मंगलवार, 29 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

ब्रह्मोवाच ।

वाचां वह्नेर्मुखं क्षेत्रं छन्दसां सप्त धातवः ।
हव्यकव्यामृत अन्नानां जिह्वा सर्व रसस्य च ॥ १ ॥
सर्वा असूनां च वायोश्च तत् नासे परमायणे ।
अश्विनोः ओषधीनां च घ्राणो मोद प्रमोदयोः ॥ २ ॥
रूपाणां तेजसां चक्षुः दिवः सूर्यस्य चाक्षिणी ।
कर्णौ दिशां च तीर्थानां श्रोत्रं आकाश शब्दयोः ।
तद्‍गात्रं वस्तुसाराणां सौभगस्य च भाजनम् ॥ ३ ॥

ब्रह्माजी कहते हैंउन्हीं विराट् पुरुष के मुखसे वाणी और उसके अधिष्ठातृदेवता अग्नि उत्पन्न हुए हैं। सातों छन्द [*] उनकी सात धातुओंसे निकले हैं। मनुष्यों, पितरों और देवताओंके भोजन करनेयोग्य अमृतमय अन्न, सब प्रकारके रस, रसनेन्द्रिय और उसके अधिष्ठातृदेवता वरुण विराट् पुरुषकी जिह्वासे उत्पन्न हुए हैं ॥ १ ॥ उनके नासाछिद्रोंसे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समानये पाँचों प्राण और वायु तथा घ्राणेन्द्रियसे अश्विनीकुमार, समस्त ओषधियाँ एवं साधारण तथा विशेष गन्ध उत्पन्न हुए हैं ॥ २ ॥ उनकी नेत्रेन्द्रिय रूप और तेजकी तथा नेत्र-गोलक स्वर्ग और सूर्यकी जन्मभूमि हैं। समस्त दिशाएँ और पवित्र करनेवाले तीर्थ कानोंसे तथा आकाश और शब्द श्रोत्रेन्द्रियसे निकले हैं। उनका शरीर संसारकी सभी वस्तुओंके सारभाग तथा सौन्दर्यका खजाना है ॥ ३ ॥

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[*] गायत्री, त्रिष्टुप्, अनुष्टुप्, उष्णिक्, बृहती, पङ्क्ति और जगतीये सात छन्द हैं।

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

त्वगस्य स्पर्शवायोश्च सर्व मेधस्य चैव हि ।
रोमाणि उद्‌भिज्ज जातीनां यैर्वा यज्ञस्तु सम्भृतः ॥ ४ ॥
केश श्मश्रु नखान्यस्य शिलालोहाभ्र विद्युताम् ।
बाहवो लोकपालानां प्रायशः क्षेमकर्मणाम् ॥ ५ ॥
विक्रमो भूर्भुवःस्वश्च क्षेमस्य शरणस्य च ।
सर्वकाम वरस्यापि हरेश्चरण आस्पदम् ॥ ६ ॥
अपां वीर्यस्य सर्गस्य पर्जन्यस्य प्रजापतेः ।
पुंसः शिश्न उपस्थस्तु प्रजात्यानन्द निर्वृतेः ॥ ७ ॥
पायुर्यमस्य मित्रस्य परिमोक्षस्य नारद ।
हिंसाया निर्‌ऋतेर्मृत्यो निरयस्य गुदः स्मृतः ॥ ८ ॥
पराभूतेः अधर्मस्य तमसश्चापि पश्चिमः ।
नाड्यो नदनदीनां च गोत्राणां अस्थिसंहतिः ॥ ९ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) सारे यज्ञ, स्पर्श और वायु उनकी (विराट् पुरुष की) त्वचासे निकले हैं; उनके रोम सभी उद्भिज्ज पदार्थोंके जन्मस्थान हैं, अथवा केवल उन्हींके, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते हैं ॥ ४ ॥ उनके केश, दाढ़ी-मूँछ और नखोंसे मेघ, बिजली, शिला एवं लोहा आदि धातुएँ तथा भुजाओंसे प्राय: संसारकी रक्षा करनेवाले लोकपाल प्रकट हुए हैं ॥ ५ ॥ उनका चलना-फिरना भू:, भुव:, स्व:तीनों लोकोंका आश्रय है। उनके चरणकमल प्राप्तकी रक्षा करते हैं और भयोंको भगा देते हैं तथा समस्त कामनाओंकी पूर्ति उन्हींसे होती है ॥ ६ ॥ विराट् पुरुषका लिङ्ग जल, वीर्य, सृष्टि, मेघ और प्रजापति का आधार है तथा उनकी जननेन्द्रिय मैथुनजनित आनन्द का उद्गम है ॥ ७ ॥ नारद जी ! विराट् पुरुषकी पायु-इन्द्रिय यम, मित्र और मलत्यागका तथा गुदाद्वार हिंसा, निर्ऋति, मृत्यु और नरकका उत्पत्तिस्थान है ॥ ८ ॥ उनकी पीठसे पराजय, अधर्म और अज्ञान, नाडिय़ोंसे नद-नदी और हड्डियोंसे पर्वतोंका निर्माण हुआ है ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

