॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०६)
भगवान्
के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का
विवाह
और
कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों हत्या
श्रीशुक
उवाच ।
एवं
स सामभिर्भेदैः बोध्यमानोऽपि दारुणः ।
न
न्यवर्तत कौरव्य पुरुषादान् अनुव्रतः ॥ ४६ ॥
निर्बन्धं
तस्य तं ज्ञात्वा विचिन्त्यानकदुन्दुभिः ।
प्राप्तं
कालं प्रतिव्योढुं इदं तत्रान्वपद्यत ॥ ४७ ॥
मृत्युर्बुद्धिमतापोह्यो
यावद्बुद्धिबलोदयम् ।
यद्यसौ
न निवर्तेत नापराधोऽस्ति देहिनः ॥ ४८ ॥
प्रदाय
मृत्यवे पुत्रान् मोचये कृपणां इमाम् ।
सुता
मे यदि जायेरन् मृत्युर्वा न म्रियेत चेत् ॥ ४९ ॥
विपर्ययो
वा किं न स्याद् गतिर्धातुः दुरत्यया ।
उपस्थितो
निवर्तेत निवृत्तः पुनरापतेत् ॥ ५० ॥
अग्नेर्यथा
दारुवियोगयोगयोः
अदृष्टतोऽन्यन्न
निमित्तमस्ति ।
एवं
हि जन्तोरपि दुर्विभाव्यः
शरीर
संयोगवियोगहेतुः ॥ ५१ ॥
एवं
विमृश्य तं पापं यावद् आत्मनिदर्शनम् ।
पूजयामास
वै शौरिः बहुमानपुरःसरम् ॥ ५२ ॥
प्रसन्न
वदनाम्भोजो नृशंसं निरपत्रपम् ।
मनसा
दूयमानेन विहसन् इदमब्रवीत् ॥ ५३ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस प्रकार वसुदेवजीने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि
भेदनीतिसे कंसको बहुत समझाया । परंतु वह क्रूर तो राक्षसोंका अनुयायी हो रहा था;
इसलिये उसने अपने घोर संकल्पको नहीं छोड़ा ॥ ४६ ॥ वसुदेवजीने कंसका
विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिये । तब वे
इस निश्चयपर पहुँचे ॥ ४७ ॥ ‘बुद्धिमान् पुरुषको, जहाँतक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्युको टालनेका
प्रयत्न करना चाहिये । प्रयत्न करनेपर भी वह न टल सके, तो
फिर प्रयत्न करनेवालेका कोई दोष नहीं रहता ॥ ४८ ॥ इसलिये इस मृत्युरूप कंसको अपने
पुत्र दे देनेकी प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकीको बचा लूँ। यदि मेरे लडक़े होंगे
और तबतक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा ? ॥ ४९ ॥ सम्भव है, उलटा ही हो । मेरा लडक़ा ही इसे मार
डाले ! क्योंकि विधाताके विधानका पार पाना बहुत कठिन है । मृत्यु सामने आकर भी टल
जाती है और टली हुई भी लौट आती है ॥ ५० ॥ जिस समय वन में आग लगती है, उस समय कौन-सी लकड़ी जले और कौन-सी न जले, दूर की जल
जाय और पास की बच रहे—इन सब बातोंमें अदृष्टके सिवा और कोई
कारण नहीं होता । वैसे ही किस प्राणीका कौन-सा शरीर बना रहेगा और किस हेतुसे
कौन-सा शरीर नष्ट हो जायगा—इस बातका पता लगा लेना बहुत ही
कठिन है’ ॥ ५१ ॥ अपनी बुद्धिके अनुसार ऐसा निश्चय करके
वसुदेवजीने बहुत सम्मानके साथ पापी कंसकी बड़ी प्रशंसा की ॥ ५२ ॥ परीक्षित् ! कंस
बड़ा क्रूर और निर्लज्ज था; अत: ऐसा करते समय वसुदेवजी के
मनमें बड़ी पीड़ा भी हो रही थी। फिर भी उन्होंने ऊपरसे अपने मुख-कमलको प्रफुल्लित
करके हँसते हुए कहा— ॥ ५३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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