॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – पाँचवाँ
अध्याय..(पोस्ट१४)
हिरण्यकशिपु
के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न
तथेति
गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत्
धर्मो
ह्यस्योपदेष्टव्यो राज्ञां यो गृहमेधिनाम् ||५१||
धर्ममर्थं
च कामं च नितरां चानुपूर्वशः
प्रह्रादायोचतू
राजन्प्रश्रितावनताय च ||५२||
यथा
त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम्
न
साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ||५३||
हिरण्यकशिपु
ने ‘अच्छा, ठीक है कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और
कहा कि ‘इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’ ॥ ५१ ॥
युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमश: धर्म,
अर्थ और काम—इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा
देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे ॥ ५२ ॥ परंतु
गुरुओंकी वह शिक्षा प्रह्लादको अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ,
धर्म और कामकी ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगोंके लिये
है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषय- भोगोंमें रस ले रहे
हों ॥ ५३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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