॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
भागवतके
दस लक्षण
श्रीशुक
उवाच ।
अत्र
सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमूतयः ।
मन्वन्तरेशानुकथा
निरोधो मुक्तिराश्रयः ॥ १ ॥
दशमस्य
विशुद्ध्यर्थं नवानामिह लक्षणम् ।
वर्णयन्ति
महात्मानः श्रुतेनार्थेन चाञ्जसा ॥ २ ॥
भूतमात्रेन्द्रियधियां
जन्म सर्ग उदाहृतः ।
ब्रह्मणो
गुणवैषम्यात् विसर्गः पौरुषः स्मृतः ॥ ३ ॥
स्थितिर्वैकुण्ठविजयः
पोषणं तदनुग्रहः ।
मन्वन्तराणि
सद्धर्म ऊतयः कर्मवासनाः ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! इस भागवतपुराण में सर्ग, विसर्ग,
स्थान, पोषण, ऊति,
मन्वन्तर, ईशानुकथा, निरोध,
मुक्ति और आश्रय—इन दस विषयों का वर्णन है ॥ १
॥ इन में जो दसवाँ आश्रय-तत्त्व है, उसीका ठीक-ठीक निश्चय
करनेके लिये कहीं श्रुतिसे, कहीं तात्पर्यसे और कहीं दोनोंके
अनुकूल अनुभवसे महात्माओंने अन्य नौ विषयोंका बड़ी सुगम रीतिसे वर्णन किया है ॥ २
॥ ईश्वरकी प्रेरणासे गुणोंमें क्षोभ होकर रूपान्तर होनेसे जो आकाशादि पञ्चभूत,
शब्दादि तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, अहंकार और महत्तत्त्वकी उत्पत्ति होती है, उसको ‘सर्ग’ कहते हैं। उस विराट् पुरुषसे उत्पन्न
ब्रह्माजीके द्वारा जो विभिन्न चराचर सृष्टियोंका निर्माण होता है, उसका नाम है ‘विसर्ग’ ॥ ३ ॥
प्रतिपद नाशकी ओर बढऩेवाली सृष्टिको एक मर्यादामें स्थिर रखनेसे भगवान् विष्णुकी
जो श्रेष्ठता सिद्ध होती है, उसका नाम ‘स्थान’ है। अपने द्वारा सुरक्षित सृष्टिमें भक्तोंके
ऊपर उनकी जो कृपा होती है, उसका नाम है ‘पोषण’। मन्वन्तरोंके अधिपति जो भगवद्भक्ति और प्रजा-
पालनरूप शुद्ध धर्मका अनुष्ठान करते हैं, उसे ‘मन्वन्तर’ कहते हैं। जीवोंकी वे वासनाएँ, जो कर्मके द्वारा उन्हें बन्धनमें डाल देती हैं, ‘ऊति’
नामसे कही जाती हैं ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
भागवतके
दस लक्षण
अवतारानुचरितं
हरेश्चास्यानुवर्तिनाम् ।
पुंसां
ईशकथाः प्रोक्ता नानाख्यान उपबृंहिताः ॥ ५ ॥
निरोधोऽस्यानुशयनं
आत्मनः सह शक्तिभिः ।
मुक्तिः
हित्वान्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ॥ ॥ ६ ॥
आभासश्च
निरोधश्च यतश्चाध्यवसीयते ।
स
आश्रयः परं ब्रह्म परमात्मेति शब्द्यते ॥ ७ ॥
योऽध्यात्मिकोऽयं
पुरुषः सोऽसौ एवाधिदैविकः ।
यः
तत्र उभय विच्छेदः स स्मृतोह्याधिभौतिकः ॥ ८ ॥
एकं
एकतराभावे यदा न उपलभामहे ।
त्रितयं
तत्र यो वेद स आत्मा स्वाश्रयाश्रयः ॥ ९ ॥
भगवान्के
विभिन्न अवतारोंके और उनके प्रेमी भक्तोंकी विविध आख्यानोंसे युक्त गाथाएँ ‘ईशकथा’ हैं ॥ ५ ॥ जब भगवान् योगनिद्रा स्वीकार करके
