शनिवार, 30 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे
     शिरो हृषीकेश पदाभिवन्दने ।
 कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया
     यथोत्तमश्लोक जनाश्रया रतिः ॥ २० ॥
 एवं सदा कर्मकलापमात्मनः
     परेऽधियज्ञे भगवत्यधोक्षजे ।
 सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां
     तन्निष्ठविप्राभिहितः शशास ह ॥ २१ ॥
 ईजेऽश्वमेधैरधियज्ञमीश्वरं
     महाविभूत्योपचितांगदक्षिणैः ।
 ततैर्वसिष्ठासितगौतमादिभिः
     धन्वन्यभिस्रोतमसौ सरस्वतीम् ॥ २२ ॥
 यस्य क्रतुषु गीर्वाणैः सदस्या ऋत्विजो जनाः ।
 तुल्यरूपाः चानिमिषा व्यदृश्यन्त सुवाससः ॥ २३ ॥
 स्वर्गो न प्रार्थितो यस्य मनुजैः अमरप्रियः ।
 श्रृण्वद्भिः उपगायद्‌भिः उत्तमश्लोकचेष्टितम् ॥ २४ ॥
 समर्द्धयन्ति तान् कामाः स्वाराज्यपरिभाविताः ।
 दुर्लभा नापि सिद्धानां मुकुन्दं हृदि पश्यतः ॥ २५ ॥
 स इत्थं भक्तियोगेन तपोयुक्तेन पार्थिवः ।
 स्वधर्मेण हरिं प्रीणन् संगान् सर्वान् शनैर्जहौ ॥ २६ ॥
 गृहेषु दारेषु सुतेषु बन्धुषु
     द्विपोत्तमस्यन्दन वाजिवस्तुषु ।
 अक्षय्यरत्‍नाभरणाम्बरादिषु
     अनन्तकोशेषु अकरोत् असन् मतिम् ॥ २७ ॥
 तस्मा अदाद् हरिश्चक्रं प्रत्यनीक-भयावहम् ।
 एकान्तभक्तिभावेन प्रीतो भृत्याभिरक्षणम् ॥ २८ ॥

अम्बरीष के पैर भगवान्‌ के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान्‌ की सेवामें समर्पित कर दयिा था। भोगनेकी इच्छासे नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्रकीर्ति भगवान्‌ के निज-जनों में ही निवास करता है ॥ २० ॥ इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान्‌ के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे ॥ २१ ॥ उन्होंने धन्वनाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाहके सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वाङ्गपरिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान्‌ की आराधना की थी ॥ २२ ॥ उनके यज्ञोंमें देवताओंके साथ जब सदस्य और ऋत्विज् बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूपके कारण देवताओंके समान दिखायी पड़ते थे ॥ २३ ॥ उनकी प्रजा महात्माओंके द्वारा गाये हुए भगवान्‌के उत्तम चरित्रोंका किसी समय बड़े प्रेमसे श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती। इस प्रकार उनके राज्यके मनुष्य देवताओंके अत्यन्त प्यारे स्वर्गकी भी इच्छा नहीं करते ॥ २४ ॥ वे अपने हृदयमें अनन्त प्रेमका दान करनेवाले श्रीहरिका नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगोंको वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धोंको भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्दके सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं ॥ २५ ॥ राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्यासे युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्मके द्वारा भगवान्‌को प्रसन्न करने लगे और धीरे- धीरे उन्होंने सब प्रकारकी आसक्तियोंका परित्याग कर दिया ॥ २६ ॥ घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलोंकी चतुरङ्गिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होनेवाले कोशोंके सम्बन्धमें उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं ॥ २७ ॥ उनकी अनन्य प्रेममयी भक्तिसे प्रसन्न होकर भगवान्‌ने उनकी रक्षाके लिये सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियोंको भयभीत करनेवाला एवं भगवद्भक्तोंकी रक्षा करनेवाला है ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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