मंगलवार, 29 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीशुक उवाच ।
आत्ममायामृते राजन् पन्परस्यानुभवात्मनः ।
न घटेतार्थसम्बन्धः स्वप्नद्रष्टुरिवाञ्जसा ॥ १ ॥
बहुरूप इवाभाति मायया बहुरूपया ।
रममाणो गुणेष्वस्या ममाहमिति मन्यते ॥ २ ॥
यर्हि वाव महिम्नि स्वे परस्मिन् कालमाययोः ।
रमेत गतसम्मोहः त्यक्त्वोदास्ते तदोभयम् ॥ ३ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जैसे स्वप्नमें देखे जानेवाले पदार्थोंके साथ उसे देखनेवालेका कोई सम्बन्ध नहीं होता, वैसे ही देहादिसे अतीत अनुभवस्वरूप आत्माका मायाके बिना दृश्य पदार्थोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ॥ १ ॥ विविध रूपवाली मायाके कारण वह विविध रूपवाला प्रतीत होता है, और जब उसके गुणोंमें रम जाता है तब यह मैं हूँ, यह मेरा हैइस प्रकार मानने लगता है ॥ २ ॥ किन्तु जब यह गुणोंको क्षुब्ध करनेवाले काल और मोह उत्पन्न करनेवाली मायाइन दोनोंसे परे अपने अनन्त स्वरूपमें मोहरहित होकर रमण करने लगता हैआत्माराम हो जाता है, तब यह मैं, मेराका भाव छोडक़र पूर्ण उदासीनगुणातीत हो जाता है ॥ ३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                       0000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

आत्मतत्त्वविशुद्ध्यर्थं यदाह भगवानृतम् ।
ब्रह्मणे दर्शयन् रूपं अव्यलीकव्रतादृतः ॥ ४ ॥
स आदिदेवो जगतां परो गुरुः
    स्वधिष्ण्यमास्थाय सिसृक्षयैक्षत ।
तां नाध्यगछ्रद्दृशमत्र सम्मतां
    प्रपञ्चनिर्माणविधिर्यया भवेत् ॥ ५ ॥
स चिन्तयन् द्व्यक्षरमेकदाम्भसि
    उपाशृणोत् द्विर्गदितं वचो विभुः ।
स्पर्शेषु यत्षोडशमेकविंशं
    निष्किञ्चनानां नृप यद्धनं विदुः ॥ ६ ॥
निशम्य तद्वक्तृदिदृक्षया दिशो
    विलोक्य तत्रान्यदपश्यमानः ।
स्वधिष्ण्यमास्थाय विमृश्य तद्धितं
    तपस्युपादिष्ट इवादधे मनः ॥ ७ ॥

ब्रह्माजी की निष्कपट तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ने उन्हें अपने रूपका दर्शन कराया और आत्मतत्त्वके ज्ञानके लिये उन्हें परम सत्य परमार्थ वस्तुका उपदेश किया (वही बात मैं तुम्हें सुनाता हूँ) ॥ ४ ॥
तीनों लोकों के परम गुरु आदिदेव ब्रह्मा जी अपने जन्मस्थान कमल पर बैठकर सृष्टि करनेकी इच्छा से विचार करने लगे। परन्तु जिस ज्ञानदृष्टि से सृष्टि का निर्माण हो सकता था और जो सृष्टि व्यापारके लिये वाञ्छनीय है, वह दृष्टि उन्हें प्राप्त नहीं हुई ॥ ५ ॥ एक दिन वे यही चिन्ता कर रहे थे कि प्रलयके समुद्र में उन्होंने व्यञ्जनों के सोलहवें एवं इक्कीसवें अक्षर तथा को—‘तप-तप’ (‘तप करो’) इस प्रकार दो बार सुना। परीक्षित्‌ ! महात्मालोग इस तपको ही त्यागियोंका धन मानते हैं ॥ ६ ॥ यह सुनकर ब्रह्माजी ने वक्ता को देखने की इच्छासे चारों ओर देखा, परन्तु वहाँ दूसरा कोई दिखायी न पड़ा। वे अपने कमलपर बैठ गये और मुझे तप करने की प्रत्यक्ष आज्ञा मिली हैऐसा निश्चयकर और उसी में अपना हित समझकर उन्होंने अपने मनको तपस्यामें लगा दिया ॥ ७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                        00000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

दिव्यं सहस्राब्दममोघदर्शनो
    जितानिलात्मा विजितोभयेन्द्रियः ।
अतप्यत स्माखिललोकतापनं
    तपस्तपीयांस्तपतां समाहितः ॥ ८ ॥
तस्मै स्वलोकं भगवान् सभाजितः
    सन्दर्शयामास परं न यत्परम् ।
व्यपेतसङ्क्लेशविमोहसाध्वसं
    स्वदृष्टवद्‌भिः विबुधैरभिष्टुतम् ॥ ९ ॥
प्रवर्तते यत्र रजस्तमस्तयोः
    सत्त्वं च मिश्रं न च कालविक्रमः ।
न यत्र माया किमुतापरे हरेः
    अनुव्रता यत्र सुरासुरार्चिताः ॥ १० ॥
श्यामावदाताः शतपत्रलोचनाः
    पिशङ्गवस्त्राः सुरुचः सुपेशसः ।
सर्वे चतुर्बाहव उन्मिषन्मणि
    प्रवेकनिष्काभरणाः सुवर्चसः ।
प्रवालवैदूर्यमृणालवर्चसः
    परिस्फुरत्कुण्डल मौलिमालिनः ॥ ११ ॥
भ्राजिष्णुभिर्यः परितो विराजते
    लसद्विमानावलिभिर्महात्मनाम् ।
विद्योतमानः प्रमदोत्तमाद्युभिः
    सविद्युदभ्रावलिभिर्यथा नभः ॥ १२ ॥