शयन करते हैं, तब इस जीवका अपनी उपाधियोंके साथ उनमें लीन हो
जाना ‘निरोध’ है। अज्ञानकल्पित
कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनात्मभावका परित्याग करके अपने
वास्तविक स्वरूप परमात्मामें स्थित होना ही ‘मुक्ति’ है ॥ ६ ॥ परीक्षित् ! इस चराचर जगत् की उत्पत्ति और प्रलय जिस तत्त्वसे प्रकाशित होते
हैं, वह परम ब्रह्म ही ‘आश्रय’ है। शास्त्रोंमें उसीको परमात्मा कहा गया है ॥ ७ ॥ जो नेत्र आदि
इन्द्रियोंका अभिमानी द्रष्टा जीव है, वही इन्द्रियोंके
अधिष्ठातृ-देवता सूर्य आदिके रूपमें भी है और जो नेत्र गोलक आदिसे युक्त दृश्य देह
है, वही उन दोनोंको अलग-अलग करता है ॥ ८ ॥ इन तीनोंमें यदि
एकका भी अभाव हो जाय तो दूसरे दोकी उपलब्धि नहीं हो सकती। अत: जो इन तीनोंको जानता
है, वह परमात्मा ही, सबका अधिष्ठान ‘आश्रय’ तत्त्व है। उसका आश्रय वह स्वयं ही है,
दूसरा कोई नहीं ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
भागवतके
दस लक्षण
पुरुषोऽण्डं
विनिर्भिद्य यदाऽसौ स विनिर्गतः ।
आत्मनोऽयनमन्विच्छन्
अपः अस्राक्षीच्छुचिः शुचीः ॥ १० ॥
तास्ववात्सीत्
स्वसृष्टासु सहस्रं परिवत्सरान् ।
तेन
नारायणो नाम यदापः पुरुषोद्भवाः ॥ ११ ॥
द्रव्यं
कर्म च कालश्च स्वभावो जीव एव च ।
यदनुग्रहतः
सन्ति न सन्ति यद् उपेक्षया ॥ १२ ॥
एको
नानात्वमन्विच्छन् योगतल्पात् समुत्थितः ।
वीर्यं
हिरण्मयं देवो मायया व्यसृजत् त्रिधा ॥ १३ ॥
अधिदैवं
अथ अध्यात्मं अधिभूतमिति प्रभुः ।
अथैकं
पौरुषं वीर्यं त्रिधा भिद्यत तच्छृणु ॥ १४ ॥
जब
पूर्वोक्त विराट् पुरुष ब्रह्माण्ड को फोडक़र निकला, तब वह अपने
रहनेका स्थान ढूँढने लगा और स्थानकी इच्छासे उस शुद्ध-सङ्कल्प पुरुषने अत्यन्त
पवित्र जलकी सृष्टि की ॥ १० ॥
विराट्
पुरुषरूप ‘नर’ से उत्पन्न होनेके कारण ही जलका नाम ‘नार’ पड़ा। और उस अपने उत्पन्न किये हुए ‘नार’में वह पुरुष एक हजार वर्षोंतक रहा, इसीसे उसका नाम ‘नारायण’ हुआ ॥
११ ॥ उन नारायणभगवान्की कृपासे ही द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव और जीव आदिकी सत्ता है। उनके उपेक्षा कर
देनेपर और किसीका अस्तित्व नहीं रहता ॥ १२ ॥ उन अद्वितीय भगवान् नारायणने
योगनिद्रासे जगकर अनेक होनेकी इच्छा की। तब अपनी मायासे उन्होंने अखिल
ब्रह्माण्डके बीजस्वरूप अपने सुवर्णमय वीर्यको तीन भागोंमें विभक्त कर दिया—अधिदैव, अध्यात्म और अधिभूत। परीक्षित् ! विराट्
पुरुषका एक ही वीर्य तीन भागोंमें कैसे विभक्त हुआ, सो सुनो
॥ १३-१४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
भागवतके
दस लक्षण
अन्तः
शरीर आकाशात् पुरुषस्य विचेष्टतः ।
ओजः
सहो बलं जज्ञे ततः प्राणो महान् असुः ॥ १५ ॥
अनुप्राणन्ति
