श्रीहरि :
भगवान्की
आवश्यकता का अनुभव करना
(पोस्ट १)
(पोस्ट १)
जब मनुष्य इस बातको जान लेता
है कि इतने बड़े संसारमें,
अनन्त ब्रह्माण्डोंमें कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही
अपना है, तब उसके भीतर भगवान्की आवश्यकताका अनुभव होता है ।
कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और
हम सदा उसके साथ रहें । जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों । ऐसी
वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब मनुष्यको भगवान्की आवश्यकता है, तो फिर भगवान् मिलते क्यों नहीं ? इसका कारण यह है कि मनुष्य भगवान्की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकताको भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्यमें ही सन्तोष कर लेता है । अगर वह भगवान्की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्की प्राप्तिमें देरी नहीं है । कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा ! वे तो सब देशमें सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए ।
शेष आगामी पोस्ट में.......
‒गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तक से
‒गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘लक्ष्य अब दूर नहीं !’ पुस्तक से
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