विदर्भ
देश के राजा श्वेत बड़े अच्छे पुरुष थे । राज्य से वैराग्य होने पर उन्होंने अरण्य
में जाकर तक तप किया और तप के फलस्वरूप उन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति हुई;
परंतु
उन्होंने जीवन में कभी किसी को भोजन दान नहीं किया था। इससे वे ब्रह्मलोक में भी
भूख से पीड़ित रहे । ब्रह्माजी ने उनसे कहा-'तुमने
किसी भिक्षुक को कभी भिक्षा नहीं दी । विविध भोगों से केवल अपने शरीर को ही पाला-पोसा
और तप किया । तप के फल से तुम मेरे लोकमें
आ गये । तुम्हारा मृत शरीर धरतीपर पड़ा है। वह
पुष्ट तथा अक्षय कर दिया गया है । तुम
उसीका मांस खाकर भूख मिटाओ । अगस्त्य
ऋषि के मिलने पर उस घृणित भोजन से छूट सकोगे ।"
उन्हीं श्वेत राजा को ब्रह्मलोक से आकर अपने शव का मांस खाना पड़ता था । यह अन्नदान न देने का फल है । फिर एक दिन उन्हें अगस्त्य ऋषि मिले । तब उनको इस अत्यन्त घृणित कार्य से छुटकारा मिला |
अतएव यहाँ अपनी सामर्थ्य
के अनुसार दान अवश्य करना चाहिये । यहाँ का
दिया हुआ ही----परलोक में
या पुनर्जन्म होने पर
प्राप्त होता है । यह आवश्यक नहीं है कि कोई इतने परिमाण में दान करे | जिसके पास
जो हो-उसी
में
से यथाशक्ति कुछ दान दिया करे ।
राजा श्वेत हुए अति वैभवशाली तपोनिष्ठ मतिमान ।
पर
न किया था कभी उन्होंने जीवन में भोजन का दान ॥
क्षुधा भयानक से पीड़ित वे आले प्रतिदिन चढ़े विमान ।
धरतीपर खाते स्वमांस अपने ही शवका घृणित महान ।।
----गीता
प्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “परलोक और पुनर्जन्मांक“ पुस्तक से (कोड 572)
नारायण नारायण नारायण नारायण
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