यं प्राणाः प्राणन्तं सर्वजन्तुषु ।
अपानंतं
अपानन्ति नरदेवं इवानुगाः ॥ १६ ॥
प्राणेन
आक्षिपता क्षुत् तृड् अन्तरा जायते विभोः ।
पिपासतो
जक्षतश्च प्राङ् मुखं निरभिद्यत ॥ १७ ॥
मुखतः
तालु निर्भिन्नं जिह्वा तत्र उपजायते ।
ततो
नानारसो जज्ञे जिह्वया योऽधिगम्यते ॥ १८ ॥
विवक्षोर्मुखतो
भूम्नो वह्निर्वाग् व्याहृतं तयोः ।
जले
वै तस्य सुचिरं निरोधः समजायत ॥ १९ ॥
नासिके
निरभिद्येतां दोधूयति नभस्वति ।
तत्र
वायुः गन्धवहो घ्राणो नसि जिघृक्षतः ॥ २० ॥
विराट्
पुरुष के हिलने-डोलनेपर उनके शरीरमें रहनेवाले आकाशसे इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबलकी उत्पत्ति हुई। उनसे इन सबका राजा प्राण उत्पन्न हुआ ॥
१५ ॥ जैसे सेवक अपने स्वामी राजाके पीछे-पीछे चलते हैं, वैसे
ही सबके शरीरोंमें प्राणके प्रबल रहनेपर ही सारी इन्द्रियाँ प्रबल रहती हैं और जब
वह सुस्त पड़ जाता है, तब सारी इन्द्रियाँ भी सुस्त हो जाती
हैं ॥ १६ ॥ जब प्राण जोरसे आने-जाने लगा, तब विराट् पुरुषको
भूख-प्यासका अनुभव हुआ। खाने-पीनेकी इच्छा करते ही सबसे पहले उनके शरीरमें मुख
प्रकट हुआ ॥ १७ ॥ मुखसे तालु और तालुसे रसनेन्द्रिय प्रकट हुई। इसके बाद अनेकों
प्रकारके रस उत्पन्न हुए, जिन्हें रसना ग्रहण करती है ॥ १८ ॥
जब उनकी इच्छा बोलनेकी हुई तब वाक्-इन्द्रिय, उसके
अधिष्ठातृ-देवता अग्रि और उनका विषय बोलना—ये तीनों प्रकट
हुए। इसके बाद बहुत दिनोंतक उस जलमें ही वे रुके रहे ॥ १९ ॥ श्वासके वेगसे
नासिका-छिद्र प्रकट हो गये। जब उन्हें सूँघनेकी इच्छा हुई, तब
उनकी नाक घ्राणेन्द्रिय आकर बैठ गयी और उसके देवता गन्धको फैलानेवाले वायुदेव
प्रकट हुए ॥२०॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
भागवतके
दस लक्षण
यदाऽऽत्मनि
निरालोकं आत्मानं च दिदृक्षतः ।
निर्भिन्ने
ह्यक्षिणी तस्य ज्योतिः चक्षुः गुणग्रहः ॥ २१ ॥
बोध्यमानस्य
ऋषिभिः आत्मनः तत् जिघृक्षतः ।
कर्णौ
च निरभिद्येतां दिशः श्रोत्रं गुणग्रहः ॥ २२ ॥
वस्तुनो
मृदुकाठिन्य लघुगुर्वोष्ण शीतताम् ।
जिघृक्षतः
त्वङ् निर्भिन्ना तस्यां रोम महीरुहाः ।
तत्र
चान्तर्बहिर्वातः त्वचा लब्धगुणो वृतः ॥ २३ ॥
हस्तौ
रुरुहतुः तस्य नाना कर्म चिकीर्षया ।
तयोस्तु
बलमिन्द्रश्च आदानं उभयाश्रयम् ॥ २४ ॥
पहले
उनके (विराट् पुरुष के ) शरीर में प्रकाश नहीं था; फिर जब
उन्हें अपनेको तथा दूसरी वस्तुओंको देखनेकी इच्छा हुई, तब
नेत्रोंके छिद्र, उनका अधिष्ठाता सूर्य और नेत्रेन्द्रिय
प्रकट हो गये। इन्हींसे रूपका ग्रहण होने लगा ॥ २१ ॥
जब
वेदरूप ऋषि विराट् पुरुषको स्तुतियोंके द्वारा जगाने लगे, तब उन्हें सुननेकी इच्छा हुई। उसी समय कान, उनकी
