शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2022

कामना और आवश्यकता (पोस्ट 05)

 

।। श्रीहरिः ।।

 


कामना और आवश्यकता
(पोस्ट 05)

 

साधक अधिक-से-अधिक अपने मन को परमात्मा में लगाता है । मन तो प्रकृति का अंश होनेसे जड़ है और परमात्मा चेतन हैं । अतः मन परमात्मा में कैसे लगेगा ? जड़ तो जड़ में ही लगेगा, चेतन में कैसे लगेगा ? वास्तव में स्वयं (चेतन) ही परमात्मा में लगता है, मन नहीं लगता । जीव का स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसका मन लगता है । संसा रमें मन लगाने से वह संसार में लग गया । जब वह परमात्मा में मन लगाता है, तब मन तो परमात्मा में नहीं लगता, पर स्वयं परमात्मा में लग जाता है । मन को संसार से हटाकर परमात्मा में लगानेसे मन विलीन हो जाता है, खत्म हो जाता है । श्रीमद्भागवत में भगवान् कहते हैं

 

विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते ।

मामनुस्मरतश्चित्तं   मव्येव    प्रविलीयते

                                                 (११ । १४ । २७)

 

विषयों का चिन्तन करने से मन विषयों में फँस जाता है और मेरा स्मरण करनेसे मन मेरे में विलीन हो जाता है अर्थात् मन की सत्ता नहीं रहती ।

 

कामना की पूर्ति में तो भविष्य है, पर आवश्यकता की पूर्ति में भविष्य नहीं है । कारण कि सांसारिक पदार्थ सदा सब जगह विद्यमान नहीं हैं, पर परमात्मा सदा सब जगह विद्यमान हैं । अनुभव में न आये तो भी आँखें मीचकर, अन्धे होकर यह मान लें कि परमात्मा सब जगह मौजूद हैं‒‘बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च (गीता १३ । १५) वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूपमें भी वे ही हैं ।इस प्रकार सब जगह, सब समय, सब वस्तुओं में, सब व्यक्तियों में सब क्रियाओं में सब अवस्थाओं में, सब परिस्थितियों में परमात्मा को देखते रहने से इच्छा नष्ट हो जायगी और आवश्यकता की पूर्ति हो जायगी ।

 

शरीर और संसार एक ही जातिके हैं

 

छिति जल पावक गगन समीरा ।

पंच रचित अति अधम सरीरा ॥

                            (मानस, कि॰ ११ । २)

 

शरीर हमारे साथ एक क्षण भी नहीं रहता । यह निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । परन्तु भगवान् निरन्तर हमारे हृदय में विराजमान रहते हैं‒‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम् (गीता १३ । १७) सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः (गीता १५ । १५) ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेsर्जुन तिष्ठति (गीता १८ । ६१) । तात्पर्य है कि हमें जिसका त्याग करना है, उसका निरन्तर त्याग हो रहा है और जिसको प्राप्त करना है, वह निरन्तर प्राप्त हो रहा है । केवल भोग भोगना और संग्रह करनाइन दो इच्छाओं का हमें त्याग करना है । ये दो इच्छाएँ ही परमात्मप्राप्तिमें खास बाधक हैं ।

 

नारायण ! नारायण !!

 

(शेष आगामी पोस्ट में )

------गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की सत्संग मुक्ताहारपुस्तकसे

 



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