॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
श्रीमद्भगवद्गीता विश्व का अद्वितीय ग्रन्थ है | इस पर अब तक न जाने कितनी टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं, लिखी जा रही हैं और भविष्य में लिखी जायँगी, पर इसके गूढ़ भावों का अन्त न आया है, न आयेगा | कारण कि यह अनन्त भगवान् के मुख से निकली हुई दिव्य वाणी (परम वचन) है | इस दिव्य वाणी पर जो कुछ भी कहता या लिखता है, वह वास्तव में अपनी बुद्धि का ही परिचय देता है | गीता के भावों को कोई इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि से नहीं पकड़ सकता | हाँ, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने आपको भगवान् के समर्पित करके अपना कल्याण कर सकता है | जो अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, उनके शरणागत हो जाता है , उस पर गीता-ज्ञान का प्रवाह स्वतः आ जाता है | तात्पर्य है कि गीता को समझने के लिए शरणागत होना आवश्यक है | अर्जुन भी जब भगवान् के शरणागत हुए , तभी भगवान् के मुख से गीता का प्राकट्य हुआ , जिससे अर्जुन का मोह नष्ट हुआ और उन्हें स्मृति प्राप्त हुई--'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा ' (गीता १८ | ७३) |
गीता-ज्ञान को जानने का परिणाम है--'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव हो जाना | इसके अनुभव में ही गीता की पूर्णता है | यही वास्तविक शरणागति है | तात्पर्य है कि जब भक्त शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देता है, तब शरणागत (मैं-पन) नहीं रहता , प्रत्युत् केवल शरण्य (भगवान्) ही रह जाते हैं, जिनमें मैं-तू-यह-वह चारों का ही सर्वथा अभाव है | इसलिए जब कोई महात्मा गीता को जान लेता है, तब वह मौन हो जाता है | उसके पास कुछ कहने या लिखने के लिए शब्द नहीं रहते | वह साधकों के प्रति गीता के विषय में कुछ भी कहता है तो वह शाखाचन्द्रन्याय से संकेतमात्र होता है |
लगभग बीस वर्ष पहले मैंने गीता पर “साधक-संजीवनी” नामक विस्तृत हिन्दी टीका लिखी थी | जिज्ञासु साधकों ने उसे बड़े उत्साहपूर्वक अपनाया और उससे लाभ भी उठाया | साथ ही साधकों की यह मांग भी बढ़ती रही कि “साधक-संजीवनी” का कलेवर बहुत बड़ा होने से इसे अपने पास रखने में कठिनाई होती है तथा विस्तार अधिक होने से पूरा पढ़ने के लिए समय भी नहीं मिल पाता | इसे ध्यान में रखते हुए गीता पर एक संक्षिप्त टीका लिखने का विचार किया गया, जो “गीता-प्रबोधनी” नाम से साधकों की सेवा में प्रस्तुत है | इसमें गीता के मूल श्लोक एवं अर्थ के साथ संक्षिप्त व्याख्या दी गयी है | परन्तु सभी श्लोकों की व्याख्या नहीं दी गयी है | अनेक श्लोकों का केवल अर्थ दिया गया है | टीका को संक्षिप्त बनाने की दृष्टि रहने से व्याख्या का विस्तार करने में संकोच किया गया है | अत: साधक को यदि किसी व्याख्या का विषय विस्तार से समझने की आवश्यकता प्रतीत हो तो उसे “ साधक-संजीवनी” टीका देखनी चाहिए |
गीता के भावों का अंत न होने से इस “गीता-प्रबोधनी” टीका में कुछ नए भाव आये हैं, जो अन्य किसी टीका में हमारे देखने में नहीं आये | साधकों से प्रार्थना है कि वे किसी मत,सम्प्रदाय आदि का आग्रह न रखते हुए इस टीका को पढ़ें और लाभ उठायें |
विनीत—
स्वामी रामसुखदास
ॐ तत्सत् !
शेष आगामी पोस्ट में .........
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गीता प्रबोधनी” (कोड १५६२ से)
🌺🍂🌼जय श्री हरि: 🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्री परमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
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परम् श्रद्धेय सदा वंदनीय स्वामी रामसुख दासजी महाराज को सहस्त्रों कोटिश: नमन प्रणाम🙏🙏🙏
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