अधिष्ठातृ-देवता दिशाएँ और श्रोत्रेन्द्रिय प्रकट हुई। इसीसे शब्द सुनायी पड़ता है
॥ २२ ॥ जब उन्होंने वस्तुओंकी कोमलता, कठिनता, हलकापन, भारीपन, उष्णता और
शीतलता आदि जाननी चाही तब उनके शरीरमें चर्म प्रकट हुआ। पृथ्वीमेंसे जैसे वृक्ष
निकल आते हैं, उसी प्रकार उस चर्ममें रोएँ पैदा हुए और उसके
भीतर-बाहर रहनेवाला वायु भी प्रकट हो गया। स्पर्श ग्रहण करनेवाली त्वचा-इन्द्रिय
भी साथ-ही-साथ शरीरमें चारों ओर लिपट गयी और उससे उन्हें स्पर्शका अनुभव होने लगा
॥ २३ ॥ जब उन्हें अनेकों प्रकार के कर्म करनेकी इच्छा हुई, तब
उनके हाथ उग आये। उन हाथों में ग्रहण करने की शक्ति हस्तेन्द्रिय तथा उनके
अधिदेवता इन्द्र प्रकट हुए और दोनों के आश्रय से होने वाला ग्रहणरूप कर्म भी प्रकट
हो गया ॥२४॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
भागवतके
दस लक्षण
गतिं
जिगीषतः पादौ रुरुहातेऽभिकामिकाम् ।
पद्भ्यां
यज्ञः स्वयं हव्यं कर्मभिः क्रियते नृभिः ॥ २५ ॥
निरभिद्यत
शिश्नो वै प्रजानन्द अमृतार्थिनः ।
उपस्थ
आसीत् कामानां प्रियं तद् उभयाश्रयम् ॥ २६ ॥
उत्सिसृक्षोः
धातुमलं निरभिद्यत वै गुदम् ।
ततः
पायुस्ततो मित्र उत्सर्ग उभयाश्रयः ॥ २७ ॥
आसिसृप्सोः
पुरः पुर्या नाभिद्वारं अपानतः ।
तत्र
अपानः ततो मृत्युः पृथक्त्वं उभयाश्रयम् ॥ २८ ॥
जब
उन्हें (विराट् पुरुष को) अभीष्ट स्थान पर
जाने की इच्छा हुई,
तब उनके शरीर में पैर उग आये। चरणोंके साथ ही चरण-इन्द्रियके
अधिष्ठातारूपमें वहाँ स्वयं यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु स्थित हो गये और उन्हींमें
चलनारूप कर्म प्रकट हुआ। मनुष्य इसी चरणेन्द्रियसे चलकर यज्ञ-सामग्री एकत्र करते
हैं ॥ २५ ॥ सन्तान, रति और स्वर्ग-भोगकी कामना होनेपर विराट्
पुरुषके शरीरमें लिङ्गकी उत्पत्ति हुई। उसमें उपस्थेन्द्रिय और प्रजापति देवता तथा
इन दोनोंके आश्रय रहनेवाले कामसुखका आविर्भाव हुआ ॥ २६ ॥ जब उन्हें मलत्यागकी
इच्छा हुई, तब गुदाद्वार प्रकट हुआ। तत्पश्चात् उसमें
पायु-इन्द्रिय और मित्र-देवता उत्पन्न हुए। इन्हीं दोनोंके द्वारा मलत्यागकी
क्रिया सम्पन्न होती है ॥ २७ ॥ अपानमार्ग-द्वारा
एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जानेकी इच्छा होनेपर नाभिद्वार प्रकट हुआ। उससे अपान और
मृत्यु देवता प्रकट हुए। इन दोनोंके आश्रयसे ही प्राण और अपानका बिछोह यानी मृत्यु
होती है ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
भागवतके
दस लक्षण
आदित्सोः
अन्नपानानां आसन् कुक्ष्यन्न नाडयः ।
नद्यः
समुद्राश्च तयोः तुष्टिः पुष्टिः तदाश्रये ॥ २९ ॥
निदिध्यासोः
आत्ममायां हृदयं निरभिद्यत ।
ततो
मनः ततश्चंद्रः सङ्कल्पः काम एव च ॥ ३० ॥
