।। श्रीराधाकृष्णाभ्याम् नम: ।।
शिव और आसुरि को गोपीरूप से
रासमण्डल में श्रीकृष्ण का दर्शन
(पोस्ट 03)
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! भगवान्
शिव, आसुरि के साथ सम्पूर्ण हृदय से ऐसा निश्चय करके वहाँ से चले। वे दोनों
श्रीकृष्णदर्शन के लिये व्रज – मण्डल में गये । वहाँ की भूमि दिव्य वृक्षों,
लताओं, कुञ्जों और गुमटियोंसे सुशोभित थी । उस
दिव्य भूमि का दर्शन करते हुए दोनों ही यमुनातटपर गये ।
उस समय अत्यन्त बलशालिनी गोलोकवासिनी
गोप- सुन्दरियाँ हाथ में बेंत की छड़ी लिये वहाँ पहरा दे रही थीं । उन
द्वारपालिकाओं ने मार्ग में स्थित होकर उन्हें बलपूर्वक रासमण्डल में जाने से
रोका। वे दोनों बोले— 'हम श्रीकृष्णदर्शन की
लालसा से यहाँ आये हैं।' नृपश्रेष्ठ ! तब राह रोककर खड़ी
द्वारपालिकाओं ने उन दोनों से कहा ॥ १ –४ ॥
द्वारपालिकाएँ बोलीं- विप्रवरो ! हम
कोटि- कोटि गोपाङ्गनाएँ वृन्दावन को चारों ओर से घेरकर निरन्तर रासमण्डल की रक्षा
कर रही हैं । इस कार्य में श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने ही हमें नियुक्त किया है। इस
एकान्त रासमण्डल में एकमात्र श्रीकृष्ण ही पुरुष हैं । उस पुरुषरहित एकान्त स्थान में
गोपीयूथ के सिवा दूसरा कोई कभी नहीं जा सकता। मुनियो ! यदि तुम दोनों उनके दर्शनके
अभिलाषी हो तो इस मानसरोवर में स्नान करो । वहाँ तुम्हें शीघ्र ही गोपीस्वरूप की
प्राप्ति हो जायगी, तब तुम रासमण्डल के
भीतर जा सकते हो ॥ ५-७ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— द्वारपालिकाओं के
यों कहनेपर वे मुनि और शिव मानसरोवर में स्नान करके, गोपी भाव को प्राप्त हो, सहसा रासमण्डल में गये ॥ ८
॥
सुवर्णजटित पद्मरागमयी भूमि उस
रासमण्डल की मनोहरता बढ़ा रही थी । वह सुन्दर प्रदेश माधवी लता- समूहों से व्याप्त
और कदम्बवृक्षों से आच्छादित था। वसन्त ऋतु तथा चन्द्रमा की चाँदनी ने उसको
प्रदीप्त कर रखा था। सब प्रकार की कौशलपूर्ण सजावट वहाँ दृष्टिगोचर होती थी ।
यमुनाजी की रत्नमयी सीढ़ियों तथा तोलिकाओं से रासमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी।
मोर, हंस, चातक और कोकिल वहाँ अपनी मीठी बोली सुना रहे
थे। वह उत्कृष्ट प्रदेश यमुनाजी के जलस्पर्श से शीतल-मन्द वायु के बहने से हिलते
हुए तरुपल्लवों द्वारा बड़ी शोभा पा रहा था । सभामण्डपों और वीथियों से, प्राङ्गणों और खंभों की पंक्तियों से, फहराती हुई
दिव्य पताकाओं से और सुवर्णमय कलशों से सुशोभित तथा श्वेतारुण पुष्पसमूहों से
सज्जित तथा पुष्पमन्दिर और मार्गों से एवं भ्रमरों की गुंजारों और वाद्यों की मधुर
ध्वनियों से व्याप्त रासमण्डल की शोभा देखते ही बनती थी ।
सहस्रदलकमलों की सुगन्ध से पूरित शीतल,
मन्द एवं परम पुण्यमय समीर सब ओर से उस स्थान को सुवासित कर रहा था।
रास- मण्डल के निकुञ्जमें कोटि-कोटि चन्द्रमाओं के समान प्रकाशित होनेवाली पद्मिनी
नायिका हंसगामिनी श्रीराधा से सुशोभित श्रीकृष्ण विराजमान थे । रास मण्डल के भीतर
निरन्तर स्त्रीरत्नों से घिरे हुए श्यामसुन्दरविग्रह श्रीकृष्ण का लावण्य करोड़ों
कामदेवों को लज्जित करनेवाला था ।
हाथ में वंशी और बेंत लिये तथा
श्रीअङ्ग पर पीताम्बर धारण किये वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। उनके वक्षःस्थलमें
श्रीवत्सका चिह्न,कौस्तुभमणि तथा वनमाला
शोभा दे रही थी । झंकारते हुए नूपुर, पायजेब, करधनी और बाजूबंद से वे विभूषित थे। हार, कङ्कण तथा
बालरवि के समान कान्तिमान् दो कुण्डलों से वे मण्डित थे। करोड़ों चन्द्रमाओं की
कान्ति उनके आगे फीकी जान पड़ती थी । मस्तकपर मोरमुकुट धारण किये वे नन्द-नन्दन
मनोरथदान-दक्ष कटाक्षों द्वारा युवतियों का मन हर लेते थे । ९–१९ ॥
....शेष आगामी पोस्ट में
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “श्रीगर्ग-संहिता” --पुस्तककोड 2260 (वृन्दावन खण्ड-अध्याय 25)
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