शनिवार, 2 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगवान्‌ वामनजी का विराट् रूप होकर
दो ही पग से पृथ्वी और स्वर्ग को नाप लेना

श्रीशुक उवाच -
बलिरेवं गृहपतिः कुलाचार्येण भाषितः ।
तूष्णीं भूत्वा क्षणं राजन् उवाचावहितो गुरुम् ॥ १ ॥

श्रीबलिरुवाच -
सत्यं भगवता प्रोक्तं धर्मोऽयं गृहमेधिनाम् ।
अर्थं कामं यशो वृत्तिं यो न बाधेत कर्हिचित् ॥ २ ॥
स चाहं वित्तलोभेन प्रत्याचक्षे कथं द्विजम् ।
प्रतिश्रुत्य ददामीति प्राह्रादिः कितवो यथा ॥ ३ ॥
न ह्यसत्यात्परोऽधर्म इति होवाच भूरियम् ।
सर्वं सोढुमलं मन्ये ऋतेऽलीकपरं नरम् ॥ ४ ॥
नाहं बिभेमि निरयान् नाधन्यादसुखार्णवात् ।
न स्थानच्यवनान् मृत्योः यथा विप्रप्रलम्भनात् ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! जब कुलगुरु शुक्राचार्य ने इस प्रकार कहा, तब आदर्श गृहस्थ राजा बलि ने एक क्षण चुप रहकर बड़ी विनय और सावधानी से शुक्राचार्य जी के प्रति यों कहा ॥ १ ॥
राजा बलिने कहाभगवन् ! आपका कहना सत्य है। गृहस्थाश्रम में रहनेवालों के लिये वही धर्म है जिससे अर्थ, काम, यश और आजीविका में कभी किसी प्रकार बाधा न पड़े ॥ २ ॥ परंतु गुरुदेव ! मैं प्रह्लादजी का पौत्र हूँ और एक बार देनेकी प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। अत: अब मैं धनके लोभसे ठगकी भाँति इस ब्राह्मणसे कैसे कहूँ कि मैं तुम्हें नहीं दूँगा॥ ३ ॥ इस पृथ्वीने कहा है कि असत्यसे बढक़र कोई अधर्म नहीं है। मैं सब कुछ सहनेमें समर्थ हूँ, परंतु झूठे मनुष्यका भार मुझसे नहीं सहा जाता॥ ४ ॥ मैं नरकसे, दरिद्रतासे, दु:खके समुद्रसे, अपने राज्यके नाशसे और मृत्युसे भी उतना नहीं डरता, जितना ब्राह्मणसे प्रतिज्ञा करके उसे धोखा देनेसे डरता हूँ ॥ ५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना

अत्रापि बह्वृचैर्गीतं शृणु मेऽसुरसत्तम ।
सत्यमोमितियत्प्रोक्तं यन्नेत्याहानृतं हि तत् ॥ ३८ ॥
सत्यं पुष्पफलं विद्याद् आत्मवृक्षस्य गीयते ।
वृक्षेऽजीवति तन्न स्यात् अनृतं मूलमात्मनः ॥ ३९ ॥
तद् यथा वृक्ष उन्मूलः शुष्यति उद्वर्ततेऽचिरात् ।
एवं नष्टानृतः सद्य आत्मा शुष्येन्न संशयः ॥ ४० ॥
पराग् रिक्तमपूर्णं वा अक्षरं यत् तदोमिति ।
यत्किञ्चित् ओमिति ब्रूयात् तेन रिच्येत वै पुमान् ।
भिक्षवे सर्वमोंकुर्वन् नालं कामेन चात्मने ॥ ४१ ॥
अथैतत्पूर्णमभ्यात्मं यच्च नेति अनृतं वचः ।
सर्वं नेति अनृतं ब्रूयात् स दुष्कीर्तिः श्वसन्मृतः ॥ ४२ ॥
स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसंकटे ।
गोब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्यात् जुगुप्सितम् ॥ ४३ ॥

