शुक्रवार, 28 जून 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

प्रह्लादजी का असुर-बालकों को उपदेश

प्रह्लाद उवाच
कौमार आचरेत्प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह ।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ १ ॥
यथा हि पुरुषस्येह विष्णोः पादोपसर्पणम् ।
यदेष सर्वभूतानां प्रिय आत्मेश्वरः सुहृत् ॥ २ ॥
सुखं ऐन्द्रियकं दैत्या देहयोगेन देहिनाम् ।
सर्वत्र लभ्यते दैवाद् यथा दुःखमयत्‍नतः ॥ ३ ॥
तत्प्रयासो न कर्तव्यो यत आयुर्व्ययः परम् ।
न तथा विन्दते क्षेमं मुकुन्दचरणाम्बुजम् ॥ ४ ॥

प्रह्लादजीने कहा—मित्रो ! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परंतु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाय; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान्‌ की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये ॥ १ ॥ इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान्‌ के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान्‌ समस्त प्राणियोंके स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं ॥ २ ॥ भाइयो ! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो—जीव चाहे जिस योनिमें रहे—प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करनेपर भी दु:ख मिलता है ॥ ३ ॥ इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलनेवाली वस्तुके  लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान्‌ के परम कल्याण-स्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती ॥ ४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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