गुरुवार, 27 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट४)

हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लादजी के वध का प्रयत्न

तथेति गुरुपुत्रोक्तमनुज्ञायेदमब्रवीत्
धर्मो ह्यस्योपदेष्टव्यो राज्ञां यो गृहमेधिनाम् ||५१||
धर्ममर्थं च कामं च नितरां चानुपूर्वशः
प्रह्रादायोचतू राजन्प्रश्रितावनताय च ||५२||
यथा त्रिवर्गं गुरुभिरात्मने उपशिक्षितम्
न साधु मेने तच्छिक्षां द्वन्द्वारामोपवर्णिताम् ||५३||

हिरण्यकशिपु ने अच्छा, ठीक है कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं॥ ५१ ॥ युधिष्ठिर ! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमश: धर्म, अर्थ और कामइन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे ॥ ५२ ॥ परंतु गुरुओंकी वह शिक्षा प्रह्लादको अच्छी न लगी। क्योंकि गुरुजी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और कामकी ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगोंके लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द्व और विषय- भोगोंमें रस ले रहे हों ॥ ५३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





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