अव्यक्त रससिन्धूनां भूतानां निधनस्य च ।
उदरं विदितं पुंसो हृदयं मनसः पदम् ॥ १० ॥
धर्मस्य मम तुभ्यं च कुमाराणां भवस्य च ।
विज्ञानस्य च सत्त्वस्य परस्याऽऽत्मा परायणम् ॥ ११ ॥
अहं भवान् भवश्चैव त इमे मुनयोऽग्रजाः ।
सुरासुरनरा नागाः खगा मृगसरीसृपाः ॥ १२ ॥
गन्धर्वाप्सरसो यक्षा रक्षोभूतगणोरगाः ।
पशवः पितरः सिद्धा विद्याध्राश्चारणा द्रुमाः ॥ १३ ॥
अन्ये च विविधा जीवाः जल स्थल नभौकसः ।
ग्रह ऋक्ष केतवस्ताराः तडितः स्तनयित्‍नवः ॥ १४ ॥
सर्वं पुरुष एवेदं भूतं भव्यं भवच्च यत् ।
तेनेदं आवृतं विश्वं वितस्तिं अधितिष्ठति ॥ १५ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  उनके (विराट् पुरुष के ) उदरमें मूल प्रकृति, रस नामकी धातु तथा समुद्र, समस्त प्राणी और उनकी मृत्यु समायी हुई है। उनका हृदय ही मनकी जन्मभूमि है ॥ १० ॥ नारद ! हम, तुम, धर्म, सनकादि, शङ्कर, विज्ञान और अन्त:करणसब-के-सब उनके चित्तके आश्रित हैं ॥ ११ ॥ (कहाँतक गिनायें—) मैं, तुम, तुम्हारे बड़े भाई सनकादि, शङ्कर, देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, मृग, रेंगनेवाले जन्तु, गन्धर्व, अप्सराएँ, यक्ष, राक्षस, भूत-प्रेत, सर्प, पशु, पितर, सिद्ध, विद्याधर, चारण, वृक्ष और भी नाना प्रकारके जीवजो आकाश, जल या स्थलमें रहते हैंग्रह-नक्षत्र, केतु (पुच्छल तारे), तारे, बिजली और बादलये सब-के-सब विराट् पुरुष ही हैं। यह सम्पूर्ण विश्वजो कुछ कभी था, है या होगासबको वह घेरे हुए है और उसके अंदर यह विश्व उसके केवल दस अंगुलके [*] परिमाणमें ही स्थित है ॥ १२१५ ॥
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 [*] ब्रह्माण्डके सात आवरणोंका वर्णन करते हुए वेदान्त-प्रक्रिया में ऐसा माना है किपृथ्वीसे दसगुना जल है, जलसे दसगुना अग्रि, अग्रिसे दसगुना वायु, वायुसे दसगुना आकाश, आकाशसे दसगुना अहंकार, अहंकारसे दसगुना महत्तत्त्व और महत्तत्त्वसे दसगुनी मूल प्रकृति है। वह प्रकृति भगवान्‌के केवल एक पादमें है। इस प्रकार भगवान्‌की महत्ता प्रकट की गयी है। यह दशाङ्गुलन्याय कहलाता है।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

स्वधिष्ण्यं प्रतपन् प्राणो बहिश्च प्रतपत्यसौ ।
एवं विराजं प्रतपन् तपत्यन्तः बहिः पुमान् ॥ १६ ॥
सोऽमृतस्याभयस्येशो मर्त्यं अन्नं यदत्यगात् ।
महिमा एष ततो ब्रह्मन् पुरुषस्य दुरत्ययः ॥ १७ ॥
पादेषु सर्वभूतानि पुंसः स्थितिपदो विदुः ।
अमृतं क्षेममभयं त्रिमूर्ध्नोऽधायि मूर्धसु ॥ १८ ॥

जैसे सूर्य अपने मण्डलको प्रकाशित करते हुए ही बाहर भी प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही पुराणपुरुष परमात्मा भी सम्पूर्ण विराट् विग्रह को प्रकाशित करते हुए ही उसके बाहर-भीतरसर्वत्र एकरस प्रकाशित हो रहा है ॥ १६ ॥ मुनिवर ! जो कुछ मनुष्यकी क्रिया और सङ्कल्पसे बनता है, उससे वह परे है और अमृत एवं अभयपद (मोक्ष) का स्वामी है। यही कारण है कि कोई भी उसकी महिमाका पार नहीं पा सकता ॥ १७ ॥ सम्पूर्ण लोक भगवान्‌के एक पादमात्र (अशंमात्र) हैं तथा उनके अंशमात्र लोकोंमें समस्त प्राणी निवास करते हैं। भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके ऊपर महर्लोक है। उसके भी ऊपर जन, तप और सत्यलोकोंमें क्रमश: अमृत, क्षेम एवं अभयका नित्य निवास है ॥ १८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

पादास्त्रयो बहिश्चासन् अप्रजानां य आश्रमाः ।
अन्तः त्रिलोक्यास्त्वपरो गृहमेधोऽबृहद्व्रतः ॥ १९ ॥
सृती विचक्रमे विश्वङ् साशनानशने उभे ।
यद् अविद्या च विद्या च पुरुषस्तु उभयाश्रयः ॥ २० ॥
यस्माद् अण्डं विराड् जज्ञे भूतेन्द्रिय गुणात्मकः ।
तद् द्रव्यं अत्यगाद् विश्वं गोभिः सूर्य इवाऽतपन् ॥ २१ ॥

जन, तप और सत्यइन तीनों लोकोंमें ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ एवं संन्यासी निवास करते हैं। दीर्घकालीन ब्रह्मचर्यसे रहित गृहस्थ भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोकके भीतर ही निवास करते हैं ॥ १९ ॥ शास्त्रोंमें दो मार्ग बतलाये गये हैंएक अविद्यारूप कर्म-मार्ग, जो सकाम पुरुषोंके लिये है और दूसरा उपासनारूप विद्याका मार्ग, जो निष्काम उपासकोंके लिये है। मनुष्य दोनोंमेंसे किसी एकका आश्रय लेकर भोग प्राप्त करानेवाले दक्षिणमार्गसे अथवा मोक्ष प्राप्त करानेवाले उत्तरमार्गसे यात्रा करता है; किन्तु पुरुषोत्तम भगवान्‌ दोनोंके आधारभूत हैं ॥ २० ॥ जैसे सूर्य अपनी किरणोंसे सबको प्रकाशित करते हुए भी सबसे अलग हैं, वैसे ही जिन परमात्मासे इस अण्डकी और पञ्चभूत, एकादश इन्द्रिय एवं गुणमय विराट्की उत्पत्ति हुई हैवे प्रभु भी इन समस्त वस्तुओंके अंदर और उनके रूपमें रहते हुए भी उनसे सर्वथा अतीत हैं ॥ २१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

यदास्य नाभ्यान्नलिनाद् अहं आसं महात्मनः ।
नाविंदं यज्ञसम्भारान् पुरुषा अवयवात् ऋते ॥ २२ ॥
तेषु यज्ञस्य पशवः सवनस्पतयः कुशाः ।
इदं च देवयजनं कालश्चोरु गुणान्वितः ॥ २३ ॥
वस्तूनि ओषधयः स्नेहा रस-लोह-मृदो जलम् ।
ऋचो यजूंषि सामानि चातुर्होत्रं च सत्तम ॥ २४ ॥
नामधेयानि मंत्राश्च दक्षिणाश्च व्रतानि च ।
देवतानुक्रमः कल्पः सङ्कल्पः तन्त्रमेव च ॥ २५ ॥
गतयो मतयश्चैव प्रायश्चित्तं समर्पणम् ।
पुरुषा अवयवैः एते संभाराः संभृता मया ॥ २६ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  जिस समय इस विराट् पुरुषके नाभि-कमल से मेरा जन्म हुआ, उस समय इस पुरुषके अङ्गोंके अतिरिक्त मुझे और कोई भी यज्ञकी सामग्री नहीं मिली ॥ २२ ॥ तब मैंने उनके अङ्गोंमें ही यज्ञके पशु, यूप (स्तम्भ), कुश, यह यज्ञभूमि और यज्ञके योग्य उत्तम कालकी कल्पना की ॥ २३ ॥ ऋषिश्रेष्ठ ! यज्ञके लिये आवश्यक पात्र आदि वस्तुएँ, जौ, चावल, आदि ओषधियाँ, घृत आदि स्नेहपदार्थ, छ: रस, लोहा, मिट्टी, जल, ऋक्, यजु:, साम, चातुर्होत्र, यज्ञोंके नाम, मन्त्र, दक्षिणा, व्रत, देवताओंके नाम, पद्धतिग्रन्थ, सङ्कल्प, तन्त्र (अनुष्ठानकी रीति), गति, मति, श्रद्धा, प्रायश्चित्त और समर्पणयह समस्त यज्ञ-सामग्री मैंने विराट् पुरुषके अङ्गोंसे ही इकट्ठी की ॥ २४२६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

इति संभृतसंभारः पुरुषा अवयवैः अहम् ।
तमेव पुरुषं यज्ञं तेनैवायजमीश्वरम् ॥ २७ ॥
ततस्ते भ्रातर इमे प्रजानां पतयो नव ।
अयजन् व्यक्तमव्यक्तं पुरुषं सुसमाहिताः ॥ २८ ॥
ततश्च मनवः काले ईजिरे ऋषयोऽपरे ।
पितरो विबुधा दैत्या मनुष्याः क्रतुभिर्विभुम् ॥ २९ ॥
नारायणे भगवति तदिदं विश्वमाहितम् ।
गृहीत माया उरुगुणः सर्गादौ अगुणः स्वतः ॥ ३० ॥
सृजामि तन्नियुक्तोऽहं हरो हरति तद्वशः ।
विश्वं पुरुषरूपेण परिपाति त्रिशक्तिधृक् ॥ ३१ ॥
इति तेऽभिहितं तात यथेदं अनुपृच्छसि ।
न अन्यत् भगवतः किञ्चिद् भाव्यं सद्-असदात्मकम् ॥ ३२ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) इस प्रकार विराट् पुरुषके अङ्गों से ही सारी सामग्री का संग्रह करके मैंने उन्हीं सामग्रियों से उन यज्ञस्वरूप परमात्माका यज्ञके द्वारा यजन किया ॥ २७ ॥ तदनन्तर तुम्हारे बड़े भाई इन नौ प्रजापतियोंने अपने चित्तको पूर्ण समाहित करके विराट् एवं अन्तर्यामीरूपसे स्थित उस पुरुषकी आराधना की ॥ २८ ॥ इसके पश्चात् समय-समयपर मनु, ऋषि, पितर, देवता, दैत्य और मनुष्योंने यज्ञोंके द्वारा भगवान्‌की आराधना की ॥ २९ ॥ नारद ! यह सम्पूर्ण विश्व उन्हीं भगवान्‌ नारायणमें स्थित है, जो स्वयं तो प्राकृत गुणोंसे रहित हैं, परन्तु सृष्टिके प्रारम्भमें मायाके द्वारा बहुत-से गुण ग्रहण कर लेते हैं ॥ ३० ॥ उन्हींकी प्रेरणासे मैं इस संसारकी रचना करता हूँ। उन्हींके अधीन होकर रुद्र इसका संहार करते हैं और वे स्वयं ही विष्णुके रूपसे इसका पालन करते हैं। क्योंकि उन्होंने सत्त्व, रज और तमकी तीन शक्तियाँ स्वीकार कर रखी हैं ॥ ३१ ॥ बेटा ! जो कुछ तुमने पूछा था, उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया; भाव या अभाव, कार्य या कारणके रूपमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो भगवान्‌से भिन्न हो ॥ ३२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

न भारती मेऽङ्ग मृषोपलक्ष्यते
    न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः ।
न मे हृषीकाणि पतन्त्यसत्पथे
    यन्मे हृदौत्कण्ठ्ययवता धृतो हरिः ॥ ३३ ॥
सोऽहं समाम्नायमयः तपोमयः
    प्रजापतीनां अभिवन्दितः पतिः ।
आस्थाय योगं निपुणं समाहितः
    तं नाध्यगच्छं यत आत्मसंभवः ॥ ३४ ॥
नतोऽस्म्यहं तच्चरणं समीयुषां
    भवच्छिदं स्वस्त्ययनं सुमङ्गलम् ।
यो ह्यात्ममायाविभवं स्म पर्यगाद्
    यथा नभः स्वान्तमथापरे कुतः ॥ ३५ ॥
नाहं न यूयं यदृतां गतिं विदुः
    न वामदेवः किमुतापरे सुराः ।
तन्मायया मोहितबुद्धयस्त्विदं
    विनिर्मितं चात्मसमं विचक्ष्महे ॥ ३६ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  प्यारे नारद ! मैं प्रेमपूर्ण एवं उत्कण्ठित हृदयसे भगवान्‌के स्मरणमें मग्र रहता हूँ, इसीसे मेरी वाणी कभी असत्य होती नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य सङ्कल्प नहीं करता और मेरी इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादाका उल्लङ्घन करके कुमार्गमें नहीं जातीं ॥ ३३ ॥ मैं वेदमूर्ति हूँ, मेरा जीवन तपस्यामय है, बड़े-बड़े प्रजापति मेरी वन्दना करते हैं और मैं उनका स्वामी हूँ। पहले मैंने बड़ी निष्ठासे योगका सर्वाङ्ग अनुष्ठान किया था, परन्तु मैं अपने मूलकारण परमात्माके स्वरूपको नहीं जान सका ॥ ३४ ॥ (क्योंकि वे तो एकमात्र भक्तिसे ही प्राप्त होते हैं।) मैं तो परम मङ्गलमय एवं शरण आये हुए भक्तों को जन्म-मृत्यु से छुड़ाने वाले परम कल्याणस्वरूप भगवान्‌ के चरणों को ही नमस्कार करता हूँ। उनकी मायाकी शक्ति अपार है; जैसे आकाश अपने अन्त को नहीं जानता, वैसे ही वे भी अपनी महिमा का विस्तार नहीं जानते। ऐसी स्थिति में दूसरे तो उसका पार पा ही कैसे सकते हैं ? ॥ ३५ ॥ मैं, मेरे पुत्र तुम लोग और शङ्करजी भी उनके सत्य स्वरूप को नहीं जानते; तब दूसरे देवता तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं। हम सब इस प्रकार मोहित हो रहे हैं कि उनकी मायाके द्वारा रचे हुए जगत्को भी ठीक-ठीक नहीं समझ सकते, अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार ही अटकल लगाते हैं ॥ ३६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट०९)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

यस्यावतारकर्माणि गायंति ह्यस्मदादयः ।
न यं विदंति तत्त्वेन तस्मै भगवते नमः ॥ ३७ ॥
स एष आद्यः पुरुषः कल्पे कल्पे सृजत्यजः ।
आत्मा आत्मनि आत्मनाऽऽत्मानं, स संयच्छति पाति च ॥ ३८ ॥
विशुद्धं केवलं ज्ञानं प्रत्यक् सम्यग् अवस्थितम् ।
सत्यं पूर्णं अनाद्यन्तं निर्गुणं नित्यमद्वयम् ॥ ३९ ॥
ऋषे विदंति मुनयः प्रशान्तात्मेन्द्रियाशयाः ।
यदा तद् एव असत् तर्कैः तिरोधीयेत विप्लुतम् ॥ ४० ॥

हम लोग केवल जिनके अवतार की लीलाओं का गान ही करते रहते हैं, उनके तत्त्व को नहीं जानतेउन भगवान्‌ के श्रीचरणों में मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३७ ॥ वे अजन्मा एवं पुरुषोत्तम हैं। प्रत्येक कल्पमें वे स्वयं अपने आपमें अपने आपकी ही सृष्टि करते हैं, रक्षा करते हैं और संहार कर लेते हैं ॥ ३८ ॥ वे मायाके लेशसे रहित, केवल ज्ञानस्वरूप हैं और अन्तरात्माके रूपमें एकरस स्थित हैं। वे तीनों कालमें सत्य एवं परिपूर्ण हैं; न उनका आदि है न अन्त। वे तीनों गुणोंसे रहित, सनातन एवं अद्वितीय हैं ॥ ३९ ॥ नारद ! महात्मालोग जिस समय अपने अन्त:करण, इन्द्रिय और शरीरको शान्त कर लेते हैं, उस समय उनका साक्षात्कार करते हैं। परन्तु जब असत्पुरुषोंके द्वारा कुतर्कोंका जाल बिछाकर उनको ढक दिया जाता है, तब उनके दर्शन नहीं हो पाते ॥ ४० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध- छठा अध्याय..(पोस्ट१०)

विराट्स्वरूपकी विभूतियोंका वर्णन

आद्योऽवतारः पुरुषः परस्य
    कालः स्वभावः सद्-असन्मनश्च ।
द्रव्यं विकारो गुण इन्द्रियाणि
    विराट् स्वराट् स्थास्नु चरिष्णु भूम्नः ॥ ४१ ॥
अहं भवो यज्ञ इमे प्रजेशा
    दक्षादयो ये भवदादयश्च ।
स्वर्लोकपालाः खगलोकपाला
    नृलोकपालाः तललोकपालाः ॥ ४२ ॥
गन्धर्वविद्याधरचारणेशा
    ये यक्षरक्षोरग नागनाथाः ।
ये वा ऋषीणां ऋषभाः पितॄणां
    दैत्येन्द्रसिद्धेश्वरदानवेंद्राः ॥ ४३ ॥
अन्ये च ये प्रेतपिशाचभूत
    कूष्माण्ड यादः मृगपक्षि-अधीशाः ।
यत्किञ्च लोके भगवन् महस्वत्
    ओजः सहस्वद् बलवत् क्षमावत् ।
श्रीह्रीविभूत्यात्मवद् अद्‌भुतार्णं
    तत्त्वं परं रूपवद् अस्वरूपम् ॥ ४४ ॥
प्राधान्यतो या नृष आमनन्ति
    लीलावतारान् पुरुषस्य भूम्नः ।
आपीयतां कर्णकषायशोषान्
    अनुक्रमिष्ये त इमान् सुपेशान् ॥ ४५ ॥

(ब्रह्माजी कहरहे  हैं)  परमात्माका पहला अवतार विराट् पुरुष है; उसके सिवा काल, स्वभाव, कार्य, कारण, मन, पञ्चभूत, अहंकार, तीनों गुण, इन्द्रियाँ, ब्रह्माण्ड-शरीर, उसका अभिमानी, स्थावर और जङ्गम जीवसब-के-सब उन अनन्त भगवान्‌के ही रूप हैं ॥ ४१ ॥ मैं, शङ्कर, विष्णु, दक्ष आदि ये प्रजापति, तुम और तुम्हारे-जैसे अन्य भक्तजन, स्वर्गलोकके रक्षक, पक्षियोंके राजा, मनुष्यलोकके राजा, नीचेके लोकोंके राजा; गन्धर्व, विद्याधर और चारणोंके अधिनायक; यक्ष, राक्षस, साँप और नागोंके स्वामी; महर्षि, पितृपति, दैत्येन्द्र, सिद्धेश्वर, दानवराज; और भी प्रेत-पिशाच, भूत-कूष्माण्ड, जल-जन्तु, मृग और पक्षियोंके स्वामी; एवं संसारमें और भी जितनी वस्तुएँ ऐश्वर्य, तेज, इन्द्रियबल, मनोबल, शरीरबल या क्षमासे युक्त हैं; अथवा जो भी विशेष सौन्दर्य, लज्जा, वैभव तथा विभूतिसे युक्त हैं; एवं जितनी भी वस्तुएँ अद्भुत वर्णवाली, रूपवान् या अरूप हैंवे सब-के-सब परमतत्त्वमय भगवत्स्वरूप ही हैं ॥ ४२४४ ॥ नारद ! इनके सिवा परम पुरुष परमात्माके परम पवित्र एवं प्रधान-प्रधान लीलावतार भी शास्त्रोंमें वर्णित हैं। उनका मैं क्रमश: वर्णन करता हूँ। उनके चरित्र सुननेमें बड़े मधुर एवं श्रवणेन्द्रियके दोषोंको दूर करनेवाले हैं। तुम सावधान होकर उनका रस लो ॥ ४५ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

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द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

सृष्टि-वर्णन

नारद उवाच ।

देवदेव नमस्तेऽस्तु भूतभावन पूर्वज ।
तद्विजानीहि यद् ज्ञानं आत्मतत्त्वनिदर्शनम् ॥ १ ॥
यद् रूपं यद् अधिष्ठानं यतः सृष्टमिदं प्रभो ।
यत्संस्थं यत्परं यच्च तत् तत्त्वं वद तत्त्वतः ॥ २ ॥
सर्वं ह्येतद् भवान् वेद भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
करामलकवद् विश्वं विज्ञानावसितं तव ॥ ३ ॥
यद् विज्ञानो यद् आधारो यत् परस्त्वं यदात्मकः ।
एकः सृजसि भूतानि भूतैरेवात्ममायया ॥ ४ ॥
आत्मन् भावयसे तानि न पराभावयन् स्वयम् ।
आत्मशक्तिमवष्टभ्य ऊर्णनाभिरिवाक्लमः ॥ ५ ॥
नाहं वेद परं ह्यस्मिन् नापरं न समं विभो ।
नामरूपगुणैर्भाव्यं सदसत् किञ्चिदन्यतः ॥ ६ ॥
स भवानचरद् घोरं यत्तपः सुसमाहितः ।
तेन खेदयसे नस्त्वं पराशङ्कां च यच्छसि ॥ ७ ॥
एतन्मे पृच्छतः सर्वं सर्वज्ञ सकलेश्वर ।
विजानीहि यथैवेदं अहं बुद्ध्येऽनुशासितः ॥ ८ ॥

नारदजीने पूछापिताजी ! आप केवल मेरे ही नहीं, सबके पिता, समस्त देवताओं से श्रेष्ठ एवं सृष्टिकर्ता हैं। आपको मेरा प्रणाम है । आप मुझे वह ज्ञान दीजिये, जिससे आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है ॥ १ ॥ पिताजी ! इस संसार का क्या लक्षण है ? इसका आधार क्या है ? इसका निर्माण किसने किया है ? इसका प्रलय किसमें होता है ? यह किसके अधीन है ? और वास्तवमें यह है क्या वस्तु ? आप इसका तत्त्व बतलाइये ॥ २ ॥ आप तो यह सब कुछ जानते हैं; क्योंकि जो कुछ हुआ है, हो रहा है या होगा, उसके स्वामी आप ही हैं। यह सारा संसार हथेलीपर रखे हुए आँवलेके समान आपकी ज्ञान-दृष्टिके अन्तर्गत ही है ॥ ३ ॥ पिताजी ! आपको यह ज्ञान कहाँसे मिला ? आप किसके आधारपर ठहरे हुए हैं ? आपका स्वामी कौन है ? और आपका स्वरूप क्या है ? आप अकेले ही अपनी मायासे पञ्चभूतोंके द्वारा प्राणियोंकी सृष्टि कर लेते हैं, कितना अद्भुत है ! ॥ ४ ॥ जैसे मकड़ी अनायास ही अपने मुँहसे जाला निकालकर उसमें खेलने लगती है, वैसे ही आप अपनी शक्तिके आश्रयसे जीवोंको अपनेमें ही उत्पन्न करते हैं और फिर भी आपमें कोई विकार नहीं होता ॥ ५ ॥ जगत् में  नाम, रूप और गुणोंसे जो कुछ जाना जाता है, उसमें मैं ऐसी कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता, जो आपके सिवा और किसीसे उत्पन्न हुई हो ॥ ६ ॥ इस प्रकार सबके ईश्वर होकर भी आपने एकाग्र चित्तसे घोर तपस्या की, इस बातसे मुझे मोहके साथ-साथ बहुत बड़ी शङ्का भी हो रही है कि आपसे बड़ा भी कोई है क्या ॥ ७ ॥ पिताजी ! आप सर्वज्ञ और सर्वेश्वर हैं। जो कुछ मैं पूछ रहा हूँ, वह सब आप कृपा करके मुझे इस प्रकार समझाइये कि जिससे मैं आपके उपदेशको ठीक-ठीक समझ सकूँ ॥ ८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

सृष्टि-वर्णन

ब्रह्मोवाच ॥

सम्यक् कारुणिकस्येदं वत्स ते विचिकित्सितम् ।
यदहं चोदितः सौम्य भगवद्वीर्यदर्शने ॥ ९ ॥
नानृतं तव तच्चापि यथा मां प्रब्रवीषि भोः ।
अविज्ञाय परं मत्त एतावत्त्वं यतो हि मे ॥ १० ॥
येन स्वरोचिषा विश्वं रोचितं रोचयाम्यहम् ।
यथार्कोऽग्निः यथा सोमो यथा ऋक्षग्रहतारकाः ॥ ११ ॥
तस्मै नमो भगवते वासुदेवाय धीमहि ।
यन्मायया दुर्जयया मां वदन्ति जगद्‍गुरुम् ॥ १२ ॥
विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया ।
विमोहिता विकत्थन्ते ममाहमिति दुर्धियः ॥ १३ ॥

ब्रह्माजीने कहाबेटा नारद ! तुमने जीवोंके प्रति करुणा के भावसे भरकर यह बहुत ही सुन्दर प्रश्र किया है; क्योंकि इससे भगवान्‌ के गुणोंका वर्णन करने की प्रेरणा मुझे प्राप्त हुई है ॥ ९ ॥ तुमने मेरे विषय में जो कुछ कहा है, तुम्हारा वह कथन भी असत्य नहीं है। क्योंकि जबतक मुझसे परे का तत्त्वजो स्वयं भगवान्‌ ही हैंजान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता है ॥ १० ॥ जैसे सूर्य, अग्रि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारे उन्हींके प्रकाशसे प्रकाशित होकर जगत् में प्रकाश फैलाते हैं, वैसे ही मैं भी उन्हीं स्वयंप्रकाश भगवान्‌के चिन्मय प्रकाशसे प्रकाशित होकर संसार को प्रकाशित कर रहा हूँ ॥ ११ ॥ उन भगवान्‌ वासुदेव की मैं वन्दना करता हूँ और ध्यान भी, जिनकी दुर्जय मायासे मोहित होकर लोग मुझे जगद्गुरु कहते हैं ॥ १२ ॥ यह माया तो उनकी आँखों के सामने ठहरती ही नहीं, झेंपकर दूरसे ही भाग जाती है। परन्तु संसार के अज्ञानी जन उसी से मोहित होकर यह मैं हूँ, यह मेरा हैइस प्रकार बकते रहते हैं ॥ १३॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

सृष्टि-वर्णन

द्रव्यं कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
वासुदेवात्परो ब्रह्मन् न चान्योऽर्थोऽस्ति तत्त्वतः ॥ १४ ॥
नारायणपरा वेदा देवा नारायणाङ्गजाः ।
नारायणपरा लोका नारायणपरा मखाः ॥ १५ ॥
नारायणपरो योगो नारायणपरं तपः ।
नारायणपरं ज्ञानं नारायणपरा गतिः ॥ १६ ॥
तस्यापि द्रष्टुः ईशस्य कूटस्थस्याखिलात्मनः ।
सृज्यं सृजामि सृष्टोऽहं ईक्षयैवाभिचोदितः ॥ १७ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) भगवत्स्वरूप नारद ! द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीववास्तवमें भगवान्‌से भिन्न दूसरी कोई भी वस्तु नहीं है ॥ १४ ॥ वेद नारायणके परायण हैं। देवता भी नारायणके ही अङ्गोंमें कल्पित हुए हैं, और समस्त यज्ञ भी नारायणकी प्रसन्नताके लिये ही हैं तथा उनसे जिन लोकोंकी प्राप्ति होती है, वे भी नारायणमें ही कल्पित हैं ॥ १५ ॥ सब प्रकारके योग भी नारायणकी प्राप्तिके ही हेतु हैं। सारी तपस्याएँ नारायणकी ओर ही ले जानेवाली हैं, ज्ञानके द्वारा भी नारायण ही जाने जाते हैं। समस्त साध्य और साधनोंका पर्यवसान भगवान्‌ नारायणमें ही है ॥ १६ ॥ वे द्रष्टा होनेपर भी ईश्वर हैं, स्वामी हैं; निर्विकार होनेपर भी सर्वस्वरूप हैं। उन्होंने ही मुझे बनाया है और उनकी दृष्टिसे ही प्रेरित होकर मैं उनके इच्छानुसार सृष्टि-रचना करता हूँ ॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

सृष्टि-वर्णन

सत्त्वं रजस्तम इति निर्गुणस्य गुणास्त्रयः ।
स्थितिसर्गनिरोधेषु गृहीता मायया विभोः ॥ १८ ॥
कार्यकारणकर्तृत्वे द्रव्यज्ञानक्रियाश्रयाः ।
बध्नन्ति नित्यदा मुक्तं मायिनं पुरुषं गुणाः ॥ १९ ॥
स एष भगवान् लिङ्गैः त्रिभिरेतैरधोक्षजः ।
स्वलक्षितगतिर्ब्रह्मन् सर्वेषां मम चेश्वरः ॥ २० ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) भगवान्‌ मायाके गुणोंसे रहित एवं अनन्त हैं। सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणये तीन गुण मायाके द्वारा उनमें स्वीकार किये गये हैं ॥ १८ ॥ ये ही तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान और क्रियाका आश्रय लेकर मायातीत नित्यमुक्त पुरुषको ही मायामें स्थित होनेपर कार्य, कारण और कर्तापनके अभिमानसे बाँध लेते हैं ॥ १९ ॥ नारद ! इन्द्रियातीत भगवान्‌ गुणोंके इन तीन आवरणोंसे अपने स्वरूपको भलीभाँति ढक लेते हैं, इसलिये लोग उनको नहीं जान पाते। सारे संसारके और मेरे भी एकमात्र स्वामी वे ही हैं ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

सृष्टि-वर्णन

कालं कर्म स्वभावं च मायेशो मायया स्वया ।
आत्मन् यदृच्छया प्राप्तं विबुभूषुरुपाददे ॥ २१ ॥
कालाद् गुणव्यतिकरः परिणामः स्वभावतः ।
कर्मणो जन्म महतः पुरुषाधिष्ठितात् अभूत् ॥ २२ ॥
महतस्तु विकुर्वाणाद् रजःसत्त्वोपबृंहितात् ।
तमःप्रधानस्त्वभवद् द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ॥ २३ ॥
सोऽहङ्कार इति प्रोक्तो विकुर्वन्समभूत् त्रिधा ।
वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्चेति यद्‌भिदा ।
द्रव्यशक्तिः क्रियाशक्तिः ज्ञानशक्तिरिति प्रभो ॥ २४ ॥
तामसादपि भूतादेः विकुर्वाणाद् अभूत् नभः ।
तस्य मात्रा गुणः शब्दो लिङ्गं यद् द्रष्टृदृश्ययोः ॥ २५ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) मायापति भगवान्‌ ने एक से बहुत होने की इच्छा होने पर अपनी माया से अपने स्वरूपमें स्वयं प्राप्त काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लिया ॥ २१ ॥ भगवान्‌की शक्तिसे ही काल ने तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न कर दिया, स्वभावने उन्हें रूपान्तरित कर दिया और कर्मने महत्तत्त्वको जन्म दिया ॥ २२ ॥ रजोगुण और सत्त्वगुणकी वृद्धि होनेपर महत्तत्त्वका जो विकार हुआ, उससे ज्ञान, क्रिया और द्रव्यरूप तम:प्रधान विकार हुआ ॥ २३ ॥ वह अहंकार कहलाया और विकारको प्राप्त होकर तीन प्रकारका हो गया। उसके भेद हैंवैकारिक, तैजस और तामस। नारदजी ! वे क्रमश: ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति और द्रव्यशक्तिप्रधान हैं ॥ २४ ॥ जब पञ्चमहाभूतोंके कारणरूप तामस अहंकारमें विकार हुआ, तब उससे आकाशकी उत्पत्ति हुई। आकाशकी तन्मात्रा और गुण शब्द है। इस शब्दके द्वारा ही द्रष्टा और दृश्यका बोध होता है ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

सृष्टि-वर्णन

नभसोऽथ विकुर्वाणाद् अभूत् स्पर्शगुणोऽनिलः ।
परान्वयाच्छब्दवांश्च प्राण ओजः सहो बलम् ॥ २६ ॥
वायोरपि विकुर्वाणात् कालकर्मस्वभावतः ।
उदपद्यत तेजो वै रूपवत् स्पर्शशब्दवत् ॥ २७ ॥
तेजसस्तु विकुर्वाणाद् आसीत् अम्भो रसात्मकम् ।
रूपवत् स्पर्शवच्चाम्भो घोषवच्च परान्वयात् ॥ २८ ॥
विशेषस्तु विकुर्वाणाद् अम्भसो गन्धवानभूत् ।
परान्वयाद् रसस्पर्श शब्दरूपगुणान्वितः ॥ २९ ॥
वैकारिकान्मनो जज्ञे देवा वैकारिका दश ।
दिग्वातार्कप्रचेतोऽश्वि वह्नीन्द्रोपेन्द्रमित्रकाः ॥ ३० ॥
तैजसात्तु विकुर्वाणाद् इंद्रियाणि दशाभवन् ।
ज्ञानशक्तिः क्रियाशक्तिः बुद्धिः प्राणश्च तैजसौ ।
श्रोत्रं त्वग् घ्राण दृग् जिह्वा वाग् दोर्मेढ्राङ्‌घ्रिपायवः ॥ ३१ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) जब आकाशमें विकार हुआ, तब उससे वायुकी उत्पत्ति हुई; उसका गुण स्पर्श है। अपने कारणका गुण आ जानेसे यह शब्दवाला भी है। इन्द्रियोंमें स्फूर्ति, शरीरमें जीवनीशक्ति, ओज और बल इसीके रूप हैं ॥ २६ ॥ काल, कर्म और स्वभावसे वायुमें भी विकार हुआ। उससे तेजकी उत्पत्ति हुई। इसका प्रधान गुण रूप है। साथ ही इसके कारण आकाश और वायुके गुण शब्द एवं स्पर्श भी इसमें हैं ॥ २७ ॥ तेजके विकारसे जलकी उत्पत्ति हुई। इसका गुण है रस; कारण-तत्त्वोंके गुण शब्द, स्पर्श और रूप भी इसमें हैं ॥ २८ ॥ जलके विकारसे पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई, इसका गुण है गन्ध। कारणके गुण कार्यमें आते हैंइस न्यायसे शब्द, स्पर्श, रूप और रसये चारों गुण भी इसमें विद्यमान हैं ॥ २९ ॥ वैकारिक अहंकारसे मनकी और इन्द्रियोंके दस अधिष्ठातृ-देवताओंकी भी उत्पत्ति हुई। उनके नाम हैंदिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनीकुमार, अग्रि, इन्द्र, विष्णु, मित्र और प्रजापति ॥ ३० ॥ तैजस अहंकारके विकारसे श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राणये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं वाक्, हस्त, पाद, गुदा और जननेन्द्रियये पाँच कर्मेन्द्रियाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही ज्ञानशक्तिरूप बुद्धि और क्रियाशक्तिरूप प्राण भी तैजस अहंकारसे ही उत्पन्न हुए ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