ब्रह्माजी तपस्वियोंमें सबसे बड़े तपस्वी हैं। उनका ज्ञान अमोघ है। उन्होंने उस समय एक सहस्र दिव्य वर्षपर्यन्त एकाग्र चित्तसे अपने प्राण, मन, कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रियोंको वशमें करके ऐसी तपस्या की, जिससे वे समस्त लोकोंको प्रकाशित करनेमें समर्थ हो सके ॥ ८ ॥ उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवान्‌ने उन्हें अपना वह लोक दिखाया, जो सबसे श्रेष्ठ है और जिससे परे कोई दूसरा लोक नहीं है। उस लोकमें किसी भी प्रकारके क्लेश, मोह और भय नहीं हैं। जिन्हें कभी एक बार भी उसके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वे देवता बार-बार उसकी स्तुति करते रहते हैं ॥ ९ ॥ वहाँ रजोगुण, तमोगुण और इनसे मिला हुआ सत्त्वगुण भी नहीं है। वहाँ न काल की दाल गलती है और न माया ही कदम रख सकती है; फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। वहाँ भगवान्‌के वे पार्षद निवास करते हैं, जिनका पूजन देवता और दैत्य दोनों ही करते हैं ॥ १० ॥ उनका उज्ज्वल आभा से युक्त श्याम शरीर, शतदल कमल के समान कोमल नेत्र और पीले रंगके वस्त्रसे शोभायमान है। अङ्ग-अङ्गसे राशि-राशि सौन्दर्य बिखरता रहता है। वे कोमलता की मूर्ति हैं। सभी के चार-चार भुजाएँ हैं। वे स्वयं तो अत्यन्त तेजस्वी हैं ही, मणिजटित सुवर्ण के प्रभामय आभूषण भी धारण किये रहते हैं। उनकी छवि मूँगे, वैदूर्यमणि और कमल के उज्ज्वल तन्तु के समान है। उनके कानों में कुण्डल, मस्तकपर मुकुट और कण्ठ में मालाएँ शोभाय- मान हैं ॥ ११ ॥ जिस प्रकार आकाश बिजली सहित बादलों से शोभायमान होता है, वैसे ही वह लोक मनोहर कामिनियों की कान्ति से युक्त महात्माओं के दिव्य तेजोमय विमानों से स्थान-स्थानपर सुशोभित होता रहता है ॥ १२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                        000000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीर्यत्र रूपिण्युरुगायपादयोः
    करोति मानं बहुधा विभूतिभिः ।
प्रेङ्खं श्रिता या कुसुमाकरानुगैः
    विगीयमाना प्रियकर्म गायती ॥ १३ ॥
ददर्श तत्राखिलसात्वतां पतिं
    श्रियः पतिं यज्ञपतिं जगत्पतिम् ।
सुनंदनंदप्रबलार्हणादिभिः
    स्वपार्षदाग्रैः परिसेवितं विभुम् ॥ १४ ॥
भृत्यप्रसादाभिमुखं दृगासवं
    प्रसन्नहासारुणलोचनाननम् ।
किरीटिनं कुण्डलिनं चतुर्भुजं
    पीतांशुकं वक्षसि लक्षितं श्रिया ॥ १५ ॥
अध्यर्हणीयासनमास्थितं परं
    वृतं चतुःषोडशपञ्चशक्तिभिः ।
युक्तं भगैः स्वैरितरत्र चाध्रुवैः
    स्व एव धामन् रममाणमीश्वरम् ॥ १६ ॥

उस वैकुण्ठलोकमें लक्ष्मीजी सुन्दर रूप धारण करके अपनी विविध विभूतियोंके द्वारा भगवान्‌के चरणकमलोंकी अनेकों प्रकारसे सेवा करती रहती हैं। कभी-कभी जब वे झूलेपर बैठकर अपने प्रियतम भगवान्‌की लीलाओंका गायन करने लगती हैं, तब उनके सौन्दर्य और सुरभिसे उन्मत्त होकर भौंरे स्वयं उन लक्ष्मीजीका गुण-गान करने लगते हैं ॥ १३ ॥ ब्रह्माजी ने देखा कि उस दिव्य लोक में समस्त भक्तों के रक्षक, लक्ष्मीपति, यज्ञपति एवं विश्वपति भगवान्‌ विराजमान हैं। सुनन्द, नन्द, प्रबल और अहर्ण आदि मुख्य-मुख्य पार्षदगण उन प्रभुकी सेवा कर रहे हैं ॥ १४ ॥ उनका मुख-कमल प्रसाद-मधुर मुसकानसे युक्त है। आँखोंमें लाल-लाल डोरियाँ हैं। बड़ी मोहक और मधुर चितवन है। ऐसा जान पड़ता है कि अभी-अभी अपने प्रेमी भक्तको अपना सर्वस्व दे देंगे। सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और कंधेपर पीताम्बर जगमगा रहे हैं। वक्ष:स्थलपर एक सुनहरी रेखाके रूपमें श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं और सुन्दर चार भुजाएँ हैं ॥ १५ ॥ वे एक सर्वोत्तम और बहुमूल्य आसनपर विराजमान हैं। पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, मन, दस इन्द्रिय, शब्दादि पाँच तन्मात्राएँ और पञ्चभूतये पचीस शक्तियाँ मूर्तिमान् होकर उनके चारों ओर खड़ी हैं। समग्र ऐश्वर्य, धर्म, कीर्ति, श्री, ज्ञान और वैराग्यइन छ: नित्य- सिद्ध स्वरूपभूत शक्तियोंसे वे सर्वदा युक्त रहते हैं। उनके अतिरिक्त और कहीं भी ये नित्यरूपसे निवास नहीं करतीं। वे सर्वेश्वर प्रभु अपने नित्य आनन्दमय स्वरूपमें ही नित्य-निरन्तर निमग्न रहते हैं ॥१६॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                  00000000




