मंगलवार, 26 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तीसरा अध्याय  (पोस्ट 03)

 

भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान्‌ का अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान्‌ का उन्हें सान्त्वना प्रदान करना

 

श्रीराधोवाच -
भुवो भरं हर्तुमलं व्रजेर्भुवं
कृतं परं मे शपथं शृणोत्वतः ।
गते त्वयि प्राणपते च विग्रहं
कदाचिदत्रैव न धारयाम्यहम् ॥२९॥
यदा त्वमेवं शपथं न मन्यसे
द्वितीयवारं प्रददामि वाक्पथम् ।
प्राणोऽधरे गन्तुमतीव विह्वलः
कर्पूरधूमः कणवद्‌गमिष्यति ॥३०॥


श्रीभगवानुवाच -
त्वया सह गमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
हरिष्यामि भुवो भारं करिष्यामि वचस्तव ॥३१॥


श्रीराधिकोवाच -
यत्र वृन्दावनं नास्ति यत्र नो यमुना नदी ।
यत्र गोवर्द्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥३२॥


श्रीनारद उवाच -
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥३३॥
तदा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा नत्वा पुनः पुनः ।
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं समुवाच ह ॥३४॥


श्रीब्रह्मोवाच -
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि ।
एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः ॥३५॥


श्रीभगवानुवाच -
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।
रोहिण्यां मत्कला शेषो भविष्यति न संशयः ॥३६॥
श्री साक्षाद्‌रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा ।
सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवी पापनाशिनी ॥३८॥
रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि ॥३९॥
नंदो द्रोणो वसुः साक्षाद्‌यशोदा सा धरा स्मृता ।
वृषभानुः सुचन्द्रश्च तस्य भार्या कलावती ॥४०॥
भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति ।
सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥४१॥

श्रीराधिकाजीने कहा- आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भूमण्डलपर अवश्य पधारें; परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन लें-प्राणनाथ ! आपके चले जानेपर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी। यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञापर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ। अब मेरे प्राण अधरतक पहुँचनेको अत्यन्त विह्वल हैं। ये इस शरीरसे वैसे ही उड़ जायँगे, जैसे कपूरके धूलिकण ॥ २९-३० ॥

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                        श्रीभगवान बोले-हे राधिके ! तुम विषाद मत करो | मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी ॥ ३१ ॥

श्रीराधिकाजीने कहा - ( परंतु ) प्रभो! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मनको सुख नहीं मिलता ॥ ३२ ॥

नारदजी कहते हैं— ( श्रीराधिकाजीके इस प्रकार कहनेपर) भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने धामसे चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस

उस समय सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माजीने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको बार-बार प्रणाम करके कहा ।। ३३-३४ ॥

श्रीब्रह्माजीने पूछा- भगवन्! मेरे लिये कौन स्थान होगा? आप कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी ? ॥ ३५ ॥

श्रीभगवान् ने  कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकीके यहाँ प्रकट होऊँगा। मेरे कलास्वरूप ये 'शेष' रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे - इसमें संशय नहीं है। साक्षात् 'लक्ष्मी' राजा भीष्मक के घर पुत्रीरूप से उत्पन्न होंगी। इनका नाम 'रुक्मिणी' होगा और 'पार्वती' 'जाम्बवती' के नाम से प्रकट होंगी। तुलसी सत्या के रूप में अवतरित होंगी ।। ३६-३७ ॥

यज्ञपुरुष की पत्नी 'दक्षिणा देवी' वहाँ 'लक्ष्मणा' नाम धारण करेंगी। यहाँ जो 'विरजा' नाम की नदी है, वही 'कालिन्दी' नामसे विख्यात होगी। भगवती 'लज्जा' का नाम 'भद्रा' होगा। समस्त पापोंका प्रशमन करनेवाली 'गङ्गा' 'मित्रविन्दा' नाम धारण करेगी ।। ३८ ॥

जो इस समय 'कामदेव' हैं, वे ही रुक्मिणीके गर्भसे 'प्रद्युम्न' रूपमें उत्पन्न होंगे। प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा। [उस समय तुम्हें 'अनिरुद्ध' कहा जायगा], इसमें कुछ भी संदेह नहीं है। ये 'वसु' जो  स्वयं 'द्रोण' के नामसे प्रसिद्ध हैं, व्रजमें 'नन्द' होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया 'धरा देवी' 'यशोदा' नाम धारण करेंगी। 'सुचन्द्र' 'वृषभानु' बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी 'कलावती' धराधामपर 'कीर्ति' के नामसे प्रसिद्ध होंगी। फिर उन्हींके यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं व्रजमण्डलमें गोपियों के साथ सदा रास विहार करूँगा ।। ३९-४१ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'भूतलपर अवतीर्ण होने के उद्योग का वर्णन' नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

