❈ श्री हरिःशरणम् ❈
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)
( सम्पादक-कल्याण )
भगवान् ने कृपापूर्वक अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदानकर अपना विराट स्वरूप दिखलाया। उस विकराल कालस्वरूपको देखकर अर्जुनके घबराकर प्रार्थना करनेपर अपने चतुर्भुज रूपके दर्शन कराये, तदन्तर मनुष्य-देह-धारी सौम्य रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप दिखाकर उनके चित्तमें प्रादुर्भूत भय और अशान्तिका नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंगमें भगवान्ने अपने विराट और चतुर्भुज-स्वरूपकी महिमा गाते हुए इनके दर्शन प्राप्त करनेवाले अर्जुनके प्रेमकी प्रशंसा की और कहा कि मेरे इन स्वरूपोंको प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखना, इनके तत्त्वको समझना और इनमें प्रवेश करना केवल ‘अनन्य भक्ति’से ही सम्भव है। इसके बाद अनन्य भक्तिका स्वरूप और उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान्ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अबतक भगवान्के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपोंकी और दोनोंके ही उपासकोंकी प्रशंसा और दोनोंसे ही परमधामकी प्राप्ति होनेकी बात सुन चुके हैं। अब वे इस समबन्धमें एक स्थिर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दोंमें भगवानसे प्रार्थना करते हुए पूछा-
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
............( गी० १२ । १ )
हे नाथ! जो अनन्य भक्त आपके द्वारा कथित विधिके अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त साकाररूप मनमोहन श्यामसुन्दरकी उपासना करते हैं, एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकाररूपकी उपासना करते हैं, इन दोनोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? प्रश्न स्पष्ट है | अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्त रूपकी दुर्लभता बताकर केवल अनन्यभक्तिसे ही उस रूपके प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्त्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यता के लक्षण बतलाये। परन्तु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकों की भी प्रशंसा कर चुके हैं। अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-से हैं?
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)
( सम्पादक-कल्याण )
भगवान् ने कृपापूर्वक अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदानकर अपना विराट स्वरूप दिखलाया। उस विकराल कालस्वरूपको देखकर अर्जुनके घबराकर प्रार्थना करनेपर अपने चतुर्भुज रूपके दर्शन कराये, तदन्तर मनुष्य-देह-धारी सौम्य रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप दिखाकर उनके चित्तमें प्रादुर्भूत भय और अशान्तिका नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंगमें भगवान्ने अपने विराट और चतुर्भुज-स्वरूपकी महिमा गाते हुए इनके दर्शन प्राप्त करनेवाले अर्जुनके प्रेमकी प्रशंसा की और कहा कि मेरे इन स्वरूपोंको प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखना, इनके तत्त्वको समझना और इनमें प्रवेश करना केवल ‘अनन्य भक्ति’से ही सम्भव है। इसके बाद अनन्य भक्तिका स्वरूप और उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान्ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अबतक भगवान्के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपोंकी और दोनोंके ही उपासकोंकी प्रशंसा और दोनोंसे ही परमधामकी प्राप्ति होनेकी बात सुन चुके हैं। अब वे इस समबन्धमें एक स्थिर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दोंमें भगवानसे प्रार्थना करते हुए पूछा-
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
............( गी० १२ । १ )
हे नाथ! जो अनन्य भक्त आपके द्वारा कथित विधिके अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त साकाररूप मनमोहन श्यामसुन्दरकी उपासना करते हैं, एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकाररूपकी उपासना करते हैं, इन दोनोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? प्रश्न स्पष्ट है | अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्त रूपकी दुर्लभता बताकर केवल अनन्यभक्तिसे ही उस रूपके प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्त्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यता के लक्षण बतलाये। परन्तु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकों की भी प्रशंसा कर चुके हैं। अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-से हैं?
शेष आगामी पोस्ट में .................
…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)
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