त्वक्
चर्म मांस रुधिर मेदो मज्जास्थि धातवः ।
भूम्यप्तेजोमयाः
सप्त प्राणो व्योमाम्बु वायुभिः ॥ ३१ ॥
गुणात्मकान्
इंद्रियाणि भूतादि प्रभवा गुणाः ।
मनः
सर्व विकारात्मा बुद्धिर्विज्ञानरूपिणी ॥ ३२ ॥
एतद्
भगवतो रूपं स्थूलं ते व्याहृतं मया ।
मह्यादिभिश्च
आवरणैः अष्टभिः बहिरावृतम् ॥ ३३ ॥
अतः
परं सूक्ष्मतमं अव्यक्तं निर्विशेषणम् ।
अनादिमध्यनिधनं
नित्यं वाङ् मनसः परम् ॥ ३४ ॥
जब
विराट् पुरुषको अन्न-जल ग्रहण करनेकी इच्छा हुई, तब कोख,
आँतें और नाडिय़ाँ उत्पन्न हुर्ईं। साथ ही कुक्षिके देवता समुद्र,
नाडिय़ोंके देवता नदियाँ एवं तुष्टि और पुष्टि—ये
दोनों उनके आश्रित विषय उत्पन्न हुए ॥ २९ ॥ जब उन्होंने अपनी मायापर विचार करना
चाहा, तब हृदयकी उत्पत्ति हुई। उससे मनरूप इन्द्रिय और मनसे
उसका देवता चन्द्रमा तथा विषय कामना और सङ्कल्प प्रकट हुए ॥ ३० ॥ विराट् पुरुषके
शरीरमें पृथ्वी, जल और तेजसे सात धातुएँ प्रकट हुर्ईं—त्वचा, चर्म, मांस, रुधिर, मेद, मज्जा और अस्थि।
इसी प्रकार आकाश, जल और वायुसे प्राणोंकी उत्पत्ति हुई ॥ ३१
॥ श्रोत्रादि सब इन्द्रियाँ शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली हैं। वे विषय
अहंकारसे उत्पन्न हुए हैं। मन सब विकारोंका उत्पत्तिस्थान है और बुद्धि समस्त
पदार्थोंका बोध करानेवाली है ॥ ३२ ॥ मैंने भगवान्के इस स्थूलरूपका वर्णन तुम्हें
सुनाया है। यह बाहरकी ओरसे पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व और प्रकृति—इन आठ आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥ ३३ ॥ इससे परे भगवान्का अत्यन्त सूक्ष्मरूप
है। वह अव्यक्त, निर्विशेष, आदि,
मध्य और अन्तसे रहित एवं नित्य है। वाणी और मनकी वहाँतक पहुँच नहीं
है ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
भागवतके
दस लक्षण
अमुनी
भगवद् रूपे मया ते ह्यनुवर्णिते ।
उभे
अपि न गृह्णन्ति मायासृष्टे विपश्चितः ॥ ३५ ॥
स
वाच्य वाचकतया भगवान् ब्रह्मरूपधृक् ।
नामरूपक्रिया
धत्ते सकर्माकर्मकः परः ॥ ३६ ॥
प्रजापतीन्
मनून् देवान् ऋषीन् पितृगणान् पृथक् ।
सिद्धचारणगन्धर्वान्
विद्याध्रासुर गुह्यकान् ॥ ३७ ॥
किन्नराप्सरसो
नागान् सर्पान् किम्पुरुषोरगान् ।
मातृरक्षःपिशाचांश्च
प्रेतभूतविनायकान् ॥ ३८ ॥
कूष्माण्दोन्माद
वेतालान् यातुधानान् ग्रहानपि ।
खगान्
मृगान् पशून् वृक्षान् गिरीन् नृप सरीसृपान् ॥ ३९ ॥
द्विविधाश्चतुर्विधा
येऽन्ये जल स्थल वनौकसः ।
कुशला-अकुशला
मिश्राः कर्मणां गतयस्त्विमाः ॥ ४० ॥
सत्त्वं
रजस्तम इति तिस्रः सुर-नृ-नारकाः ।
तत्राप्येकैकशो
राजन् भिद्यन्ते गतयस्त्रिधा ।
यद्
एकैकतरोऽन्याभ्यां स्वभाव उपहन्यते ॥ ४१ ॥
(श्रीशुकदेवजी
