सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

दस नामापराध (पोस्ट ०१)

|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||


सन्निन्दासति     नामवैभवकथा    श्रीशेशयोर्भेदधी-
रश्रद्धा    श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां   नाम्न्यर्थवादभ्रमः ।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागौ च धर्मान्तरैः
साम्यं  नामजपे  शिवस्य  च  हरेर्नामापराधा  दश ॥

भगवन्नाम-जपमें दस अपराध होते हैं । उन दस अपराधोंसे रहित होकर हम नाम जपें । कई ऐसा कहते हैं‒

राम नाम सब कोई कहे  दशरथ  कहे न कोय ।
एक बार दशरथ कहे तो कोटि यज्ञ फल होय ॥

और कई तो ‘दशरथ कहे न कोय’ की जगह ‘दशऋत कहे न कोय’ कहते हैं अर्थात् ‘दशऋत’‒दस अपराधोंसे रहित नहीं करते । साथ-साथ अपराध करते रहते हैं । उस नामसे भी फायदा होता है । पर नाम महाराजकी शक्ति उन अपराधोंके नाश होनेमें खर्च हो जाती है । अपराध करता है तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होते । वे रुष्ट होते हैं । ये अपराध हमारेसे न हों । इसके लिये खयाल रखें । दस अपराध बताये जाते हैं । वे इस प्रकार हैं‒

‘सन्निन्दा’‒(१) पहला अपराध तो यह माना है कि श्रेष्ठ पुरुषोंकी निन्दा की जाय । अच्छे-पुरुषों की, भगवान्‌ के प्यारे भक्तों की जो निन्दा करेंगे, भक्तों का अपमान करेंगे तो उससे नाम महाराज रुष्ट हो जायेंगे । इस वास्ते किसीकी भी निन्दा न करें; क्योंकि किसीके भले-बुरे का पता नहीं लगता है ।

ऐसे-ऐसे छिपे हुए सन्त-महात्मा होते हैं कि गृहस्थ-आश्रममें रहनेवाले, मामूली वर्ण में, मामूली आश्रम में, मामूली साधारण स्त्री-पुरुष दीखते हैं, पर भगवान्‌ के बड़े प्रेमी और भगवान्‌ का नाम लेनेवाले होते हैं । उनका तिरस्कार कर दें,अपमान कर दें, निन्दा कर दें तो कहीं भगवान्‌ के भक्त की निन्दा हो गयी तो नाम महाराज प्रसन्न नहीं होंगे ।

नाम चेतन कू चेत भाई । नाम चौथे कूँ मिलाई ।

नाम चेतन है । भगवान्‌ का नाम दूसरे नामों की तरह होता है, ऐसा नहीं है । वह जड़ नहीं है, वह चेतन है । भगवान्‌ का श्रीविग्रह चिन्मय होता है‒‘चिदानंदमय देह तुम्हारी ।’ हमारे शरीर जड़ होते हैं, शरीर में रहनेवाला चेतन होता है । पर भगवान्‌ का शरीर भी चिन्मय होता है । उनके गहने-कपड़े आदि भी चिन्मय होते हैं । उनका नाम भी चिन्मय है । यदि ऐसे चिन्मय नाम महाराज की कृपा चाहते हो, उसकी मेहरबानी चाहते हो तो जो अच्छे पुरुष हैं और जो नाम लेनेवाले हैं, उनकी निन्दा मत करो ।

नारायण !     नारायण !!     

 (शेष आगामी पोस्ट में)
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “भगवन्नाम” पुस्तकसे


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