सोमवार, 22 सितंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण चतुर्थ स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
चतुर्थ स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ध्रुवका वन-गमन

मैत्रेय उवाच -
मातुः सपत्न्याःा स दुरुक्तिविद्धः
     श्वसन् रुषा दण्डहतो यथाहिः ।
हित्वा मिषन्तं पितरं सन्नवाचं
     जगाम मातुः प्ररुदन् सकाशम् ॥ १४ ॥
तं निःश्वसन्तं स्फुरिताधरोष्ठं
     सुनीतिरुत्सङ्‌ग उदूह्य बालम् ।
निशम्य तत्पौरमुखान्नितान्तं
     सा विव्यथे यद्गधदितं सपत्न्या् ॥ १५ ॥
सोत्सृज्य धैर्यं विललाप शोक
     दावाग्निना दावलतेव बाला ।
वाक्यं सपत्न्याः  स्मरती सरोज
     श्रिया दृशा बाष्पकलामुवाह ॥ १६ ॥
दीर्घं श्वसन्ती वृजिनस्य पारं
     अपश्यती बालकमाह बाला ।
मामङ्‌गलं तात परेषु मंस्था
     भुङ्‌क्ते जनो यत्परदुःखदस्तत् ॥ १७ ॥
सत्यं सुरुच्याभिहितं भवान्मे
     यद् दुर्भगाया उदरे गृहीतः ।
स्तन्येन वृद्धश्च विलज्जते यां
     भार्येति वा वोढुमिडस्पतिर्माम् ॥ १८ ॥
आतिष्ठ तत्तात विमत्सरस्त्वं
     उक्तं समात्रापि यदव्यलीकम् ।
आराधयाधोक्षजपादपद्मं
     यदीच्छसेऽध्यासनमुत्तमो यथा ॥ १९ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! जिस प्रकार डंडे की चोट खाकर साँप फुँफकार मारने लगता है, उसी प्रकार अपनी सौतेली माँके कठोर वचनोंसे घायल होकर ध्रुव क्रोधके मारे लंबी-लंबी साँस लेने लगा। उसके पिता चुपचाप यह सब देखते रहे, मुँहसे एक शब्द भी नहीं बोले। तब पिताको छोडक़र ध्रुव रोता हुआ अपनी माताके पास आया ॥ १४ ॥ उसके दोनों होठ फडक़ रहे थे और वह सिसक-सिसककर रो रहा था। सुनीति ने बेटे को गोदमें उठा लिया और जब महलके दूसरे लोगोंसे अपनी सौत सुरुचिकी कही हुई बातें सुनीं, तब उसे भी बड़ा दु:ख हुआ ॥ १५ ॥ उसका धीरज टूट गया। वह दावानलसे जली हुई बेलके समान शोकसे सन्तप्त होकर मुरझा गयी तथा विलाप करने लगी। सौतकी बातें याद आनेसे उसके कमल-सरीखे नेत्रोंमें आँसू भर आये ॥ १६ ॥ उस बेचारीको अपने दु:खपारावार का कहीं अन्त ही नहीं दिखायी देता था। उसने गहरी साँस लेकर ध्रुवसे कहा, ‘बेटा ! तू दूसरोंके लिये किसी प्रकारके अमङ्गल की कामना मत कर। जो मनुष्य दूसरोंको दु:ख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है ॥ १७ ॥ सुरुचिने जो कुछ कहा है, ठीक ही है; क्योंकि महाराजको मुझे ‘पत्नी’ तो क्या, ‘दासी’ स्वीकार करनेमें भी लज्जा आती है। तूने मुझ मन्दभागिनीके गर्भसे ही जन्म लिया है और मेरे ही दूधसे तू पला है ॥ १८ ॥ बेटा ! सुरुचिने तेरी सौतेली माँ होनेपर भी बात बिलकुल ठीक कही है; अत: यदि राजकुमार उत्तमके समान राजसिंहासनपर बैठना चाहता है तो द्वेषभाव छोडक़र उसीका पालन कर। बस, श्रीअधोक्षज भगवान्‌के चरणकमलोंकी आराधनामें लग जा ॥ १९ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


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