युधिष्ठिरादि का भीष्मजी के पास जाना और
भगवान्‌ श्रीकृष्ण की स्तुति 
करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग करना

सर्वं कालकृतं मन्ये भवतां च यदप्रियम् ।
सपालो यद्वशे लोको वायोरिव घनावलिः ॥ १४ ॥
यत्र धर्मसुतो राजा गदापाणिर्वृकोदरः ।
कृष्णोऽस्त्री गाण्डिवं चापं सुहृत् कृष्णः ततो विपत् ॥ १५ ॥

(भीष्मपितामह पांडवों से कह रहे हैं) जिस प्रकार बादल वायु के वश में रहते हैं, वैसे ही लोकपालों के सहित सारा संसार काल भगवान्‌ के अधीन है। मैं समझता हूँ कि तुमलोगों के जीवन में ये जो अप्रिय घटनाएँ घटित हुई हैं, वे सब उन्हीं की लीला हैं ॥ १४ ॥ नहीं तो जहाँ साक्षात् धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर हों, गदाधारी भीमसेन और धनुर्धारी अर्जुन रक्षाका काम कर रहे हों, गाण्डीव धनुष हो और स्वयं श्रीकृष्ण सुहृद् हों—भला, वहाँ भी विपत्ति की सम्भावना है ? ॥ १५ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


सोमवार, 25 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 02)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तीसरा अध्याय  (पोस्ट 02)

 

भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान्‌ का अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान्‌ का उन्हें सान्त्वना प्रदान करना

 

देवा ऊचुः -
कृष्णाय पूर्णपुरुषाय परात्पराय
यज्ञेश्वराय परकारणकारणाय ।
राधावराय परिपूर्णतमाय साक्षा-
द्‌गोलोकधाम धिषणाय नमः परस्मै ॥१५॥
योगेश्वराः किल वदन्ति महः परं त्वां
तत्रैव सात्वतमनाः कृतविग्रहं च ।
अस्माभिरद्य विदितं यददोऽद्वयं ते
तस्मै नमोऽस्तु महसां पतये परस्मै ॥१६॥
व्यङ्गेन वा न न हि लक्षणया कदापि
    स्फोटेन यच्च कवयो न विशंति मुख्याः ।
निर्देश्यभावरहितः प्रकृतेः परं च
  त्वां ब्रह्म निर्गुणमलं शरणं व्रजामः ॥१७॥
त्वां ब्रह्म केचिदवयंति परे च कालं
केचित्प्रशांतमपरे भुवि कर्मरूपम् ।
पूर्वे च योगमपरे किल कर्तृभाव-
मन्योक्तिभिर्न विदितं शरणं गताः स्मः ॥१८॥
श्रेयस्करीं भगवतस्तवपादसेवां
हित्वाथ तीर्थयजनादि तपश्चरन्ति ।
ज्ञानेन ये च विदिता बहुविघ्नसङ्घैः
सन्ताडिताः किमु भवन्ति न ते कृतार्थाः ॥१९॥
विज्ञाप्यमद्य किमु देव अशेषसाक्षी
यः सर्वभूतहृदयेषु विराजमानः ।
देवैर्नमद्‌भिरमलाशयमुक्त देहै-
स्तस्मै नमो भगवते पुरुषोत्तमाय ॥२०॥
यो राधिकाहृदयसुन्दरचन्द्रहारः
श्रीगोपिकानयनजीवनमूलहारः ।
गोलोकधामधिषणध्वज आदिदेवः
स त्वं विपत्सु विबुधान् परिपाहि पाहि ॥२१॥
वृन्दावनेश गिरिराजपते व्रजेश
गोपालवेषकृतनित्यविहारलील ।
राधापते श्रुतिधराधिपते धरां त्वं
गोवर्द्धनोद्धरण उद्धर धर्मधाराम् ॥२२॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तो भवान् साक्षाच्छ्रीकृष्णो गोकुलेश्वरः ।
प्रत्याह प्रणतान्देवान्मेघगंभीरया गिरा ॥२३॥


श्रीभगवानुवाच -
हे सुरज्येष्ठ हे शंभो देवाः शृणुत मद्‌वचः ।
यादवेषु च जन्यध्वमंशैः स्त्रीभिर्मदाज्ञया ॥२४॥
अहं च अवतरिष्यामि हरिष्यामि भुवो भरम् ।
करिष्यामि च वः कार्यं भविष्यामि यदोः कुले ॥२५॥
वेदा मे वचनं विप्रा मुखं गावस्तनुर्मम ।
अंगानि देवता यूयं साधवो ह्यसवो हृदि ॥२६॥
युगे युगे च बाध्येत यदा पाखंडिभिर्जनैः ।
धर्मः क्रतुर्दया साक्षात्तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥२७॥


