ॐ श्रीमन्नारायणाय नम:
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त करता है।’
इसका यदि यह अर्थ समझा जाय कि इस शरीरसे वियोग होते ही जीव उसी क्षण दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है तो इससे दूसरा शरीर पहलेसे ही तैयार होना चाहिये और जब दूसरा तैयार ही है, तब कहीं आने जाने स्वर्ग नरकादि भोगने की बात कैसे सिद्ध होती है, परन्तु गीता स्वयं तीन गतियां निर्देश कर आना जाना स्वीकार करती है। इसमें परस्पर विरोध आता है, इसका क्या समाधान है?
इसका समाधान यह है कि यह शङ्का ही ठीक नहीं है। भगवान् ने इस सम्बन्ध में यह नहीं कहा कि, मरते ही जीव को दूसरा ‘स्थूल’ देह ‘उसी समय तुरन्त ही’ मिल जाता है। एक मनुष्य कई जगह घूमकर घर आता है और घर आकर वह अपनी यात्रा का बयान करता हुआ कहता है ‘मैं बम्बई से कलकत्ते पहुंचा, वहां से कानपुर और कानपुर से दिल्ली चला आया।’ इस कथन से क्या यह अर्थ निकलता है कि वह बम्बई छोड़ते ही कलकत्ते में प्रवेश कर गया था या कानपुर से दिल्ली उसी दम आगया ? रास्ते का वर्णन स्पष्ट न होनेपर भी इसके अन्दर ही है, इसीप्रकार जीवका भी देह परिवर्तनके लिये लोकान्तरों में जाना समझना चाहिये। रही नयी देह मिलने की बात, सो देह तो अवश्य मिलती है परन्तु वह स्थूल नहीं होती है। समष्टि वायुके साथ सूक्ष्मशरीर मिलकर एक वायुमय देह बन जाता है, जो ऊर्ध्व-गामियोंका प्रकाशमय तैजस, नरक-गामियोंको तमोमय प्रेत पिशाच आदिका होता है। वह सूक्ष्म होनेसे हम लोगोंकी स्थूलदृष्टिसे दीखता नहीं। इसलिये यह शङ्का निरर्थक है।
शेष आगामी पोस्ट में ..........
................००३. ०८. फाल्गुन कृ०११ सं०१९८५. कल्याण (पृ०७९३)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें