||श्री परमात्मने नम: ||
विवेक चूडामणि (पोस्ट.२६)
देहासक्ति की निंदा
अनुक्षणं यत्परित्य कृत्य-
मनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम् ।
देहः परार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५ ॥
मनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षणम् ।
देहः परार्थोऽयममुष्य पोषणे
यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति ॥ ८५ ॥
(जो अनादि अविद्याकृत बन्धन को छुडानारूप अपना कर्त्तव्य त्यागकर प्रतिक्षण इस परार्थ [अन्य के भोग्य रूप] देह के पोषण में ही लगा रहता है, वह [अपनी इस प्रवृत्ति से] स्वयं अपना घात करता है)
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ।
ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
(जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ट-बुद्धि से ग्राह को पकड़कर नदी पार करना चाहता है)
मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु ।
मोहो विनिर्जतो येन स मुक्तिपदमर्हति ॥ ८७ ॥
मोहो विनिर्जतो येन स मुक्तिपदमर्हति ॥ ८७ ॥
(शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्षु की बड़ी भारी मौत है; जिसने मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है)
मोहं जहि महामृत्युं देहदारसुतादिषु ।
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ८८ ॥
यं जित्वा मुनयो यान्ति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ८८ ॥
(देह,स्त्री और पुत्रादि में मोहरूप महामृत्यु को छोड़; जिसको जीतकर मुनिजन भगवान् के उस परम पद को प्राप्त होते हैं)
नारायण ! नारायण !!
शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें