॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०३)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
को
गृहेषु पुमान्सक्तं आत्मानं अजितेन्द्रियः ।
स्नेहपाशैर्दृढैर्बद्धं
उत्सहेत विमोचितुम् ॥ ९ ॥
को
न्वर्थतृष्णां विसृजेत् प्राणेभ्योऽपि य ईप्सितः ।
यं
क्रीणात्यसुभिः प्रेष्ठैः तस्करः सेवको वणिक् ॥ १० ॥
कथं
प्रियाया अनुकम्पितायाः
सङ्गं रहस्यं रुचिरांश्च मन्त्रान् ।
सुहृत्सु
तत्स्नेहसितः शिशूनां
कलाक्षराणामनुरक्तचित्तः ॥ ११ ॥
दैत्यबालको
! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष
होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में
फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके ॥ ९ ॥ जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह
करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वाञ्छनीय है—उस धन की तृष्णा को भला, कौन त्याग सकता है ॥ १० ॥
जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेमभरी
बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु
और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर
लुभा चुका है—भला, वह उन्हें कैसे छोड़
सकता है ॥ ११ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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