श्रीनारद उवाच -
इत्युक्तवन्तं जगदीश्वरं हरिं
राधा पतिप्राणवियोगविह्वला ।
दावाग्निना दुःखलतेव मूर्छिता-
श्रुकंपरोमांचितभावसंवृता ॥२८॥

देवता बोले- जो भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र पूर्णपुरुष, परसे भी पर, यज्ञोंके स्वामी, कारण के भी परम कारण, परिपूर्णतम परमात्मा और साक्षात् गोलोकधामके अधिवासी हैं, इन परम पुरुष श्रीराधावर को हम सादर नमस्कार करते हैं ॥  योगेश्वर लोग कहते हैं कि आप परम तेजःपुञ्ज हैं; शुद्ध अन्तःकरणवाले भक्तजन ऐसा मानते हैं कि आप लीलाविग्रह धारण करनेवाले अवतारी पुरुष हैं; परंतु हमलोगों ने आज आपके जिस स्वरूपको जाना है, वह अद्वैत — सबसे अभिन्न एक अद्वितीय है; अतः आप महत्तम तत्त्वों एवं महात्माओं के भी अधिपति हैं; आप परब्रह्म परमेश्वरको हमारा नमस्कार है ॥ १५-१६ ॥

कितने विद्वानों ने व्यञ्जना, लक्षणा और स्फोट द्वारा आपको जानना चाहा; किंतु फिर भी वे आपको पहचान न सके; क्योंकि आप निर्दिष्ट भावसे रहित हैं। अतः मायासे निर्लेप आप निर्गुण ब्रह्मको हम शरण ग्रहण करते हैं ॥ १७ ॥

किन्हीं ने आपको 'ब्रह्म' माना है, कुछ दूसरे लोग आपके लिये 'काल' शब्द का व्यवहार करते हैं । कितनोंकी ऐसी धारणा है कि आप शुद्ध 'प्रशान्त' स्वरूप हैं तथा कतिपय मीमांसक लोगोंने तो यह मान रखा है कि पृथ्वीपर आप 'कर्म' रूपसे विराजमान हैं। कुछ प्राचीनोंने 'योग' नामसे तथा कुछने 'कर्ता' के रूपमें आपको स्वीकार किया है। इस प्रकार सबकी परस्पर विभिन्न ही उक्तियाँ हैं। अतएव कोई भी आपको वस्तुतः नहीं जान सका । (कोई भी यह नहीं कह सकता कि आप यही हैं, 'ऐसे ही' हैं।) अतः आप (अनिर्देश्य, अचिन्त्य, अनिर्वचनीय) भगवान् की  हमने शरण ग्रहण की है ॥ १८ ॥

भगवन् ! आपके चरणोंकी सेवा अनेक कल्याणोंको देनेवाली है। उसे छोड़कर जो तीर्थ, यज्ञ और तपका आचरण करते हैं, अथवा ज्ञानके द्वारा जो प्रसिद्ध हो गये हैं, उन्हें बहुत-से विघ्नों का सामना करना पड़ता है; वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते ॥ १९ ॥

भगवन् ! अब हम आपसे क्या निवेदन करें, आपसे तो कोई भी बात छिपी नहीं है; क्योंकि आप चराचरमात्र के भीतर विद्यमान हैं। जो शुद्ध अन्तःकरणवाले एवं देहबन्धन से मुक्त हैं, वे (हम विष्णु आदि) देवता भी आपको नमस्कार ही करते हैं। ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान्‌ को हमारा प्रणाम है ॥ २०॥

जो श्रीराधिकाजीके हृदयको सुशोभित करनेवाले चन्द्रहार हैं, गोपियोंके नेत्र और जीवनके मूल आधार हैं तथा ध्वजाकी भाँति गोलोकधामको अलंकृत कर रहे हैं, वे आदिदेव भगवान् आप संकटमें पड़े हुए हम देवताओंकी रक्षा करें, रक्षा करें। भगवन्! आप वृन्दावनके स्वामी हैं, गिरिराजपति भी कहलाते हैं । आप व्रजके अधिनायक हैं, गोपालके रूपमें अवतार धारण करके अनेक प्रकारकी नित्य विहार - लीलाएँ करते हैं। श्रीराधिकाजीके प्राणवल्लभ एवं श्रुतिधरोंके भी आप स्वामी हैं। आप ही गोवर्धनधारी हैं, अब आप धर्मके भारको धारण करनेवाली इस पृथ्वीका उद्धार करनेकी कृपा करें  ।। २१–२२ ॥

नारदजी कहते हैं— इस प्रकार स्तुति करनेपर गोकुलेश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रणाम करते हुए देवताओंको सम्बोधित करके मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोले - ॥ २३ ॥