असुरशिरोमणे ! यदि तुम्हें अपनी प्रतिज्ञा टूट जानेकी चिन्ता हो, तो मैं इस विषयमें तुम्हें कुछ ऋग्वेदकी श्रुतियोंका आशय सुनाता हूँ, तुम सुनो। श्रुति कहती है—‘किसीको कुछ देनेकी बात स्वीकार कर लेना सत्य है और नकार जाना अर्थात् अस्वीकार कर देना असत्य है ॥ ३८ ॥ यह शरीर एक वृक्ष है और सत्य इसका फल-फूल है। परंतु यदि वृक्ष ही न रहे तो फल-फूल कैसे रह सकते हैं ? क्योंकि नकार जाना, अपनी वस्तु दूसरेको न देना, दूसरे शब्दोंमें अपना संग्रह बचाये रखनायही शरीररूप वृक्षका मूल है ॥ ३९ ॥ जैसे जड़ न रहनेपर वृक्ष सूखकर थोड़े ही दिनोंमें गिर जाता है, उसी प्रकार यदि धन देनेसे अस्वीकार न किया जाय तो यह जीवन सूख जाता हैइसमें सन्देह नहीं ॥ ४० ॥ हाँ मैं दूँगा’—यह वाक्य ही धनको दूर हटा देता है। इसलिये इसका उच्चारण ही अपूर्ण अर्थात् धनसे खाली कर देनेवाला है। यही कारण है कि जो पुरुष हाँ मैं दूगाँ’— ऐसा कहता है, वह धनसे खाली हो जाता है। जो याचकको सब कुछ देना स्वीकार कर लेता है, वह अपने लिये भोगकी कोई सामग्री नहीं रख सकता ॥ ४१ ॥ इसके विपरीत मैं नहीं दूँगा’— यह जो अस्वीकारात्मक असत्य है, वह अपने धनको सुरक्षित रखने तथा पूर्ण करनेवाला है। परंतु ऐसा सब समय नहीं करना चाहिये। जो सबसे, सभी वस्तुओंके लिये नहीं करता रहता है, उसकी अपकीर्ति हो जाती है। वह तो जीवित रहनेपर भी मृतकके समान ही है ॥ ४२ ॥ स्त्रियोंको प्रसन्न करनेके लिये, हास-परिहासमें, विवाहमें, कन्या आदिकी प्रशंसा करते समय, अपनी जीविका की रक्षा के लिये, प्राणसंकट उपस्थित होने पर, गौ और ब्राह्मण के हितके लिये तथा किसी को मृत्यु से बचानेके लिये असत्य-भाषण भी उतना निन्दनीय नहीं है ॥ ४३ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
अष्टमस्कन्धे वामनप्रादुर्भावे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

भगवान्‌ वामन का बलि से तीन पग पृथ्वी माँगना,
बलि का वचन देना और शुक्राचार्यजी का उन्हें रोकना
 
श्रीशुक उवाच -
इत्युक्तः स हसन्नाह वाञ्छातः प्रतिगृह्यताम् ।
वामनाय महीं दातुं जग्राह जलभाजनम् ॥ २८ ॥
विष्णवे क्ष्मां प्रदास्यन्तं उशना असुरेश्वरम् ।
जानन् चिकीर्षितं विष्णोः शिष्यं प्राह विदां वरः ॥ २९ ॥