कहते हैं) मैंने तुम्हें भगवान्के स्थूल और सूक्ष्म—व्यक्त और अव्यक्त जिन दो रूपों का वर्णन सुनाया है, ये दोनों ही भगवान् की मायाके द्वारा रचित हैं। इसलिये विद्वान् पुरुष इन
दोनों को ही स्वीकार नहीं करते ॥ ३५ ॥ वास्तवमें भगवान् निष्क्रिय हैं। अपनी
शक्तिसे ही वे सक्रिय बनते हैं। फिर तो वे ब्रह्मा का या विराट् रूप धारण करके
वाच्य और वाचक—शब्द और उसके अर्थ के रूपमें प्रकट होते हैं
और अनेकों नाम, रूप तथा क्रियाएँ स्वीकार करते हैं ॥ ३६ ॥
परीक्षित् ! प्रजापति, मनु, देवता,
ऋषि, पितर, सिद्ध,
चारण, गन्धर्व, विद्याधर,
असुर, यक्ष, किन्नर,
अप्सराएँ, नाग, सर्प,
किम्पुरुष, उरग, मातृकाएँ,
राक्षस, पिशाच, प्रेत,
भूत, विनायक, कूष्माण्ड,
उन्माद, वेताल, यातुधान,
ग्रह, पक्षी, मृग,
पशु, वृक्ष, पर्वत,
सरीसृप इत्यादि जितने भी संसारमें नाम-रूप हैं, सब भगवान्के ही हैं ॥ ३७—३९ ॥ संसारमें चर और अचर
भेदसे दो प्रकारके तथा जरायुज, अण्डज, स्वेदज
और उद्भिज्ज भेदसे चार प्रकारके जितने भी जलचर, थलचर तथा
आकाशचारी प्राणी हैं, सब-के-सब शुभ-अशुभ और मिश्रित कर्मोंके
तदनुरूप फल हैं ॥ ४० ॥ सत्त्व की प्रधानता
से देवता, रजोगुण की प्रधानता से मनुष्य और तमोगुण की प्रधानता
से नारकीय योनियाँ मिलती हैं। इन गुणोंमें भी जब एक गुण दूसरे दो गुणोंसे अभिभूत
हो जाता है, तब प्रत्येक गतिके तीन-तीन भेद और हो जाते हैं ॥
४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
भागवतके
दस लक्षण
स
एवेदं जगद्धाता भगवान् धर्मरूपधृक् ।
पुष्णाति
स्थापयन् विश्वं तिर्यङ्नरसुरादिभिः ॥ ४२ ॥
ततः
कालाग्निरुद्रात्मा यत्सृष्टं इदमात्मनः ।
सं
नियच्छति तत्काले घनानीकं इवानिलः ॥ ४३ ॥
इत्थं
भावेन कथितो भगवान् भगवत्तमः ।
न
इत्थं भावेन हि परं द्रष्टुं अर्हन्ति सूरयः ॥ ४४ ॥
नास्य
कर्मणि जन्मादौ परस्य अनुविधीयते ।
कर्तृत्वप्रतिषेधार्थं
माययारोपितं हि तत् ॥ ४५ ॥
अयं
तु ब्रह्मणः कल्पः सविकल्प उदाहृतः ।
विधिः
साधारणो यत्र सर्गाः प्राकृतवैकृताः ॥ ४६ ॥
(श्रीशुकदेवजी
कहरहे हैं) वे भगवान् जगत् के धारण-पोषण के लिये धर्ममय विष्णुरूप स्वीकार
करके देवता,
मनुष्य और पशु, पक्षी आदि रूपों में अवतार
लेते हैं तथा विश्व का पालन-पोषण करते हैं ॥ ४२ ॥ प्रलय का समय आने पर वे ही
भगवान् अपने बनाये हुए इस विश्व को कालाग्निस्वरूप रुद्र का रूप ग्रहण करके अपने में
वैसे ही लीन कर लेते हैं, जैसे वायु मेघमाला को ॥ ४३ ॥
परीक्षित्
! महात्माओंने अचिन्त्यैश्वर्य भगवान् का इसी प्रकार वर्णन किया है। परन्तु
तत्त्वज्ञानी पुरुषों को केवल इस सृष्टि, पालन और प्रलय
करनेवाले रूप में ही उनका दर्शन नहीं करना चाहिये; क्योंकि
