।। श्रीहरिः ।।
नाम-जपकी विधि (पोस्ट ०२)
हमें एक महात्मा मिले थे । उन्होंने
एक बात कही । प्रह्लादजी को इतना कष्ट क्यों पाना पड़ा ?
प्रह्लादजी ने अपना भजन प्रकट कर दिया । अगर वे प्रकट न करते तो
उनको इतना कष्ट क्यों पाना पडता ? इस वास्ते अपना भजन प्रकट
न करें । किसी को पता ही न होने दें कि यह भगवान् का भजन करता है । बहनों-माताओं
को चाहिये कि वे ऐसी गुप्तरीति से भगवान् के भजन में लग जायँ । देखो, गुप्तरीति से किया हुआ भजन बड़े महत्त्व का होता है । पाप भी गुप्त किये
हुए बड़े भयंकर होते हैं । भजन भी बड़ा लाभदायक होता है । गुप्त दिया हुआ दान भी बड़ा
लाभदायक है । गुप्त दान कौन-सा है ? घरवालों से छिपाकर देना
चोरी है, गुप्त दान नहीं है । गुप्त दान कौन-सा है ? जिसके घर में चला जाय, उसे पता नहीं चले कि कहाँ से
आया है ? किसने दिया है ? देनेवाले का
पता न लगे, यह गुप्त दान होता है । घरवालों से छिपाकर देना
चोरी है । चोरी का पाप होता है ।
एक बार सुबह के प्रवचन में मैंने कह
दिया कि गरीबों की सेवा करो । तो एक भाई बोले‒गरीबों की सेवा करते हैं तो गरीब तंग कर देते हैं महाराज ! तो मैंने कहा‒सेवा इस ढंगसे करो कि उन्हें मालूम न हो कि किसने सेवा की । वह तो आपकी
सेवा है, नहीं तो लोगों में झंडा फहराते हैं कि हम देते हैं,
देते हैं । भीड़ बहुत हो जायगी, लोग लूट लेते
हैं, तंग करते हैं । यह सेवा का भाव नहीं है । केवल वाह-वाह
लेनी है और कुछ नहीं है ।
भीतर का भाव हो जाय कि इनके घर कैसे
चीज पहुँचे ? किस तरहसे इनकी
सहायता हो जाय । कैसे गुप्त दिया जाय, तो उस दान का
माहात्म्य है । ऐसे ही गुप्तरीति से भजन हो । भगवान् के नाम का जप भीतर-ही-भीतर
हो । नामजप भीतर से नहीं होता है तो बोलकर करो, कोई परवाह
नहीं; पर भाव दिखावटीपन का नहीं होना चाहिये । कोई देख भी ले,
तो वह इतना दोष नहीं है, प्रत्युत दिखावे का
भाव महान् दोष है । आप नित्य-निरन्तर भजन में लग जाओ । कहीं कोई देख भी ले तो
सावधान हो जाओ । उसके लिये यह नहीं कि हमारा भजन ही बंद हो जाय ।
नारायण ! नारायण !!
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी की ‘भगवन्नाम’ पुस्तकसे
Oam Shree Parmatmney Namah
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