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

तद्दर्शनाह्लादपरिप्लुतान्तरो
    हृष्यत्तनुः प्रेमभराश्रुलोचनः ।
ननाम पादाम्बुजमस्य विश्वसृग्
    यत् पारमहंस्येन पथाधिगम्यते ॥ १७ ॥
तं प्रीयमाणं समुपस्थितं कविं
    प्रजाविसर्गे निजशासनार्हणम् ।
बभाष ईषत्स्मितशोचिषा गिरा
    प्रियः प्रियं प्रीतमनाः करे स्पृशन् ॥ १८ ॥

उनका (भगवान् लक्ष्मीपति का) दर्शन करते ही ब्रह्माजी का हृदय आनन्द के उद्रेक से लबालब भर गया। शरीर पुलकित हो उठा, नेत्रों में प्रेमाश्रु छलक आये। ब्रह्माजी ने भगवान्‌ के उन चरणकमलों में, जो परमहंसों के निवृत्तिमार्ग से प्राप्त हो सकते हैं, सिर झुकाकर प्रणाम किया ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी के प्यारे भगवान्‌ अपने प्रिय ब्रह्मा को प्रेम और दर्शन के आनन्द में निमग्न, शरणागत तथा प्रजा-सृष्टि के लिये आदेश देने के योग्य देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने ब्रह्माजी से हाथ मिलाया तथा मन्द मुसकानसे अलंकृत वाणीमें कहा॥ १८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                             0000000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीभगवानुवाच ।
त्वयाहं तोषितः सम्यग् वेदगर्भ सिसृक्षया ।
चिरं भृतेन तपसा दुस्तोषः कूटयोगिनाम् ॥ १९ ॥
वरं वरय भद्रं ते वरेशं माभिवाञ्छितम् ।
ब्रह्मञ्छ्रेयः परिश्रामः पुंसां मद्दर्शनावधिः ॥ २० ॥
मनीषितानुभावोऽयं मम लोकावलोकनम् ।
यदुपश्रुत्य रहसि चकर्थ परमं तपः ॥ २१ ॥
प्रत्यादिष्टं मया तत्र त्वयि कर्मविमोहिते ।
तपो मे हृदयं साक्षाद् आत्माऽहं तपसोऽनघ ॥ २२ ॥
सृजामि तपसैवेदं ग्रसामि तपसा पुनः ।
बिभर्मि तपसा विश्वं वीर्यं मे दुश्चरं तपः ॥ २३ ॥

श्रीभगवान्‌ने कहाब्रह्माजी ! तुम्हारे हृदयमें तो समस्त वेदोंका ज्ञान विद्यमान है। तुमने सृष्टिरचनाकी इच्छासे चिरकालतक तपस्या करके मुझे भली-भाँति सन्तुष्ट कर दिया है। मनमें कपट रखकर योगसाधन करनेवाले मुझे कभी प्रसन्न नहीं कर सकते ॥ १९ ॥ तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, वही वर मुझसे माँग लो। क्योंकि मैं मुँहमाँगी वस्तु देनेमें समर्थ हूँ। ब्रह्माजी ! जीवके समस्त कल्याणकारी साधनोंका विश्रामपर्यवसान मेरे दर्शनमें ही है ॥ २० ॥ तुमने मुझे देखे बिना ही उस सूने जलमें मेरी वाणी सुनकर इतनी घोर तपस्या की है, इसीसे मेरी इच्छासे तुम्हें मेरे लोकका दर्शन हुआ है ॥ २१ ॥ तुम उस समय सृष्टिरचनाका कर्म करनेमें किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहे थे। इसीसे मैंने तुम्हें तपस्या करनेकी आज्ञा दी थी। क्योंकि निष्पाप ! तपस्या मेरा हृदय है और मैं स्वयं तपस्याका आत्मा हूँ ॥ २२ ॥ मैं तपस्यासे ही इस संसारकी सृष्टि करता हूँ, तपस्यासे ही इसका धारण-पोषण करता हूँ और फिर तपस्यासे ही इसे अपनेमें लीन कर लेता हूँ। तपस्या मेरी एक दुर्लङ्घ्य शक्ति है ॥ २३ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                  000000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