सृष्टि-वर्णन

यदैतेऽसङ्गता भावा भूतेन्द्रियमनोगुणाः ।
यदाऽऽयतननिर्माणे न शेकुर्ब्रह्मवित्तम ॥ ३२ ॥
तदा संहत्य चान्योन्यं भगवच्छक्तिचोदिताः ।
सदसत्त्वमुपादाय चोभयं ससृजुर्ह्यदः ॥ ३३ ॥
वर्षपूगसहस्रान्ते तदण्डमुदके शयम् ।
कालकर्मस्वभावस्थो जीवोऽजीवमजीवयत् ॥ ३४ ॥
स एव पुरुषः तस्माद् अण्डं निर्भिद्य निर्गतः ।
सहस्रोर्वङ्‌घ्रिबाह्वक्षः सहस्राननशीर्षवान् ॥ ३५ ॥
यस्येहावयवैर्लोकान् काल्पयन्ति मनीषिणः ।
कट्यादिभिरधः सप्त सप्तोर्ध्वं जघनादिभिः ॥ ३६ ॥

(ब्रह्माजी नारद जी से कहते हैं) श्रेष्ठ ब्रह्मवित् ! जिस समय ये पञ्चभूत, इन्द्रिय, मन और सत्त्व आदि तीनों गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तब अपने रहनेके लिये भोगोंके साधनरूप शरीरकी रचना नहीं कर सके ॥ ३२ ॥ जब भगवान्‌ने इन्हें अपनी शक्तिसे प्रेरित किया, तब वे तत्त्व परस्पर एक दूसरेके साथ मिल गये और उन्होंने आपसमें कार्य-कारणभाव स्वीकार करके व्यष्टि-समष्टिरूप पिण्ड और ब्रह्माण्ड दोनोंकी रचना की ॥ ३३ ॥ वह ब्रह्माण्डरूप अंडा एक सहस्र वर्षतक निर्जीवरूपसे जलमें पड़ा रहा; फिर काल, कर्म और स्वभावको स्वीकार करनेवाले भगवान्‌ने उसे जीवित कर दिया ॥ ३४ ॥ उस अंडेको फोडक़र उसमेंसे वही विराट् पुरुष निकला, जिसकी जङ्घा, चरण, भुजाएँ, नेत्र, मुख और सिर सहस्रोंकी संख्यामें हैं ॥ ३५ ॥ विद्वान् पुरुष (उपासनाके लिये) उसी(विराट् पुरुष)के अङ्गोंमें समस्त लोक और उनमें रहनेवाली वस्तुओं की कल्पना करते हैं। उसकी कमर से नीचे के अङ्गों में सातों पाताल की और उसके पेड़ू से ऊपर के अङ्गों में सातों स्वर्ग की कल्पना की जाती है ॥ ३६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय स्कन्ध-पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

सृष्टि-वर्णन

पुरुषस्य मुखं ब्रह्म क्षत्रमेतस्य बाहवः ।
ऊर्वोर्वैश्यो भगवतः पद्‍भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत ॥ ३७ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्‍भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
हृदा स्वर्लोक उरसा महर्लोको महात्मनः ॥ ३८ ॥
ग्रीवायां जनलोकोऽस्य तपोलोकः स्तनद्वयात् ।
मूर्धभिः सत्यलोकस्तु ब्रह्मलोकः सनातनः ॥ ३९ ॥
तत्कट्यां चातलं कॢप्तं ऊरूभ्यां वितलं विभोः ।
जानुभ्यां सुतलं शुद्धं जङ्घाभ्यां तु तलातलम् ॥ ४० ॥
महातलं तु गुल्फाभ्यां प्रपदाभ्यां रसातलम् ।
पातालं पादतलत इति लोकमयः पुमान् ॥ ४१ ॥
भूर्लोकः कल्पितः पद्‍भ्यां भुवर्लोकोऽस्य नाभितः ।
स्वर्लोकः कल्पितो मूर्ध्ना इति वा लोककल्पना ॥ ४२ ॥

(ब्रह्माजी कहते हैं) ब्राह्मण इस विराट् पुरुषका मुख हैं, भुजाएँ क्षत्रिय हैं, जाँघोंसे वैश्य और पैरोंसे शूद्र उत्पन्न हुए हैं ॥ ३७ ॥ पैंरोंसे लेकर कटिपर्यन्त सातों पाताल तथा भूलोककी कल्पना की गयी है; नाभिमें भुवर्लोककी, हृदयमें स्वर्लोककी और परमात्माके वक्ष:स्थलमें महर्लोककी कल्पना की गयी है ॥ ३८ ॥ उसके गलेमें जनलोक, दोनों स्तनोंमें तपोलोक और मस्तकमें ब्रह्माका नित्य निवासस्थान सत्यलोक है ॥ ३९ ॥ उस विराट् पुरुषकी कमरमें अतल, जाँघोंमें वितल, घुटनोंमें पवित्र सुतललोक और जङ्घाओंमें तलातलकी कल्पना की गयी है ॥ ४० ॥ एड़ीके ऊपरकी गाँठोंमें महातल, पंजे और एडिय़ोंमें रसातल और तलुओंमें पाताल समझना चाहिये। इस प्रकार विराट् पुरुष सर्वलोकमय है ॥ ४१ ॥ विराट् भगवान्‌के अङ्गोंमें इस प्रकार भी लोकोंकी कल्पना की जाती है कि उनके चरणोंमें पृथ्वी है, नाभिमें भुवर्लोक है और सिरमें स्वर्लोक है ॥ ४२ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...