श्रीकृष्ण भगवान् ने कहा – ब्रह्मा, शंकर एवं (अन्य) देवताओ! तुम सब मेरी बात सुनो। मेरे आदेशानुसार तुमलोग अपने अंशोंसे देवियोंके साथ यदुकुलमें जन्म धारण करो। मैं भी अवतार लूँगा और मेरे द्वारा पृथ्वीका भार दूर होगा। मेरा वह अवतार यदुकुलमें होगा और मैं तुम्हारे सब कार्य सिद्ध करूँगा। वेद मेरी वाणी, ब्राह्मण मुख और गौ शरीर है। सभी देवता मेरे अङ्ग हैं। साधुपुरुष तो हृदयमें वास करनेवाले मेरे प्राण ही हैं। अतः प्रत्येक युगमें जब दम्भपूर्ण दुष्टोंद्वारा इन्हें पीड़ा होती है और धर्म, यज्ञ तथा दयापर भी आघात पहुँचता है, तब मैं स्वयं अपने आपको भूतलपर प्रकट करता हूँ ॥ २४- २७ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- जिस समय जगत्पति भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र इस प्रकार बातें कर रहे थे, उसी क्षण 'अब प्राणनाथसे मेरा वियोग हो जायगा' यह समझकर श्रीराधिकाजी व्याकुल हो गयीं और दावानलसे दग्ध लताकी भाँति मूच्छित होकर गिर पड़ीं। उनके शरीरमें अश्रु, कम्प, रोमाञ्च आदि सात्त्विक भावोंका उदय हो गया ॥ २८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए भीष्मजीका प्राणत्याग करना

तान् समेतान् महाभागान् उपलभ्य वसूत्तमः ।
पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥ ९ ॥
कृष्णं च तत्प्रभावज्ञ आसीनं जगदीश्वरम् ।
हृदिस्थं पूजयामास माययोपात्त विग्रहम् ॥ १० ॥
पाण्डुपुत्रान् उपासीनान् प्रश्रयप्रेमसङ्गतान् ।
अभ्याचष्टानुरागाश्रैः अन्धीभूतेन चक्षुषा ॥ ११ ॥
अहो कष्टमहोऽन्याय्यं यद् यूयं धर्मनन्दनाः ।
जीवितुं नार्हथ क्लिष्टं विप्रधर्माच्युताश्रयाः ॥ १२ ॥
संस्थितेऽतिरथे पाण्डौ पृथा बालप्रजा वधूः ।
युष्मत्कृते बहून् क्लेशान् प्राप्ता तोकवती मुहुः ॥ १३ ॥

भीष्मपितामह धर्मको और देश-कालके विभागको—कहाँ किस समय क्या करना चाहिये, इस बातको जानते थे। उन्होंने उन बड़भागी ऋषियोंको सम्मिलित हुआ देखकर उनका यथायोग्य सत्कार किया ॥ ९ ॥ वे भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रभाव भी जानते थे। अत: उन्होंने अपनी लीलासे मनुष्यका वेष धारण करके वहाँ बैठे हुए तथा जगदीश्वरके रूपमें हृदयमें विराजमान भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बाहर तथा भीतर दोनों जगह पूजा की ॥ १० ॥ पाण्डव बड़े विनय और प्रेमके साथ भीष्मपितामह के पास बैठ गये। उन्हें देखकर भीष्म- पितामहकी आँखें प्रेमके आँसुओंसे भर गयीं। उन्होंने उनसे कहा— ॥ ११ ॥ ‘धर्मपुत्रो ! हाय ! हाय ! यह बड़े कष्ट और अन्यायकी बात है कि तुमलोगोंको ब्राह्मण, धर्म और भगवान्‌के आश्रित रहनेपर भी इतने कष्टके साथ जीना पड़ा, जिसके तुम कदापि योग्य नहीं थे ॥ १२ ॥ अतिरथी पाण्डुकी मृत्युके समय तुम्हारी अवस्था बहुत छोटी थी। उन दिनों तुमलोगोंके लिये कुन्तीरानीको और साथ-साथ तुम्हें भी बार-बार बहुत-से कष्ट झेलने पड़े ॥ १३ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से


रविवार, 24 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) तीसरा अध्याय (पोस्ट 01)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

तीसरा अध्याय  (पोस्ट 01)

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                               भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह में  श्रीविष्णु आदिका प्रवेश; देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान्‌ का अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान्‌ का उन्हें सान्त्वना प्रदान करना

 

मुने देवा महात्मानं कृष्णं दृष्ट्वा परात्परम् ।
अग्रे किं चक्रिरे तत्र तन्मे ब्रूहि कृपां कुरु ॥१॥


