॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०४)
प्रह्लादजी
का असुर-बालकों को उपदेश
पुत्रान्
स्मरंस्ता दुहितॄर्हृदय्या
भ्रातॄन् स्वसॄर्वा पितरौ च दीनौ ।
गृहान्
मनोज्ञोः उपरिच्छदांश्च
वृत्तीश्च कुल्याः पशुभृत्यवर्गान् ॥ १२ ॥
त्यजेत
कोशस्कृदिवेहमानः
कर्माणि लोभादवितृप्तकामः ।
औपस्थ्यजैह्वं
बहुमन्यमानः
कथं विरज्येत दुरन्तमोहः ॥ १३ ॥
जो
अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी
सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत
जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला उन्हें कैसे छोड़ सकता है ॥ १२ ॥ जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के
सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी
तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के
कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मो की कोई
सीमा नहीं है—वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे
उनका त्याग कर सकता है ॥ १३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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