ब्रह्मोवाच
भगवन् सर्वभूतानां अध्यक्षोऽवस्थितो गुहाम् ।
वेद ह्यप्रतिरुद्धेन प्रज्ञानेन चिकीर्षितम् ॥ २४ ॥
तथापि नाथमानस्य नाथ नाथय नाथितम् ।
परावरे यथा रूपे जानीयां ते त्वरूपिणः ॥ २५ ॥
यथात्ममायायोगेन नानाशक्त्युपबृंहितम् ।
विलुम्पन् विसृजन् गृह्णन् बिभ्रदात्मानमात्मना ॥ २६ ॥
क्रीडस्यमोघसङ्कल्प ऊर्णनाभिर्यथोर्णुते ।
तथा तद्विषयां धेहि मनीषां मयि माधव ॥ २७ ॥
भगवच्छिक्षितमहं करवाणि ह्यतन्द्रितः ।
नेहमानः प्रजासर्गं बध्येयं यदनुग्रहात् ॥ २८ ॥

ब्रह्माजीने कहाभगवन् ! आप समस्त प्राणियोंके अन्त:करणमें साक्षीरूपसे विराजमान रहते हैं। आप अपने अप्रतिहत ज्ञानसे यह जानते ही हैं कि मैं क्या करना चाहता हूँ ॥ २४ ॥ नाथ ! आप कृपा करके मुझ याचककी यह माँग पूरी कीजिये कि मैं रूपरहित आपके सगुण और निर्गुण दोनों ही रूपोंको जान सकूँ ॥ २५ ॥ आप मायाके स्वामी हैं, आपका सङ्कल्प कभी व्यर्थ नहीं होता। जैसे मकड़ी अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें क्रीड़ा करती है और फिर उसे अपने में लीन कर लेती है, वैसे ही आप अपनी मायाका आश्रय लेकर इस विविध- शक्तिसम्पन्न जगत्की उत्पत्ति, पालन और संहार करनेके लिये अपने आपको ही अनेक रूपोंमें बना देते हैं और क्रीड़ा करते हैं। इस प्रकार आप कैसे करते हैंइस मर्मको मैं जान सकूँ, ऐसा ज्ञान आप मुझे दीजिये ॥ २६-२७ ॥ आप मुझपर ऐसी कृपा कीजिये कि मैं सजग रहकर सावधानीसे आपकी आज्ञाका पालन कर सकूँ और सृष्टिकी रचना करते समय भी कर्तापन आदिके अभिमानसे बँध न जाऊँ ॥ २८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                             000000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

यावत्सखा सख्युरिवेश ते कृतः
    प्रजाविसर्गे विभजामि भो जनम् ।
अविक्लबस्ते परिकर्मणि स्थितो
    मा मे समुन्नद्धमदोऽजमानिनः ॥ २९ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम् ।
सरहस्यं तदङ्गं च गृहाण गदितं मया ॥ ३० ॥
यावानहं यथाभावो यद् रूपगुणकर्मकः ।
तथैव तत्त्वविज्ञानं अस्तु ते मदनुग्रहात् ॥ ३१ ॥
अहमेवासमेवाऽग्रे नान्यद् यत्सदसत्परम् ।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम् ॥ ३२ ॥

(ब्रह्माजी कह रहे हैं) प्रभो ! आपने एक मित्रके समान हाथ पकडक़र मुझे अपना मित्र स्वीकार किया है। अत: जब मैं आपकी इस सेवासृष्टि-रचना में लगूँ और सावधानी से पूर्वसृष्टि के गुण-कर्मानुसार जीवों का विभाजन करने लगूँ, तब कहीं अपने को जन्म-कर्म से स्वतन्त्र मानकर प्रबल अभिमान न कर बैठूँ ॥ २९ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहाअनुभव, प्रेमाभक्ति और साधनोंसे युक्त अत्यन्त गोपनीय अपने स्वरूपका ज्ञान मैं तुम्हें कहता हूँ; तुम उसे ग्रहण करो ॥ ३० ॥ मेरा जितना विस्तार है, मेरा जो लक्षण है, मेरे जितने और जैसे रूप, गुण और लीलाएँ हैंमेरी कृपासे तुम उनका तत्त्व ठीक-ठीक वैसा ही अनुभव करो ॥ ३१ ॥ सृष्टिके पूर्व केवल मैं-ही-मैं था। मेरे अतिरिक्त न स्थूल था न सूक्ष्म और न तो दोनोंका कारण अज्ञान। जहाँ यह सृष्टि नहीं है, वहाँ मैं-ही-मैं हूँ और इस सृष्टिके रूपमें जो कुछ प्रतीत हो रहा है, वह भी मैं ही हूँ और जो कुछ बच रहेगा, वह भी मैं ही हूँ ॥ ३२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                           000000000000



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

ऋतेऽर्थं यत्प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि ।
तद्विद्याद् आत्मनो मायां यथाभासो यथा तमः ॥ ३३ ॥
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु ।
प्रविष्टानि अप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम् ॥ ३४ ॥
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः ।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत्स्यात् सर्वत्र सर्वदा ॥ ३५ ॥
एतन्मतं समातिष्ठ परमेण समाधिना ।
भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित् ॥ ३६ ॥

