॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)
नाभाग और अम्बरीष की कथा
तं कश्चित् स्वीकरिष्यन्तं पुरुषः कृष्णदर्शनः ।
उवाचोत्तरतोऽभ्येत्य ममेदं वास्तुकं वसु ॥ ६ ॥
ममेदं ऋषिभिः दत्तं
इति तर्हि स्म मानवः ।
स्यान्नौ ते पितरि
प्रश्नः पृष्टवान् पितरं यथा ॥ ७ ॥
यज्ञवास्तुगतं
सर्वं उच्छिष्टं ऋषयः क्वचित् ।
चक्रुर्विभागं
रुद्राय स देवः सर्वमर्हति ॥ ८ ॥
नाभागस्तं
प्रणम्याह तवेश किल वास्तुकम् ।
इत्याह मे पिता
ब्रह्मन् शिरसा त्वां प्रसादये ॥ ९ ॥
यत् ते पितावदद्
धर्मं त्वं च सत्यं प्रभाषसे ।
ददामि ते
मन्त्रदृशे ज्ञानं ब्रह्म सनातनम् ॥ १० ॥
गृहाण द्रविणं
दत्तं मत्सत्रे परिशेषितम् ।
इत्युक्त्वान्तर्हितो रुद्रो भगवान् सत्यवत्सलः
॥ ११ ॥
य एतत् संस्मरेत्
प्रातः सायं च सुसमाहितः ।
कविर्भवति
मंत्रज्ञो गतिं चैव तथाऽऽत्मनः ॥ १२ ॥
नाभागाद्
अंबरीषोऽभूत् महाभागवतः कृती ।
नास्पृशद्
ब्रह्मशापोऽपि यं न प्रतिहतः क्वचित् ॥ १३ ॥
जब नाभाग उस धनको लेने लगा, तब उत्तर दिशासे एक काले रंगका पुरुष आया। उसने कहा—‘इस यज्ञभूमिमें जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है’ ॥ ६ ॥
नाभागने कहा—‘ऋषियोंने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।’ इसपर उस पुरुषने कहा—‘हमारे विवादके विषयमें तुम्हारे पितासे ही प्रश्र किया जाय।’ तब नाभाग ने जाकर पितासे पूछा ॥ ७ ॥ पिताने कहा—‘एक बार दक्षप्रजापतिके यज्ञमें ऋषिलोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमिमें जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्रदेवका हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेवजी को ही मिलना चाहिये’ ॥ ८ ॥ नाभाग ने जाकर उन काले रंगके पुरुष रुद्रभगवान् को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो ! यज्ञभूमिकी सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन् ! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ’ ॥ ९ ॥ तब भगवान् रुद्रने कहा—‘तुम्हारे पिताने धर्मके अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदोंका अर्थ तो पहलेसे ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्वका ज्ञान देता हूँ ॥ १० ॥ यहाँ यज्ञमें बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान् रुद्र अन्तर्धान हो गये ॥ ११ ॥ जो मनुष्य प्रात: और सायंकाल एकाग्रचित्तसे इस आख्यानका स्मरण करता है, वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूपको भी जान लेता है ॥ १२ ॥ नाभागके पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान् के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्मशाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीषका स्पर्श न कर सका ॥ १३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
Jay shree Krishna
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌺🌹🙏
जवाब देंहटाएंनमोनारायणाय
जवाब देंहटाएं🌼🍂🌺जय हो प्रभु हरि: हर 🙏
जवाब देंहटाएंॐ नमो भगवते वासुदेवाय
नारायण नारायण नारायण नारायण
जय श्री हरि
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