बुधवार, 3 जनवरी 2018

गीतामें धर्म (पोस्ट ०२)

।। श्रीहरिः ।।

गीतामें धर्म (पोस्ट ०२)

शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मणके स्वधर्म हैं (१८ । ४२) । इनके अतिरिक्त पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना आदि भी ब्राह्मणके स्वधर्म हे । शौर्य, तेज आदि क्षत्रियके स्वधर्म हैं (१८।४३) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यका ठीक पालन करना भी क्षत्रियका स्वधर्महै । खेती करना, गायोंका पालन करना और व्यापार करना वैश्यके स्वधर्महैं (१८ । ४४) । इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार कोई आवश्यक कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारुरूपसे करना भी वैश्यका स्वधर्महै । सबकी सेवा करना शूद्रका स्वधर्महै (१८ । ४४) । इसके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त और भी कर्मोंको सांगोपागं करना शूद्रका स्वधर्महै ।

भगवान्‌ ने कृपाके परवश होकर अर्जुनके माध्यमसे सभी मनुष्योंको एक विशेष बात बतायी है कि तुम (उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छो‍ड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जाओ तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो (१८ । ६६) । तात्पर्य यह है कि अपने-अपने वर्ण-आश्रमक‌ी मर्यादामें रहनेके लिये, अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये उपर्युक्त सभी धर्मोंका पालन करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्रको दृष्टिमें रखकर इनका पालन करना ही चाहिये (३ । १४१६); परंतु इनका आश्रय नहीं लेना चाहिये । आश्रय केवल भगवान्‌का ही लेना चाहिये । कारण कि वास्तवमें ये स्वयंके धर्म नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको लेकर होनेसे परधर्म ही हैं ।

भगवान्‌ने स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’ (२ । ४०) पदोंसे समताको, ‘धर्मस्यास्य’ (९ । ३) पदसे ज्ञान-विज्ञानको और धर्म्यामृतम्’ (१२ । २०) पदसे सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको भी धर्मकहा है । इनको धर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि परमात्माका स्वरूप होनेसे समता सभी प्राणियोंका स्वधर्म (स्वयंका धर्म) है । परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे ज्ञान-विज्ञान भी साधकका स्वधर्म है और स्वतःसिद्ध होनेसे सिद्ध भक्तोंके लक्षण भी सबके स्वधर्म हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


-- गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित गीता-दर्पणपुस्तक से


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