(श्रीभगवान्‌ कहते हैं) वास्तवमें न होनेपर भी जो कुछ अनिर्वचनीय वस्तु मेरे अतिरिक्त मुझ परमात्मा में दो चन्द्रमाओं की तरह मिथ्या ही प्रतीत हो रही है, अथवा विद्यमान होनेपर भी आकाश-मण्डलके नक्षत्रों में राहुकी भाँति जो मेरी प्रतीति नहीं होती, इसे मेरी माया समझना चाहिये ॥ ३३ ॥ जैसे प्राणियोंके पञ्चभूतरचित छोटे-बड़े शरीरों में आकाशादि पञ्चमहाभूत उन शरीरोंके कार्यरूपसे निर्मित होनेके कारण प्रवेश करते भी हैं और पहलेसे ही उन स्थानों और रूपोंमें कारणरूपसे विद्यमान रहनेके कारण प्रवेश नहीं भी करते, वैसे ही उन प्राणियोंके शरीरकी दृष्टिसे मैं उनमें आत्माके रूपसे प्रवेश किये हुए हूँ और आत्मदृष्टिसे अपने अतिरिक्त और कोई वस्तु न होनेके कारण उनमें प्रविष्ट नहीं भी हूँ ॥ ३४ ॥ यह ब्रह्म नहीं, यह ब्रह्म नहींइस प्रकार निषेधकी पद्धतिसे, और यह ब्रह्म है, यह ब्रह्म हैइस अन्वयकी पद्धतिसे यही सिद्ध होता है कि सर्वातीत एवं सर्वस्वरूप भगवान्‌ ही सर्वदा और सर्वत्र स्थित हैं, वही वास्तविक तत्त्व हैं। जो आत्मा अथवा परमात्मा का तत्त्व जानना चाहते हैं, उन्हें केवल इतना ही जानने की आवश्यकता है ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी ! तुम अविचल समाधि के द्वारा मेरे इस सिद्धान्त में पूर्ण निष्ठा कर लो। इससे तुम्हें कल्प-कल्पमें विविध प्रकारकी सृष्टिरचना करते रहनेपर भी कभी मोह नहीं होगा ॥ ३६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                               0000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- नवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

ब्रह्माजी का भगवद्धामदर्शन और भगवान्‌
के द्वारा उन्हें चतु:श्लोकी भागवतका उपदेश

श्रीशुक उवाच ।
सम्प्रदिश्यैवमजनो जनानां परमेष्ठिनम् ।
पश्यतः तस्य तद् रूपं आत्मनो न्यरुणद्धरिः ॥ ३७ ॥
अन्तर्हितेन्द्रियार्थाय हरये विहिताञ्जलिः ।
सर्वभूतमयो विश्वं ससर्जेदं स पूर्ववत् ॥ ३८ ॥
प्रजापतिर्धर्मपतिः एकदा नियमान् यमान् ।
भद्रं प्रजानामन्विच्छन् नातिष्ठत्स्वार्थकाम्यया ॥ ३९ ॥
तं नारदः प्रियतमो रिक्थादानामनुव्रतः ।
शुश्रूषमाणः शीलेन प्रश्रयेण दमेन च ॥ ४० ॥
मायां विविदिषन् विष्णोः मायेशस्य महामुनिः ।
महाभागवतो राजन् पितरं पर्यतोषयत् ॥ ४१ ॥
तुष्टं निशाम्य पितरं लोकानां प्रपितामहम् ।
देवर्षिः परिपप्रच्छ भवान् यन्मानुपृच्छति ॥ ४२ ॥
तस्मा इदं भागवतं पुराणं दशलक्षणम् ।
प्रोक्तं भगवता प्राह प्रीतः पुत्राय भूतकृत् ॥ ४३ ॥
नारदः प्राह मुनये सरस्वत्यास्तटे नृप ।
ध्यायते ब्रह्म परमं व्यासाय अमिततेजसे ॥ ४४ ॥
यदुताहं त्वया पृष्टो वैराजात्पुरुषादिदम् ।
यथासीत् तदुपाख्यास्ते प्रश्नान् अन्यांश्च कृत्स्नशः ॥ ४५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंलोकपितामह ब्रह्माजीको इस प्रकार उपदेश देकर अजन्मा भगवान्‌ ने उनके देखते-ही-देखते अपने उस रूपको छिपा लिया ॥ ३७ ॥ जब सर्वभूतस्वरूप ब्रह्माजीने देखा कि भगवान्‌ने अपने इन्द्रियगोचर स्वरूपको हमारे नेत्रोंके सामनेसे हटा लिया है, तब उन्होंने अञ्जलि बाँधकर उन्हें प्रणाम किया और पहले कल्पमें जैसी सृष्टि थी, उसी रूपमें इस विश्वकी रचना की ॥ ३८ ॥ एक बार धर्मपति, प्रजापति ब्रह्माजीने सारी जनताका कल्याण हो, अपने इस स्वार्थकी पूर्तिके लिये विधिपूर्वक यम-नियमोंको धारण किया ॥ ३९ ॥ उस समय उनके पुत्रोंमें सबसे अधिक प्रिय, परम भक्त देवर्षि नारदजीने मायापति भगवान्‌की मायाका तत्त्व जाननेकी इच्छासे बड़े संयम, विनय और सौम्यतासे अनुगत होकर उनकी सेवा की। और उन्होंने सेवासे ब्रह्माजीको बहुत ही सन्तुष्ट कर लिया ॥ ४०-४१ ॥ परीक्षित्‌ ! जब देवर्षि नारदने देखा कि मेरे लोकपितामह पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, तब उन्होंने उनसे यही प्रश्र किया, जो तुम मुझसे कर रहे हो ॥ ४२ ॥ उनके प्रश्र से ब्रह्मा जी और भी प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने यह दस लक्षणवाला भागवतपुराण अपने पुत्र नारद को सुनाया जिसका स्वयं भगवान्‌ ने उन्हें उपदेश किया था ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय मेरे परमतेजस्वी पिता सरस्वतीके तटपर बैठकर परमात्माके ध्यानमें मग्र थे, उस समय देवर्षि नारदजीने वही भागवत उन्हें सुनाया ॥ ४४ ॥ तुमने मुझसे जो यह प्रश्र किया है कि विराट् पुरुषसे इस जगत् की  उत्पत्ति कैसे हुई, तथा दूसरे भी जो बहुत-से प्रश्र किये हैं, उन सबका उत्तर मैं उसी भागवतपुराण के रूपमें देता हूँ ॥ ४५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                         0000000000000000




