गुरुवार, 11 जनवरी 2018

संसारकूप में पड़ा प्राणी

|| श्रीहरि :||
संसारकूप में पड़ा प्राणी
संसारकूपे पतितोऽत्यगाधे मोहान्धपूर्णे विषयाभितप्ते |
करावालम्बं मम देहि विष्णो गोविन्द दामोदर माधवेति ||
(जो मोहरूपी अन्धकार से व्याप्त और विषयों की ज्वाला से संतप्त है, ऐसे अथाह संसाररूपी कूप में मैं पड़ा हुआ हूँ | ‘हे मेरे मधुसूदन! हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!, मुझे अपने हाथ का सहारा दीजिये)
भव-कूप—यह एक पौराणिक रूपक है, और है सर्वथा परिपूर्ण | इस संसार के कूप में पडा प्राणी कूप-मण्डूक से भी अधिक अज्ञान के अन्धकार से ग्रस्त होरहा है | अहंता और ममता के घेरे में घिरा प्राणी—समस्त चराचर में परिव्याप्त एक ही आत्मतत्त्व है, इस परमसत्य की बात स्वप्न में भी नहीं सोच पाता |
कितना भयानक है यह संसार-कूप—यह सूखा कुआँ है | इस अंधकूप में जल का नाम नहीं है | इस दु:खमय संसार में जल-रस कहाँ है | जल तो रस है, जीवन है; किन्तु संसार में तो न सुख है, न जीवन है | यहाँ का सुख और जीवन—एक मिथ्या भ्रम है | सुख से सर्वथा रहित है, संसार और मृत्यु से ग्रस्त है—अनित्य है |
मनुष्य इस रसहीन सूखे कुँए में गिर रहा है | कालरूपी हाथी के भय से भागकर वह कुँए के मुखपर उगी लताओं को पकड़कर लटक गया है कुँए में | लेकिन कबतक लटका रहेगा वह ? उसके दुर्बल बाहु कबतक देह का भार सम्हाले रहेंगे | कुँएके ऊपर मदांध गज उसकी प्रतीक्षा कर रहा है –बाहर निकला और गज ने कुचल दिया पैरों से |
कुँए में ही गिर जाता--कूद जाता; किन्तु वहां तो महाविषधर फण उठाए फूत्कार कर रहा है | क्रुद्ध सर्प प्रस्तुत ही है की मनुष्य गिरे और उसके शरीर में पैंने दन्त तीक्ष्ण विष उँडेल दें | अभागा मनुष्य—वह देर तक लटका भी नहीं रह सकता | जिस लता को पकड़कर वह लटक रहा है, दो चूहे--काले और श्वेत रंग के दो चूहे उस लता को कुतरने में लगे हैं | वे उस लता को ही काट रहे हैं | लेकिन मूर्ख मानव को मुख फाड़े सिर पर और नीचे खादी मृत्यु दीखती ही कहाँ है | वह तो मग्न है | लता में लगे शहद के छत्ते से जो मधुबिंदु यदाकदा टपकपड़ते हैं, उन सीकरों को चाट लेने में ही वह अपने को कृतार्थ मान रहा है |
यह न रूपक है न कहानी है | यह तो जीवन है—संसार के रसहीन कूप में पड़े सभी प्राणी यही जीवन बिता रहे हैं | मृत्यु से चरों ओर से ग्रस्त यह जीवन—कालरूपी कराल हाथी कुचल देने की प्रतीक्षा में है इसे | मौतरूपे सर्प अपना फण फैलाए प्रस्तुत है | कहीं भी मनुष्य का मृत्यु से छुटकारा नहीं | जीवन के दिन—आयु की लता जो उसका सहारा है, कटती जारही है | दिन और रात्रिरूपी सफ़ेद तथा काले चूहे उसे कुतर रहे हैं | क्षण-क्षण आयु क्षीण हो रही है | इतने पर भी मनुष्य मोहान्ध हो रहा है | उसे मृत्यु दीखती नहीं | विषय-सुखरूपी मधुकण जो यदाकदा उसे प्राप्त होजाते हैं, उन्हीं में रम रहा है वह—उन्हीं को पाने की चिंता में व्यग्र है वह !
----------कल्याण, वर्ष ९०, अंक ११-नवम्बर,२०१६


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...