सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

मातृदेवो भव ! पितृदेवो भव !!



माता-पिता की सेवा का तात्पर्य कृतज्ञता में है । माता-पिता ने बच्चे के लिये जो कष्ट सहे हैं उसका पुत्रपर ऋण है । उस ऋण को पुत्र कभी उतार नहीं सकता । माँ ने पुत्र की जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र कर ही नहीं सकता । अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ी से माँ के लिये जूती बना दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँ से लाये ? यह भी तो माँ ने ही दी है ! उसी चमड़ी की जूती बनाकर माँ को दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया ? केवल देने का अभिमान ही किया है ! ऐसे ही शरीर खास पिता का अंश है । पिता के उद्योग से ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बनता है, उसको रोटी-कपड़ा मिलता है । इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! अतः केवल माता-पिता की सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता लेने से वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता है ।

........गीताप्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तक से


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