||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.१९)
स्व-प्रयत्न की प्रधानता
ऋणमोचनकर्तार: पितु: सन्ति सुतादय: |
बन्धमोचनकर्ता तु स्वस्मादन्यो न कश्चन ||५३||
(पिता के ऋण को चुकाने वाले तो पुत्र आदि भी होते हैं, परन्तु भव-बन्धन से छुडाने वाला अपने से भिन्न और कोई नहीं है)
मस्तकन्यस्तभारादेर्दु:खमन्
क्षुधादिकृतदु:खं तु विना स्वेन न केनचित् ||५४||
(जैसे सिरपर रखे हुए बोझ का दु:ख और भी दूर कर सकते हैं, परन्तु भूख-प्यास आदि का दु:ख अपने सिवा और कोई नहीं मिटा सकता )
पथ्यमौषधसेवा च क्रियते येन रोगिणा |
आरोग्यसिद्धिर्दृष्टास्य नान्यानुष्ठितकर्मणा ||५५||
(अथवा जैसे जो रोगी पथ्य और औषध का सेवन कर्ता है इसी को आरोग्य-सिद्धि होती ह्देखी जाती है, किसी और के द्वारा किये हुए कर्मों से कोई निरोग नहीं होता )
वस्तुस्वरूपं स्फुटबोधचक्षुषा
स्वेनैव वेद्यं ननु पण्डितेन |
चन्द्रस्वरूपं निजक्षुषैव
ज्ञातव्यमन्यैरवगम्यते किम् ||५६||
(वैसे ही विवेकी पुरुष को वस्तु का स्वरूप भी स्वयं अपने ज्ञाननेत्रों से ही जानना चाहिए [किसी अन्य के द्वारा नहीं] | चंद्रमा का स्वरूप अपने ही नेत्रों से देखा जाता है, दूसरों के द्वारा क्या जाना जा सकता है ? )
अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं विमोचितुम् |
क: शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ||५७||
(अविद्या, कामना और कर्मादि के जाल के बंधनों को सौ करोड कल्पों में भी अपने सिवा और कौन खोल सकता है)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें