गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 03)

 


।। श्रीहरिः ।।

 

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 03)

 

कामनाओं के त्याग से आवश्यकता की पूर्ति हो जाती हैयह नियम है । कामना का त्याग करने में हम स्वतन्त्र हैं । कामना किसी में भी निरन्तर नहीं रहती, प्रत्युत उत्पन्न-नष्ट होती रहती है । परन्तु आवश्यकता निरन्तर रहती है । हमें सत्ता चाहिये तो नित्य सत्ता चाहिये, ज्ञान चाहिये तो अनन्त ज्ञान चाहिये, सुख चाहिये तो अनन्त सुख चाहियेयह सत्-चित्-आनन्द की आवश्यकता हमारे में निरन्तर रहती है । निरन्तर न रहने वाली कामना को तो हम पकड़ लेते हैं, पर निरन्तर रहनेवाली आवश्यकता की तरफ हम ध्यान ही नहीं देतेयह हमारी भूल है ।

 

अगर हम कामनाओं का त्याग कर दें तो परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी अथवा परमात्मा की प्राप्ति कर लें तो कामनाओं का त्याग हो जायगा । इन दोनों को ही गीता ने योगकहा है

 

तं विद्यादुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।

                                                                                  (६ । २३)

जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको योग नामसे जानना चाहिये ।

 

समत्वं योग उच्यते ।

                                                                  (२ । ४८)

                                समत्व ही योग कहा जाता है ।

 

तात्पर्य है कि जड़ता का त्याग करना भी योग है और चिन्मयता में स्थित होना भी योग है । दुःखरूप संसार से माना हुआ सम्बन्ध ही दुःखसंयोगहै । दुःखों का घर होनेसे संसार दुःखालयहै‒‘दुःखालयमशाश्वतम्’ (गीता ८ । १५) । जैसे पुस्तकालय में पुस्तकें मिलती हैं, वस्त्रालय में वस्त्र मिलता है, भोजनालय में भोजन मिलता है, ऐसें ही दुःखालय में दुःख-ही-दुःख मिलता है । दुःखालयमें  सुख ही नहीं मिलता, फिर आनन्द तो दूर रहा ! परन्तु परमात्मा में आनन्द-ही-आनन्द हैयं लब्ध्वा चापरं लाभ मन्यते नाधिकं ततः (गीता ६ । २२) । ऐसे महान् आनन्दकी ही हमें आवश्यकता है, जिसकी पूर्ति के लिये ही हमें यह मनुष्यजन्म मिला है ।

 

मनुष्य अनन्तकाल तक जन्मता-मरता रहे तो भी उसकी आवश्यकता मिटेगी नहीं और कामना टिकेगी नहीं । बाल्यावस्था में खिलौनों की कामना होती है, फिर बड़े होने पर रुपयोंकी कामना हो जाती है, फिर स्त्री-पुत्र, मान-बड़ाई आदि की कामना हो जाती है । इस प्रकार कोई भी कामना टिकती नहीं, बदलती रहती है, पर आवश्यकता कभी मिटती नहीं, बदलती नहीं । उस आवश्यकता की पूर्ति के लिये ही कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग ध्यानयोग आदि साधन हैं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे



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