वे तो इससे परे भी हैं ॥ ४४ ॥ सृष्टि की रचना आदि कर्मों का निरूपण करके पूर्ण
परमात्मा से कर्म या कर्तापनका सम्बन्ध नहीं जोड़ा गया है। वह तो मायासे आरोपित
होनेके कारण कर्तृत्वका निषेध करनेके लिये ही है ॥ ४५ ॥ यह मैंने ब्रह्माजीके
महाकल्पका अवान्तर कल्पोंके साथ वर्णन किया है। सब कल्पोंमें सृष्टि-क्रम एक-सा ही
है। अन्तर है तो केवल इतना ही कि महाकल्पके प्रारम्भमें प्रकृतिसे क्रमश:
महत्तत्त्वादिकी उत्पत्ति होती है और कल्पोंके प्रारम्भमें प्राकृत सृष्टि तो
ज्यों-की-त्यों रहती ही है, चराचर प्राणियोंकी वैकृत सृष्टि
नवीन रूपसे होती है ॥ ४६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
द्वितीय
स्कन्ध- दसवाँ
अध्याय..(पोस्ट१०)
भागवतके
दस लक्षण
परिमाणं
च कालस्य कल्पलक्षण विग्रहम् ।
यथा
पुरस्ताद् व्याख्यास्ये पाद्मं कल्पमथो श्रृणु ॥ ४७ ॥
शौनक
उवाच ।
यदाह
नो भवान् सूत क्षत्ता भागवतोत्तमः ।
चचार
तीर्थानि भुवः त्यक्त्वा बंधून् सु-दुस्त्यजान् ॥ ४८ ॥
क्षत्तुः
कौशारवेः तस्य संवादोऽध्यात्मसंश्रितः ।
यद्वा
स भगवान् तस्मै पृष्टः तत्त्वं उवाच ह ॥ ४९ ॥
ब्रूहि
नः तद् इदं सौम्य विदुरस्य विचेष्टितम् ।
बन्धुत्याग
निमित्तं च यथैव आगतवान् पुनः ॥ ५० ॥
सूत
उवाच ।
राज्ञा
परीक्षिता पृष्टो यद् अवोचत् महामुनिः ।
तद्वोऽभिधास्ये
श्रृणुत राज्ञः प्रश्नानुसारतः ॥ ५१ ॥
(श्रीशुकदेवजी
कहरहे हैं) परीक्षित् ! कालका परिमाण, कल्प और उसके अन्तर्गत मन्वन्तरोंका वर्णन आगे चलकर करेंगे। अब तुम
पाद्मकल्पका वर्णन सावधान होकर सुनो ॥ ४७ ॥
शौनकजीने
पूछा—सूतजी ! आपने हम लोगों से कहा था कि भगवान् के परम भक्त विदुरजी ने अपने
अति दुस्त्यज कुटुम्बियों को भी छोडक़र पृथ्वीके विभिन्न तीर्थोंमें विचरण किया था
॥ ४८ ॥ उस यात्रामें मैत्रेय ऋषिके साथ अध्यात्मके सम्बन्धमें उनकी बातचीत कहाँ
हुई तथा मैत्रेयजीने उनके प्रश्न करनेपर किस तत्त्वका उपदेश किया ? ॥ ४९ ॥ सूतजी ! आपका स्वभाव बड़ा सौम्य है। आप विदुरजी का वह चरित्र हमें
सुनाइये। उन्होंने अपने भाई-बन्धुओं को क्यों छोड़ा और फिर उनके पास क्यों लौट आये
? ॥ ५० ॥
सूतजीने
कहा—शौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्ने भी यही बात पूछी थी। उनके प्रश्रों के
उत्तरमें श्रीशुकदेव जी महाराज ने जो कुछ कहा था, वही मैं
आपलोगों से कहता हूँ। सावधान होकर सुनिये ॥ ५१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
द्वितीयस्कंधे
दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
इति
द्वितीय स्कन्ध समाप्त
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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