श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्र

राजोवाच ।
ब्रह्मणा चोदितो ब्रह्मन् गुणाख्यानेऽगुणस्य च ।
यस्मै यस्मै यथा प्राह नारदो देवदर्शनः ॥ १ ॥
एतत् वेदितुमिच्छामि तत्त्वं तत्त्वविदां वर ।
हरेरद्‍भुतवीर्यस्य कथा लोकसुमङ्गलाः ॥ २ ॥
कथयस्व महाभाग यथाऽहं अखिलात्मनि ।
कृष्णे निवेश्य निःसङ्गं मनस्त्यक्ष्ये कलेवरम् ॥ ३ ॥
शृण्वतः श्रद्धया नित्यं गृणतश्च स्वचेष्टितम् ।
कालेन नातिदीर्घेण भगवान्विशते हृदि ॥ ४ ॥
प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहम् ।
धुनोति शमलं कृष्णः सलिलस्य यथा शरत् ॥ ५ ॥
धौतात्मा पुरुषः कृष्ण पादमूलं न मुञ्चति ।
मुक्तसर्वपरिक्लेशः पान्थः स्वशरणं यथा ॥ ६ ॥

राजा परीक्षित्‌ने कहाभगवन् ! आप वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ कि जब ब्रह्माजीने निर्गुण भगवान्‌के गुणोंका वर्णन करनेके लिये नारदजीको आदेश दिया, तब उन्होंने किन-किनको किस रूपमें उपदेश किया ? एक तो अचिन्त्य शक्तियोंके आश्रय भगवान्‌की कथाएँ ही लोगोंका परम मङ्गल करनेवाली हैं, दूसरे देवर्षि नारदका सबको भगवद्दर्शन करानेका स्वभाव है। अवश्य ही आप उनकी बातें मुझे सुनाइये ॥ १-२ ॥ महाभाग्यवान् शुकदेवजी ! आप मुझे ऐसा उपदेश कीजिये कि मैं अपने आसक्तिरहित मनको सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्णमें तन्मय करके अपना शरीर छोड़ सकूँ ॥ ३ ॥ जो लोग उनकी लीलाओंका श्रद्धाके साथ नित्य श्रवण और कथन करते हैं, उनके हृदयमें थोड़े ही समयमें भगवान्‌ प्रकट हो जाते हैं ॥ ४ ॥ श्रीकृष्ण कानके छिद्रोंके द्वारा अपने भक्तोंके भावमय हृदयकमलपर जाकर बैठ जाते हैं और जैसे शरद् ऋतु जलका गँदलापन मिटा देती है, वैसे ही वे भक्तोंके मनोमलका नाश कर देते हैं ॥ ५ ॥ जिसका हृदय शुद्ध हो जाता है, वह श्रीकृष्णके चरणकमलोंको एक क्षणके लिये भी नहीं छोड़ताजैसे मार्गके समस्त क्लेशोंसे छूटकर घर आया हुआ पथिक अपने घरको नहीं छोड़ता ॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                        00000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्र

यदधातुमतो ब्रह्मन्देहारम्भोऽस्य धातुभिः ।
यदृच्छया हेतुना वा भवन्तो जानते यथा ॥ ७ ॥
आसीद् यदुदरात्पद्मं लोकसंस्थानलक्षणम् ।
यावानयं वै पुरुष इयत्तावयवैः पृथक् ।
तावानसाविति प्रोक्तः संस्थावयववानिव ॥ ८ ॥
अजः सृजति भूतानि भूतात्मा यदनुग्रहात् ।
ददृशे येन तद् रूपं नाभिपद्मसमुद्‍भवः ॥ ९ ॥
स चाऽपि यत्र पुरुषो विश्वस्थित्युद्‍भवाप्ययः ।
मुक्त्वाऽऽत्ममायां मायेशः शेते सर्वगुहाशयः ॥ १० ॥

