।।
श्रीहरिः ।।
गीतामें
धर्म
(पोस्ट ०२)
शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मणके
स्वधर्म हैं (१८ । ४२) । इनके अतिरिक्त पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना
आदि भी ब्राह्मणके स्वधर्म हे । शौर्य, तेज आदि क्षत्रियके
स्वधर्म हैं (१८।४३) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यका ठीक
पालन करना भी क्षत्रियका ‘स्वधर्म’ है
। खेती करना, गायोंका पालन करना और व्यापार करना वैश्यके ‘स्वधर्म’ हैं (१८ । ४४) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके
अनुसार कोई आवश्यक कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारुरूपसे करना भी वैश्यका ‘स्वधर्म’ है । सबकी सेवा करना शूद्रका ‘स्वधर्म’ है (१८ । ४४) । इसके अतिरिक्त परिस्थितिके
अनुसार प्राप्त और भी कर्मोंको सांगोपागं करना शूद्रका ‘स्वधर्म’
है ।
भगवान् ने
कृपाके परवश होकर अर्जुनके माध्यमसे सभी मनुष्योंको एक विशेष बात बतायी है कि तुम
(उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जाओ तो
मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो
(१८ । ६६) । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादामें रहनेके लिये,
अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये उपर्युक्त सभी धर्मोंका पालन
करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्रको दृष्टिमें रखकर इनका पालन करना ही चाहिये (३
। १४‒१६); परंतु इनका आश्रय नहीं लेना
चाहिये । आश्रय केवल भगवान्का ही लेना चाहिये । कारण कि वास्तवमें ये स्वयंके
धर्म नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको लेकर होनेसे परधर्म ही हैं ।
भगवान्ने
‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’ (२ । ४०) पदोंसे समताको,
‘धर्मस्यास्य’ (९ । ३) पदसे ज्ञान-विज्ञानको
और ‘धर्म्यामृतम्’ (१२ । २०) पदसे सिद्ध
भक्तोंके लक्षणोंको भी ‘धर्म’ कहा है ।
इनको धर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि परमात्माका स्वरूप होनेसे समता सभी
प्राणियोंका स्वधर्म (स्वयंका धर्म) है । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे
ज्ञान-विज्ञान भी साधकका स्वधर्म है और स्वतःसिद्ध होनेसे सिद्ध भक्तोंके लक्षण भी
सबके स्वधर्म हैं ।
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
‒-- गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-दर्पण’
पुस्तक से
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