नारद उवाच -
सर्वेषां पश्यतां तेषां वैकुंठोऽपि हरिस्ततः ।
उत्थायाष्टभुजः साक्षाल्लीनोऽभूत्कृष्णविग्रहे ॥२॥
तदैव चागतः पूर्णो नृसिंहश्चण्डविक्रमः ।
कोटिसूर्यप्रतीकाशो लीनोऽभूत्कृष्णतेजसि ॥३॥
रथे लक्षहये शुभ्रे स्थितश्चागतवांस्ततः ।
श्वेतद्वीपाधिपो भूमा सहस्रभुजमंडितः ॥४॥
श्रिया युक्तः स्वायुधाढ्यः पार्षदैः परिसेवितः ।
संप्रलीनो बभूवाशु सोऽपि श्रीकृष्णविग्रहे ॥५॥
तदैव चागतः साक्षाद्‌रामो राजीवलोचनः ।
धनुर्बाणधरः सीताशोभितो भ्रातृभिर्वृतः ॥६॥
दशकोट्यर्कसंकाशे चामरैर्दोलिते रथे ।
असंख्यवानरेंद्राढ्ये लक्षचक्रघनस्वने ॥७॥
लक्षध्वजे लक्षहये शातकौंभे स्थितस्ततः ।
श्रीकृष्णविग्रहे पूर्णः संप्रलीनो बभूव ह ॥८॥
तदैव चागतः साक्षाद्‌यज्ञो नारायणो हरिः ।
प्रस्फुरत्प्रलयाटोपज्वलदग्निशिखोपमः ॥९॥
रथे ज्योतिर्मये दृश्यो दक्षिणाढ्यः सुरेश्वरः ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामविग्रहे ॥१०॥
तदा चागतवान् साक्षान्नरनारायणः प्रभुः ।
चतुर्भुजो विशालाक्षो मुनिवेषो घनद्युतिः ॥११॥
तडित्कोटिजटाजूटः प्रस्फुरद्दीप्तिमंडलः ।
मुनीन्द्रमण्डलैर्दिव्यैर्मण्डितोऽखण्डितव्रतः ॥१२॥
सर्वेषां पश्यतां तेषामाश्चर्य मनसा नृप ।
सोऽपि लीनो बभूवाशु श्रीकृष्णे श्यामसुंदरे ॥१३॥
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं च स्वयं प्रभुम् ।
ज्ञात्वा देवाः स्तुतिं चक्रुः परं विस्मयमागताः ॥१४॥

 

श्रीजनकजीने पूछा- मुने ! परात्पर महात्मा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंने आगे क्या किया, मुझे यह बतानेकी कृपा करें ॥ १ ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! उस समय सबके देखते-देखते अष्ट भुजाधारी वैकुण्ठाधिपति भगवान् श्रीहरि उठे और साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें लीन हो गये। उसी समय कोटि सूर्यो के समान तेजस्वी, प्रचण्ड पराक्रमी पूर्णस्वरूप भगवान् नृसिंहजी पधारे और भगवान् श्रीकृष्ण के तेजमें वे भी समा गये। इसके बाद सहस्र भुजाओंसे सुशोभित, श्वेतद्वीप के स्वामी विराट् पुरुष, जिनके शुभ्र रथमें सफेद रंगके लाख घोड़े जुते हुए थे, उस रथपर आरूढ़ होकर वहाँ आये ॥ २-४ ॥

उनके साथ श्रीलक्ष्मीजी भी थीं। वे अनेक प्रकारके अपने आयुधोंसे सम्पन्न थे । पार्षदगण चारों ओरसे उनकी सेवामें उपस्थित थे । वे भगवान् भी उसी समय श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें सहसा प्रविष्ट हो गये। फिर वे पूर्णस्वरूप कमललोचन भगवान् श्रीराम स्वयं वहाँ पधारे। उनके हाथमें धनुष और बाण थे तथा साथमें श्रीसीताजी और भरत आदि तीनों भाई भी थे। उनका दिव्य रथ दस करोड़ सूर्योके समान प्रकाशमान था। उसपर निरन्तर चॅवर डुलाये जा रहे थे। असंख्य वानरयूथपति उनकी रक्षाके कार्यमें संलग्न थे। उस रथके एक लाख चक्कोंसे मेघोंकी गर्जनाके समान गम्भीर ध्वनि निकल रही थी । उसपर लाख ध्वजाएँ फहरा रही थीं। उस रथमें लाख घोड़े जुते हुए थे। वह रथ सुवर्णमय था । उसीपर बैठकर भगवान् श्रीराम वहाँ पधारे थे। वे भी श्रीकृष्णचन्द्रके दिव्य विग्रहमें लीन हो गये ॥ ५-८ ॥

फिर उसी समय साक्षात् यज्ञनारायण श्रीहरि वहाँ पधारे, जो प्रलयकालकी जाज्वल्यमान अग्निशिखाके समान उद्भासित हो रहे थे । देवेश्वर यज्ञ अपनी धर्मपत्नी दक्षिणाके साथ ज्योतिर्मय रथपर बैठे दिखायी देते थे वे भी उस समय श्यामविग्रह भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रमें लीन हो गये । तत्पश्चात् साक्षात् भगवान् नर-नारायण वहाँ पधारे। उनके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम थी। उनके चार भुजाएँ थीं, नेत्र विशाल थे और वे मुनिके वेषमें थे। उनके सिरका जटाजूट कौंधती हुई करोड़ों बिजलियोंके समान दीप्तिमान् था। उनका दीप्तिमण्डल सब ओर उद्भासित हो रहा था। दिव्य मुनीन्द्रमण्डलोंसे मण्डित वे भगवान् नारायण अपने अखण्डित ब्रह्मचर्यसे शोभा पाते थे ॥ ९-१२ ॥

राजन् ! सभी देवता आश्चर्ययुक्त मनसे उनकी ओर देख रहे थे । किंतु वे भी श्यामसुन्दर भगवान् श्रीकृष्णमें तत्काल लीन हो गये। इस प्रकारके विलक्षण दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवताओंको महान् आश्चर्य हुआ । उन सबको यह भलीभाँति ज्ञात हो गया कि परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र स्वयं परिपूर्णतम भगवान् हैं। तब वे उन परमप्रभुकी स्तुति करने लगे ॥ १३ – १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता  पुस्तक कोड 2260 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - नवां अध्याय..(पोस्ट..०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--नवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

युधिष्ठिरादिका भीष्मजीके पास जाना और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति करते हुए भीष्मजी का प्राणत्याग करना

सूत उवाच ।

इति भीतः प्रजाद्रोहात् सर्वधर्मविवित्सया ।
ततो विनशनं प्रागाद् यत्र देवव्रतोऽपतत् ॥। १ ॥
तदा ते भ्रातरः सर्वे सदश्वैः स्वर्णभूषितैः ।
अन्वगच्छन् रथैर्विप्रा व्यासधौम्यादयस्तथा ॥। २ ॥
भगवानपि विप्रर्षे रथेन सधनञ्जयः ।
स तैर्व्यरोचत नृपः कुवेर इव गुह्यकैः ॥। ३ ॥
दृष्ट्वा निपतितं भूमौ दिवश्च्युतं इवामरम् ।
प्रणेमुः पाण्डवा भीष्मं सानुगाः सह चक्रिणा ॥। ४ ॥
तत्र ब्रह्मर्षयः सर्वे देवर्षयश्च सत्तम ।
राजर्षयश्च तत्रासन् द्रष्टुं भरतपुङ्गवम् ॥। ५ ॥
पर्वतो नारदो धौम्यो भगवान् बादरायणः ।
बृहदश्वो भरद्वाजः सशिष्यो रेणुकासुतः ॥। ६ ॥
वसिष्ठ इन्द्रप्रमदः त्रितो गृत्समदोऽसितः ।
कक्षीवान् गौतमोऽत्रिश्च कौशिकोऽथ सुदर्शनः ॥। ७ ॥
अन्ये च मुनयो ब्रह्मन् ब्रह्मरातादयोऽमलाः ।
शिष्यैरुपेता आजग्मुः कश्यपाङ्‌गिरसादयः ॥। ८ ॥

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार राजा युधिष्ठिर प्रजाद्रोहसे भयभीत हो गये। फिर सब धर्मोंका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे उन्होंने कुरुक्षेत्रकी यात्रा की, जहाँ भीष्मपितामह शरशय्यापर पड़े हुए थे ॥ १ ॥ शौनकादि ऋषियो ! उस समय उन सब भाइयोंने स्वर्णजटित रथोंपर, जिनमें अच्छे-अच्छे घोड़े जुते हुए थे, सवार होकर अपने भाई युधिष्ठिरका अनुगमन किया। उनके साथ व्यास, धौम्य आदि ब्राह्मण भी थे ॥ २ ॥ शौनकजी ! अर्जुनके साथ भगवान्‌ श्रीकृष्ण भी रथपर चढक़र चले। उन सब भाइयोंके साथ महाराज युधिष्ठिरकी ऐसी शोभा हुई, मानो यक्षोंसे घिरे हुए स्वयं कुबेर ही जा रहे हों ॥ ३ ॥ अपने अनुचरों और भगवान्‌ श्रीकृष्णके साथ वहाँ जाकर पाण्डवोंने देखा कि भीष्मपितामह स्वर्गसे गिरे हुए देवताके समान पृथ्वीपर पड़े हुए हैं। उन लोगोंने उन्हें प्रणाम किया ॥ ४ ॥ शौनकजी ! उसी समय भरतवंशियोंके गौरवरूप भीष्मपितामहको देखनेके लिये सभी ब्रहमर्षि, देवर्षि और राजर्षि वहाँ आये ॥ ५ ॥ पर्वत, नारद, धौम्य, भगवान्‌ व्यास, बृहदश्व, भरद्वाज, शिष्योंके साथ परशुरामजी, वसिष्ठ, इन्द्रप्रमद, त्रित, गृत्समद, असित, कक्षीवान्, गौतम, अत्रि, विश्वामित्र, सुदर्शन तथा और भी शुकदेव आदि शुद्ध हृदय महात्मागण एवं शिष्योंके सहित कश्यप, अङ्गिरा-पुत्र बृहस्पति आदि मुनिगण भी वहाँ पधारे ॥ ६-८ ॥ 