(राजा परीक्षित्‌ कहते हैं) भगवन् ! जीव का पञ्चभूतोंके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी इसका शरीर पञ्चभूतोंसे ही बनता है। तो क्या स्वभावसे ही ऐसा होता है, अथवा किसी कारणवशआप इस बातका मर्म पूर्णरीतिसे जानते हैं ॥ ७ ॥ (आपने बतलाया कि) भगवान्‌की नाभिसे वह कमल प्रकट हुआ, जिसमें लोकोंकी रचना हुई। यह जीव अपने सीमित अवयवोंसे जैसे परिच्छिन्न है, वैसे ही आपने परमात्माको भी सीमित अवयवोंसे परिच्छिन्न-सा वर्णन किया (यह क्या बात है ?) ॥ ८ ॥ जिनकी कृपासे सर्वभूतमय ब्रह्माजी प्राणियोंकी सृष्टि करते हैं, जिनके नाभिकमलसे पैदा होनेपर भी जिनकी कृपासे ही ये उनके रूपका दर्शन कर सके थे, वे संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके हेतु, सर्वान्तर्यामी और मायाके स्वामी परमपुरुष परमात्मा अपनी मायाका त्याग करके किसमें किस रूपसे शयन करते हैं ? ॥ ९-१० ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                                   0000000000


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्र

पुरुषावयवैर्लोकाः सपालाः पूर्वकल्पिताः ।
लोकैरमुष्यावयवाः सपालैरिति शुश्रुम ॥ ११ ॥
यावान् कल्पो विकल्पो वा यथा कालोऽनुमीयते ।
भूतभव्यभवच्छब्द आयुर्मानश्च यत् सतः ॥ १२ ॥
कालस्यानुगतिर्या तु लक्ष्यतेऽण्वी बृहत्यपि ।
यावत्यः कर्मगतयो यादृशी द्विजसत्तम ॥ १३ ॥
यस्मिन् कर्मसमावायो यथा येनोपगृह्यते ।
गुणानां गुणिनाश्चैव परिणाममभीप्सताम् ॥ १४ ॥
भूपातालककुब्व्योम ग्रहनक्षत्रभूभृताम् ।
सरित्समुद्रद्वीपानां सम्भवश्चैतदोकसाम् ॥ १५ ॥
प्रमाणमण्डकोशस्य बाह्याभ्यन्तरभेदतः ।
महतां चानुचरितं वर्णाश्रमविनिश्चयः ॥ १६ ॥

(राजा परीक्षित्‌ कहरहे  हैं) पहले आपने बतलाया था कि विराट् पुरुषके अङ्गोंसे लोक और लोकपालोंकी रचना हुई और फिर यह भी बतलाया कि लोक और लोकपालोंके रूपमें उसके अङ्गोंकी कल्पना हुई। इन दोनों बातोंका तात्पर्य क्या है ? ॥ ११ ॥ महाकल्प और उनके अन्तर्गत अवान्तर कल्प कितने हैं ? भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालका अनुमान किस प्रकार किया जाता है ? क्या स्थूल देहाभिमानी जीवोंकी आयु भी बँधी हुई है ॥ १२ ॥ ब्राह्मणश्रेष्ठ ! कालकी सूक्ष्म गति त्रुटि आदि और स्थूल गति वर्ष आदि किस प्रकारसे जानी जाती है ? विविध कर्मोंसे जीवोंकी कितनी और कैसी गतियाँ होती हैं ॥ १३ ॥ देव, मनुष्य आदि योनियाँ सत्त्व, रज, तमइन तीन गुणोंके फलस्वरूप ही प्राप्त होती हैं। उनको चाहनेवाले जीवोंमें से कौन-कौन किस-किस योनिको प्राप्त करनेके लिये किस-किस प्रकारसे कौन-कौन कर्म स्वीकार करते हैं ? ॥ १४ ॥ पृथ्वी, पाताल, दिशा, आकाश, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप और उनमें रहनेवाले जीवोंकी उत्पत्ति कैसे होती है ? ॥ १५ ॥ ब्रह्माण्डका परिमाण भीतर और बाहरदोनों प्रकारसे बतलाइये। साथ ही महापुरुषोंके चरित्र, वर्णाश्रमके भेद और उनके धर्मका निरूपण कीजिये ॥ १६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                           0000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्र

युगानि युगमानश्च धर्मो यश्च युगे युगे ।
अवतारानुचरितं यदाश्चर्यतमं हरेः ॥ १७ ॥
नृणां साधारणो धर्मः सविशेषश्च यादृशः ।
श्रेणीनां राजर्षीणाञ्च धर्मः कृच्छ्रेषु जीवताम् ॥ १८ ॥
तत्त्वानां परिसङ्ख्यानं लक्षणं हेतुलक्षणम् ।
पुरुषाराधनविधिः योगस्याध्यात्मिकस्य च ॥ १९ ॥
योगेश्वरैश्वर्यगतिः लिङ्गभङ्गस्तु योगिनाम् ।
वेदोपवेदधर्माणां इतिहासपुराणयोः ॥ २० ॥
सम्प्लवः सर्वभूतानां विक्रमः प्रतिसङ्क्रमः ।
इष्टापूर्तस्य काम्यानां त्रिवर्गस्य च यो विधिः ॥ २१ ॥
यश्चानुशायिनां सर्गः पाषण्डस्य च सम्भवः ।
आत्मनो बन्धमोक्षौ च व्यवस्थानं स्वरूपतः ॥ २२ ॥

