बड़े सुखसे सोया अर्थात् मैं तो था ही’‒ यह ‘सत्ता’ है और ‘मुझे कुछ भी पता नहीं था’‒यह ‘ज्ञान’ है । तात्पर्य है कि सुषुप्तिमें अपनी सत्ता तथा अहम्‌के अभावका (मुझे कुछ भी पता नहीं था‒इसका) ज्ञान रहता है । जैसे, आँखसे सब वस्तुएँ दीखती हैं, पर आँखसे आँख नहीं दीखती; अतः यह कह सकते हैं कि जिससे सब वस्तुएँ दीखती हैं, वही आँख है । ऐसे ही जिसको अहम्‌के भाव और अभावका ज्ञान होता है, वही चिन्मय सत्ता (स्वरूप) है । उस चिन्मय सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता । चित् ही बुद्धिमें ज्ञान-रूपसे आता है और भौतिक जगत्‌में (नेत्रोंके सामने) प्रकाश-रूपसे आता है । बुद्धिमें जानना और न जानना रहता है तथा नेत्रोंके सामने प्रकाश और अँधेरा रहता है । जैसे सम्पूर्ण संसारकी स्थिति एक सत्ताके अन्तर्गत है, ऐसे ही सम्पूर्ण पढ़ना, सुनना, सीखना, समझना आदि एक ज्ञानके अन्तर्गत है । ये सत् और चित् सबके प्रत्यक्ष हैं, किसीसे भी छिपे हुए नहीं हैं । इनके सिवाय जो असत् है, वह ठहरता नहीं है और जो जड़ है, वह टिकता नहीं है । सत् और चित्‌का अभाव कभी विद्यमान नहीं है एवं असत् और जडका भाव कभी विद्यमान नहीं है । सत् और चित् सबसे पहले भी हैं, सबसे बादमें भी हैं और अभी भी ज्यों-के-त्यों हैं ।

जिनकी मान्यतामें कालकी सत्ता है, उनके लिये यह कहा जाता है कि परमात्मतत्त्व भूतमें भी है, भविष्यमें भी है और वर्तमानमें भी है । वास्तवमें न तो भूत है, न भविष्य है और न वर्तमान ही है, प्रत्युत एक परमात्मतत्त्व ही है । वह परमात्मतत्त्व कालका भी महाकाल है, कालका भी भक्षण करनेवाला है‒     
                   
(१)  ब्रह्म अगनि तन बीचमें, मथकर काढ़े कोय ।
       उलट कालको खात है हरिया गुरुगम होय ॥
 (२) नवग्रह चौसठ जोगिणी,  बावन बीर प्रजंत ।
      काल भक्ष सबको करै,    हरि शरणै डरपंत ॥
                                           .............. (करुणासागर ६४)

काल उसी को खाता है, जो पैदा हुआ है । जो पैदा ही नहीं हुआ, उसको काल कैसे खाये ? ऐसा वह परमात्मतत्त्व जीवमात्र को नित्यप्राप्त है । उस सर्वसमर्थ परमात्मतत्त्वमें यह सामर्थ्य नहीं है कि वह कभी किसीसे अलग हो जाय, कभी किसीको अप्राप्त हो जाय । वह नित्य-निरन्तर सबमें ज्यों-का-त्यों विद्यमान है, नित्यप्राप्त है । यह ‘परमात्मज्ञान’ है ।

नारायण ! नारायण !!

   (शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “तत्त्वज्ञान कैसे हो ?” पुस्तकसे


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