श्रीशुक्र उवाच -
एष वैरोचने साक्षात् भगवान् विष्णुरव्ययः ।
कश्यपाद् अदितेर्जातो देवानां कार्यसाधकः ॥ ३० ॥
प्रतिश्रुतं त्वयैतस्मै यद् अनर्थं अजानता ।
न साधु मन्ये दैत्यानां महानुपगतोऽनयः ॥ ३१ ॥
एष ते स्थानमैश्वर्यं श्रियं तेजो यशः श्रुतम् ।
दास्यत्याच्छिद्य शक्राय मायामाणवको हरिः ॥ ३२ ॥
त्रिभिः क्रमैः इमान् लोकान् विश्वकायः क्रमिष्यति ।
सर्वस्वं विष्णवे दत्त्वा मूढ वर्तिष्यसे कथम् ॥ ३३ ॥
क्रमतो गां पदैकेन द्वितीयेन दिवं विभोः ।
खं च कायेन महता तार्तीयस्य कुतो गतिः ॥ ३४ ॥
निष्ठां ते नरके मन्ये हि अप्रदातुः प्रतिश्रुतम् ।
प्रतिश्रुतस्य योऽनीशः प्रतिपादयितुं भवान् ॥ ३५ ॥
न तद्दानं प्रशंसन्ति येन वृत्तिर्विपद्यते ।
दानं यज्ञस्तपः कर्म लोके वृत्तिमतो यतः ॥ ३६ ॥
धर्माय यशसेऽर्थाय कामाय स्वजनाय च ।
पञ्चधा विभजन् वित्तं इहामुत्र च मोदते ॥ ३७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ के इस प्रकार कहनेपर राजा बलि हँस पड़े। उन्होंने कहा— ‘अच्छी बात है; जितनी तुम्हारी इच्छा हो, उतनी ही ले लो।यों कहकर वामनभगवान्‌  को तीन पग पृथ्वी का संकल्प करनेके लिये उन्होंने जलपात्र उठाया ॥ २८ ॥ शुक्राचार्यजी सब कुछ जानते थे। उनसे भगवान्‌ की यह लीला भी छिपी नहीं थी। उन्होंने राजा बलिको पृथ्वी देने के लिये तैयार देखकर उनसे कहा ॥ २९ ॥
शुक्राचार्यजीने कहाविरोचनकुमार ! ये स्वयं अविनाशी भगवान्‌ विष्णु हैं। देवताओंका काम बनानेके लिये कश्यपकी पत्नी अदितिके गर्भसे अवतीर्ण हुए हैं ॥ ३० ॥ तुमने यह अनर्थ न जानकर कि ये मेरा सब कुछ छीन लेंगे, इन्हें दान देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। यह तो दैत्योंपर बहुत बड़ा अन्याय होने जा रहा है। इसे मैं ठीक नहीं समझता ॥ ३१ ॥ स्वयं भगवान्‌ ही अपनी योगमायासे यह ब्रह्मचारी बनकर बैठे हुए हैं। ये तुम्हारा राज्य, ऐश्वर्य, लक्ष्मी, तेज और विश्वविख्यात कीर्तिसब कुछ तुमसे छीनकर इन्द्रको दे देंगे ॥ ३२ ॥ ये विश्वरूप हैं। तीन पगमें तो ये सारे लोकोंको नाप लेंगे। मूर्ख ! जब तुम अपना सर्वस्व ही विष्णुको दे डालोगे, तो तुम्हारा जीवन निर्वाह कैसे होगा ॥ ३३ ॥ ये विश्वव्यापक भगवान्‌ एक पगमें पृथ्वी और दूसरे पगमें स्वर्गको नाप लेंगे। इनके विशाल शरीरसे आकाश भर जायगा। तब इनका तीसरा पग कहाँ जायगा ? ॥ ३४ ॥ तुम उसे पूरा न कर सकोगे। ऐसी दशामें मैं समझता हूँ कि प्रतिज्ञा करके पूरा न कर पानेके कारण तुम्हें नरकमें ही जाना पड़ेगा। क्योंकि तुम अपनी की हुई प्रतिज्ञाको पूर्ण करनेमें सर्वथा असमर्थ होओगे ॥ ३५ ॥ विद्वान् पुरुष उस दानकी प्रशंसा नहीं करते, जिसके बाद जीवन-निर्वाहके लिये कुछ बचे ही नहीं। जिसका जीवन-निर्वाह ठीक-ठीक चलता हैवही संसारमें दान, यज्ञ, तप और परोपकारके कर्म कर सकता है ॥ ३६ ॥ जो मनुष्य अपने धनको पाँच भागोंमें बाँट देता हैकुछ धर्मके लिये, कुछ यशके लिये, कुछ धनकी अभिवृद्धिके लिये, कुछ भोगोंके लिये और कुछ अपने स्वजनोंके लियेवही इस लोक और परलोक दोनोंमें ही सुख पाता है ॥ ३७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...