युगोंके भेद, उनके परिमाण और उनके अलग-अलग धर्म तथा भगवान्‌के विभिन्न अवतारोंके परम आश्चर्यमय चरित्र भी बतलाइये ॥ १७ ॥ मनुष्योंके साधारण और विशेष धर्म कौन-कौन-से हैं ? विभिन्न व्यवसायवाले लोगोंके, राजर्षियोंके और विपत्तिमें पड़े हुए लोगोंके धर्मका भी उपदेश कीजिये ॥ १८ ॥ तत्त्वोंकी संख्या कितनी है, उनके स्वरूप और लक्षण क्या हैं ? भगवान्‌की आराधनाकी और अध्यात्मयोगकी विधि क्या है ? ॥ १९ ॥ योगेश्वरोंको क्या-क्या ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं, तथा अन्तमें उन्हें कौन-सी गति मिलती है ? योगियोंका लिङ्गशरीर किस प्रकार भङ्ग होता है ? वेद, उपवेद, धर्मशास्त्र, इतिहास और पुराणोंका स्वरूप एवं तात्पर्य क्या है ? ॥ २० ॥ समस्त प्राणियोंकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय कैसे होता है ? बावली, कुआँ खुदवाना आदि स्मार्त, यज्ञ-यागादि वैदिक, एवं काम्य कर्मोंकी तथा अर्थ-धर्म- कामके साधनोंकी विधि क्या है ? ॥ २१ ॥ प्रलयके समय जो जीव प्रकृतिमें लीन रहते हैं, उनकी उत्पत्ति कैसे होती है ? पाखण्डकी उत्पत्ति कैसे होती है ? आत्माके बन्ध-मोक्षका स्वरूप क्या है ? और वह अपने स्वरूपमें किस प्रकार स्थित होता है ? ॥ २२ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
                                   00000000000

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

राजा परीक्षित् के विविध प्रश्र

यथात्मतन्त्रो भगवान् विक्रीडत्यात्ममायया ।
विसृज्य वा यथा मायां उदास्ते साक्षिवद्विभुः ॥ २३ ॥
सर्वमेतच्च भगवन् पृच्छतो मेऽनुपूर्वशः ।
तत्त्वतोऽर्हस्युदाहर्तुं प्रपन्नाय महामुने ॥ २४ ॥
अत्र प्रमाणं हि भवान् परमेष्ठी यथात्मभूः ।
अपरे चानुतिष्ठन्ति पूर्वेषां पूर्वजैः कृतम् ॥ २५ ॥
न मेऽसवः परायन्ति ब्रह्मन् अनशनादमी ।
पिबतोऽच्युतपीयूषं अन्यत्र कुपिताद् द्विजात् ॥ २६ ॥

श्रीसूत उवाच
स उपामन्त्रितो राज्ञा कथायामिति सत्पतेः ।
ब्रह्मरातो भृशं प्रीतो विष्णुरातेन संसदि ॥ २७ ॥
प्राह भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम् ।
ब्रह्मणे भगवत्प्रोक्तं ब्रह्मकल्प उपागते ॥ २८ ॥
यद्यत् परीक्षिदृषभः पाण्डूनामनुपृच्छति ।
आनुपूर्व्येण तत्सर्वं आख्यातुमुपचक्रमे ॥ २९ ॥

भगवान्‌ तो परम स्वतन्त्र हैं। वे अपनी मायासे किस प्रकार क्रीड़ा करते हैं और उसे छोडक़र साक्षीके समान उदासीन कैसे हो जाते हैं ? ॥ २३ ॥ भगवन् ! मैं यह सब आपसे पूछ रहा हूँ। मैं आपकी शरणमें हूँ। महामुने ! आप कृपा करके क्रमश: इनका तात्त्विक निरूपण कीजिये ॥ २४ ॥ इस विषयमें आप स्वयम्भू ब्रह्माके समान परम प्रमाण हैं। दूसरे लोग तो अपनी पूर्वपरम्परासे सुनी-सुनायी बातोंका ही अनुष्ठान करते हैं ॥ २५ ॥ ब्रह्मन् आप मेरी भूख-प्यासकी चिन्ता न करें। मेरे प्राण कुपित ब्राह्मणके शापके अतिरिक्त और किसी कारणसे निकल नहीं सकते; क्योंकि मैं आपके मुखारविन्दसे निकलनेवाली भगवान्‌की अमृतमयी लीला-कथाका पान कर रहा हूँ ॥ २६ ॥
सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! जब राजा परीक्षित्‌ने संतोंकी सभामें भगवान्‌की लीलाकथा सुनाने के लिये इस प्रकार प्रार्थना की, तब श्रीशुकदेवजीको बड़ी प्रसन्नता हुई ॥ २७ ॥ उन्होंने उन्हें वही वेदतुल्य श्रीमद्भागवत-महापुराण सुनाया, जो ब्राह्मकल्पके आरम्भमें स्वयं भगवान्‌ने ब्रह्माजीको सुनाया था ॥ २८ ॥ पाण्डुवंशशिरोमणि परीक्षित्‌ने उनसे जो-जो प्रश्र किये थे, वे उन सबका उत्तर क्रमश: देने लगे ॥ २९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...