ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
तीन प्रकारकी गति
जब साधक ध्यान करने बैठता है--कुछ समय स्वस्थ और एकान्त चित्त से परमात्मा का चिन्तन करना चाहता है, तब यह देखा जाता है कि पूर्व के अभ्यास के कारण उसे प्रायः उन्हीं कार्यों या भावों की स्फुरणा होती है, जैसे कार्यों में वह सदा लगा रहता है। वह साधक बार बार मन को विषयोंसे हटाने का प्रयत्न करता है, उसे धिक्कारता है, बहुत पश्चाताप भी करता है तथापि पूर्व का अभ्यास उसकी वृत्तियों को सदाके कार्यों की ओर खींच ले जाता है। जब मनुष्य सावधान अवस्थामें भी मन की साधना को सहसा अपनी इच्छानुसार नहीं बना सकता, तब जीवनभर के अभ्यास के विरुद्ध मृत्युकाल में हमारी वासना अनायास ही शुभ हो जायगी, यह समझना भ्रमके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भगवान् भी कहते हैं--सदा तद्भावभावितः।’
यदि ऐसा ही होता तो शनैः शनैः उपरामताको प्राप्त करने और बुद्धिद्वारा मन को परमात्मा में लगाने की आज्ञा भगवान् कैसे देते? ( गीता ६ । २५ )। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्यके कर्मोंके अनुसार ही उसकी भावना होती है, जैसी अन्तकालकी भावना होती है--जिस गुणमें उसकी स्थिति होती है, उसीके अनुसार परवश होकर जीवको कर्मफल भोगनेके लिये दूसरी योनि में जाना पड़ता है !
ऊर्ध्वगति के दो भेद-इस ऊर्ध्व गति के दो भेद हैं। एक ऊर्ध्व गति से वापस लौटकर आना पड़ता है। इसी को गीता में शुक्लकृष्ण गति और उपनिषदों में देवयान पितॄयान कहा है। सकाम भावसे वेदोक्त कर्म करने वाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव ऋणरूप पापसे छूटे हुए पुण्यात्मा पुरुष धूममार्ग से पुण्यलोकों को प्राप्त होकर वहां दिव्य देवताओं के विशाल भोग भोगकर , पुण्य क्षीण होते ही पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं और निष्कामभाव से भगवद्भक्ति या ईश्वरार्पण बुद्धिसे भेदज्ञानयुक्त श्रौत-स्मार्त कर्म करनेवाले-परोक्षभाव से परमेश्वर को जानने वाले योगीजन क्रम से ब्रह्म को प्राप्त होजाते हैं।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)
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