शेष आगामी पोस्ट में --
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शनिवार, 23 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 04)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

दूसरा अध्याय  (पोस्ट 04)

 

ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

 

समुद्रवद्‌दुग्धदाश्च तरुणीकरचिह्निताः ।
कुरंगवद्‌विलङ्‍घद्‌भिर्गोवत्सैर्मण्डिताः शुभाः ॥४६॥
इतस्ततश्चलन्तश्च गोगणेषु महावृषाः ।
दीर्घकन्धरशृङ्‌गाढ्या यत्र धर्मधुरंधराः ॥४७॥
गोपाला वेत्रहस्ताश्च श्यामा वंशीधराः पराः ।
कृष्णलीलां प्रगायन्तो रागैर्मदनमोहनैः ॥४८॥
इत्थं निजनिकुञ्जं तं नत्वा मध्ये गताः सुराः ।
ज्योतिषां मण्डलं पद्मं सहस्रदलशोभितम् ॥४९॥
तदूर्ध्वं षोडशदलं ततोऽष्टदलपङ्‍कजम् ।
तस्योपरि स्फुरद्दीर्घं सोपानत्रयमण्डितम् ॥५०॥
सिंहासनं परं दिव्यं कौस्तुभैः खचितं शुभैः ।
ददृशुर्देवताः सर्वाः श्रीकृष्णं राधया युतम् ॥५१॥
दिव्यैरष्टसखीसङ्‍घैर्मोहिन्यादिभिरन्वितम् ।
श्रीदामाद्यैः सेव्यमानमष्टगोपालसेवितैः ॥५२॥
हंसाभैर्व्यजनान्दोलचामरैर्वज्रमुष्टिभिः ।
कोटिचन्द्रप्रतीकाशैः सेवितं छत्रकोटिभिः ॥५३॥
श्री राधिकालङ्‍कृतवामबाहुं
स्वच्छन्दवक्री- कृतदक्षिणाङ्‌घ्रिम् ।
वंशीधरं सुन्दरमन्दहासं
भ्रूमण्डलामोहितकामराशिम् ॥५४॥
घनप्रभं पद्मदलायुतेक्षणं
प्रलम्बबाहुं बहुपीतवाससम् ।
वृन्दावनोन्मत्तमिलिन्दशब्दै-
र्विराजितं श्रीवनमालया हरिम् ॥५५॥
काञ्जीकलाकङ्‍कणनूपुरद्युतिं
लसन्मनोहारि महोज्ज्वलस्मितम् ।
श्रीवत्सरत्‍नोत्तम कुन्तलश्रियं
किरीटहाराङ्‍गदकुण्डलत्विषम् ॥५६॥
दृष्ट्वा तमानन्दसमुद्रमग्नव-
त्प्रहर्षिताश्चाश्रु- कलाकुलेक्षणाः ।
ततः सुराः प्राञ्जलयो नतानना
नेमुर्मुरारिं पुरुषं परायणम् ॥५७॥

दूध देनेमें समुद्रकी तुलना करनेवाली उन गायोंके शरीरपर तरुणियोंके करचिह्न शोभित हैं, अर्थात् युवतियोंके हाथोंके रंगीन छापे दिये गये हैं। हिरनके समान छलांग भरनेवाले बछड़ोंसे उनकी अधिक शोभा बढ़ गयी है। गायों के झुंड में विशाल शरीरवाले साँड़ भी

उधर घूम रहे हैं  उनकी लंबी गर्दन और बड़े-बड़े सींग हैं। उन साँड़ों को साक्षात् धर्मधुरंधर कहा जाता है ॥ ४६-४७ ॥

गौओंकी रक्षा करनेवाले चरवाहे भी अनेक हैं। उनमेंसे कुछ तो हाथमें बेंतकी छड़ी लिये हुए हैं। और दूसरोंके हाथोंमें सुन्दर बाँसुरी शोभा पाती है। उन सबके शरीरका रंग श्यामल है। वे भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रकी लीलाएँ ऐसे मधुर स्वरोंमें गाते हैं कि उसे सुनकर कामदेव भी मोहित हो जाता है | ४८ ॥

इस 'दिव्य निज निकुञ्ज' को सम्पूर्ण देवताओं ने प्रणाम किया और भीतर चले गये । वहाँ उन्हें हजार दलवाला एक बहुत बड़ा कमल दिखायी पड़ा। वह ऐसा सुशोभित था, मानो प्रकाश का पुञ्ज हो ॥ ४९ ॥

