शनिवार, 28 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मोहिनीरूप से भगवान्‌ के द्वारा अमृत बाँटा जाना

कल्पयित्वा पृथक् पंक्तीः उभयेषां जगत्पतिः ।
तांश्चोपवेशयामास स्वेषु स्वेषु च पंक्तिषु ॥ २० ॥
दैत्यान् गृहीतकलसो वञ्चयन् उपसञ्चरैः ।
दूरस्थान् पाययामास जरामृत्युहरां सुधाम् ॥ २१ ॥
ते पालयन्तः समयं असुराः स्वकृतं नृप ।
तूष्णीमासन्कृतस्नेहाः स्त्रीविवादजुगुप्सया ॥ २२ ॥
तस्यां कृतातिप्रणयाः प्रणयापायकातराः ।
बहुमानेन चाबद्धा नोचुः किञ्चन विप्रियम् ॥ २३ ॥

भगवान्‌ ने देवता और असुरोंकी अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनोंको कतार बाँधकर अपने-अपने दलमें बैठा दिया ॥ २० ॥ इसके बाद अमृतका कलश हाथमें लेकर भगवान्‌ दैत्योंके पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्षसे मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओंके पास आ गये तथा उन्हें अमृत पिलाने लगे, जिसे पी लेनेपर बुढ़ापे और मृत्युका नाश हो जाता है ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञाका पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्रीसे झगडऩेमें अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे ॥ २२ ॥ मोहिनीमें उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम-सम्बन्ध टूट न जाय। मोहिनीने भी पहले उन लोगोंका बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनीको कोई अप्रिय बात नहीं कही ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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