॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०२)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
ततो
यतेत कुशलः क्षेमाय भवमाश्रितः ।
शरीरं
पौरुषं यावत् न विपद्येत पुष्कलम् ॥ ५ ॥
पुंसो
वर्षशतं ह्यायुः तदर्धं चाजितात्मनः ।
निष्फलं
यदसौ रात्र्यां शेतेऽन्धं प्रापितस्तमः ॥ ६ ॥
मुग्धस्य
बाल्ये कौमारे क्रीडतो याति विंशतिः ।
जरया
ग्रस्तदेहस्य यात्यकल्पस्य विंशतिः ॥ ७ ॥
दुरापूरेण
कामेन मोहेन च बलीयसा ।
शेषं
गृहेषु सक्तस्य प्रमत्तस्यापयाति हि ॥ ८ ॥
हमारे
सिरपर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर—जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है—जबतक
रोग-शोकादिग्रस्त होकर मृत्युके मुख में नहीं चला जाता, तभी तक
बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याणके लिये
प्रयत्न कर लेना चाहिये ॥ ५ ॥ मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी
इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा
हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण—अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं ॥ ६ ॥ बचपन में उन्हें अपने हित-अहित
का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे
खेल-कूदमें लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा
शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ
करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती ॥ ७ ॥ रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें
कभी न पूरी होनेवाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़
रखनेवाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव
इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची
आयु भी हाथ से निकल जाती है ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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