रविवार, 1 अक्तूबर 2023

मानस में नाम-वन्दना (पोस्ट.. 01)



|| ॐ श्री परमात्मने नम: ||

श्रीसीताराम-वन्दना

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न ॥
………..(मानस, बालकाण्ड, दोहा १८)

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी महाराज कथा प्रारम्भ करनेसे पहले सभी की वन्दना करते हैं । इस दोहे में श्रीसीतारामजी को नमस्कार करते हैं । इसके बाद नाम-वन्दना और नाम-महिमा को लगातार नौ दोहे और बहत्तर चौपाइयों में कहते हैं ।

श्रीगोस्वामी जी महाराज को यह नौ संख्या बहुत प्रिय लगती है । नौ संख्याको कितना ही गुणा किया जाय, तो उन अंकोंको जोड़नेपर नौ ही बचेंगे । जैसे, नौ संख्या को नौ से गुणा करने पर इक्यासी होते हैं । इक्यासी के आठ और एक, इन दोनों को जोड़ने पर फिर नौ हो जाते हैं । इस प्रकार कितनी ही लम्बी संख्या क्यों न हो जाय, पर अन्त में नौ ही रहेंगे; क्योंकि यह संख्या पूर्ण है ।

गोस्वामी जी महाराज को जहाँ-कहीं ज्यादा महिमा करनी होती है तो नौ तरह की उपमा और नौ तरह के उदाहरण देते हैं । नौ संख्या आखिरी हद है, इससे बढ़कर कोई संख्या नहीं है । यह नौ संख्या अटल है ।
संबत सोरह सै एकतीसा ।
करउँ कथा हरि पद धरि सीसा ॥
नौमी भौम बार मधुमासा ।
अवधपुरी यह चरित प्रकासा ॥
……………(मानस, बालकाण्ड, दोहा ३४ । ४,५)

रामजन्म तिथि बार सब जस त्रेता महँ भास ।
तस इकतीसा महँ को जोग लगन ग्रह रास ॥

भगवान् श्रीराम ने त्रेतायुगमें चैत्र मास, शुक्लपक्ष, नवमी तिथि,मंगलवार के दिन शुभ मुहूर्तके समय अयोध्या में अवतार लिया । भगवान्‌ के अवतारके दिन जैसा शुभ मुहूर्त था, ठीक वैसा ही शुभ मुहूर्त का संयोग संवत् १६३१ में भगवान्‌ के अवतार के दिन बना । श्रीगोस्वामीजी महाराज ने अयोध्या में उसी दिन श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ लिखना आरम्भ किया । जबतक ऐसा संयोग नहीं बना, तब तक वैसे शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते रहे । यहाँ अठारहवें दोहे में श्रीसीतारामजी के चरणोंकी वन्दना करते हैं । सीतारामजी की बहुत विलक्षणता है । ‘जिन्हहि परम प्रिय खिन्न’, दुःखी आदमी किसीको प्यारा नहीं लगता । दीन-दुःखीको सब दुत्कारते हैं, पर सीतारामजी को जो दुःखी होता है, वह ज्यादा प्यारा लगता है, वह उनका परमप्रिय है, उसपर विशेष कृपा करते हैं । उन श्रीसीतारामजीके चरणोंमें मैं प्रणाम करता हूँ ।

श्रीसीतारामजी अलग-अलग नहीं हैं । इस बातको समझानेके लिये दो दृष्टान्त देते हैं । जैसे, गिरा-अरथ और जल-बीचि कहनेका तात्पर्य है कि वाणी और उसका अर्थ कहनेमें दो हैं, पर वास्तवमें दो नहीं, एक हैं । वाणीसे कुछ भी कहोगे तो उसका कुछ-न-कुछ अर्थ होगा ही और किसीको कुछ अर्थ समझाना हो तो वाणीसे ही कहा जायगा‒ऐसे परस्पर अभिन्न हैं । इसी तरह जल होगा तो उसकी तरंग भी होगी । तरंग और जल कहने में दो हैं, पर जलसे तरंग या तरंगसे जल अलग नहीं है एक ही है ।

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की “मानस में नाम-वन्दना” पुस्तकसे




1 टिप्पणी:

  1. 🌹🍂🌺जय श्री हरि: 🙏🙏
    मंगल भवन अमंगल हारी
    उमा सहित जेहिं जपत पुरारी
    जय श्री राम जय जय सियाराम

    जवाब देंहटाएं

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...