उसके ऊपर एक सोलह दलका कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दलवाला कमल है। उसके ऊपर चमचमाता हुआ एक ऊँचा सिंहासन है। तीन सीढ़ियों से सम्पन्न वह परम दिव्य सिंहासन कौस्तुभ मणियों से जटित होकर अनुपम शोभा पाता है । श्रीकृष्णचन्द्र श्रीराधिका जी के साथ विराजमान हैं। ऐसी झाँकी उन समस्त देवताओं को मिली ॥ ५०-५१ ॥

वे युगलरूप भगवान् मोहिनी आदि आठ दिव्य सखियों से समन्वित तथा श्रीदामा प्रभृति आठ गोपालोंके द्वारा सेवित हैं। उनके ऊपर हंस के समान सफेद रंगवाले पंखे झले जा रहे हैं और हीरों से बनी मूँठवाले चँवर डुलाये जा रहे हैं। भगवान्‌ की सेवामें करोंड़ो ऐसे छत्र प्रस्तुत हैं, जो कोटि चन्द्रमाओंकी प्रभासे तुलित हो सकते हैं ॥ ५२-५३ ॥

भगवान् श्रीकृष्णके वामभाग में विराजित श्रीराधिकाजी से उनकी बायीं भुजा सुशोभित है। भगवान् ने स्वेच्छापूर्वक अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है। वे हाथ में बाँसुरी धारण किये हुए हैं। उन्होंने मनोहर मुसकानसे भरे और भ्रुकुटि-विलाससे अनेक कामदेवोंको मोहित कर रखा है ॥ ५४ ॥

उन श्रीहरिकी मेघके समान श्यामल कान्ति है । कमल-दलकी भाँति बड़ी विशाल उनकी आँखें हैं। घुटनोंतक लंबी बड़ी भुजाओंवाले वे प्रभु अत्यन्त पीले वस्त्र पहने हुए हैं। भगवान् गलेमें सुन्दर वनमाला धारण किये हुए हैं, जिसपर वृन्दावनमें विचरण करनेवाले मतवाले भ्रमरोंकी गुंजार हो रही है। पैरोंमें घुंघरू और हाथोंमें कङ्कणकी छटा छिटका रहे हैं। अति सुन्दर मुसकान मनको मोहित कर रही है। श्रीवत्सका चिह्न, बहुमूल्य रत्नोंसे बने हुए किरीट, कुण्डल, बाजूबंद और हार यथास्थान भगवान्- की शोभा बढ़ा रहे हैं।  भगवान् श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवता आनन्द के समुद्र में गोता खाने लगे। अत्यन्त हर्षके कारण उनकी आँखों से आँसुओंकी धारा बह चली। तब सम्पूर्ण देवताओंने हाथ जोड़कर विनीत- भाव से उन परम पुरुष श्रीकृष्ण चन्द्रको प्रणाम किया ॥ ५५-५७ ॥

 

इस प्रकार श्रीगर्ग-संहिता में गोलोकखण्ड के अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवाद में 'श्रीगोलोकधाम का वर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..१४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १४)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

आह राजा धर्मसुतः चिन्तयन् सुहृदां वधम् ।
प्राकृतेनात्मना विप्राः स्नेहमोहवशं गतः ॥ ४७ ॥
अहो मे पश्यताज्ञानं हृदि रूढं दुरात्मनः ।
पारक्यस्यैव देहस्य बह्व्यो मेऽक्षौहिणीर्हताः ॥ ४८ ॥
बालद्विजसुहृन् मित्र पितृभ्रातृगुरु द्रुहः ।
न मे स्यात् निरयात् मोक्षो ह्यपि वर्ष अयुत आयुतैः ॥ ४९ ॥
नैनो राज्ञः प्रजाभर्तुः धर्मयुद्धे वधो द्विषाम् ।
इति मे न तु बोधाय कल्पते शासनं वचः ॥ ५० ॥
स्त्रीणां मत् हतबंधूनां द्रोहो योऽसौ इहोत्थितः ।
कर्मभिः गृहमेधीयैः नाहं कल्पो व्यपोहितुम् ॥ ५१ ॥
यथा पङ्केन पङ्काम्भः सुरया वा सुराकृतम् ।
भूतहत्यां तथैवैकां न यज्ञैः मार्ष्टुमर्हति ॥ ५२ ॥

शौनकादि ऋषियो ! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर को अपने स्वजनों के वध से बड़ी चिन्ता हुई। वे अविवेकयुक्त चित्त से स्नेह और मोह के वश में होकर कहने लगे—भला, मुझ दुरात्मा के हृदय में बद्धमूल हुए इस अज्ञानको तो देखो; मैंने सियार-कुत्तों के आहार इस अनात्मा शरीर के लिये अनेक अक्षौहिणी [*] सेना का नाश कर डाला ॥ ४७-४८ ॥ मैंने बालक, ब्राह्मण, सम्बन्धी, मित्र, चाचा, ताऊ, भाई-बन्धु और गुरुजनोंसे द्रोह किया है। करोड़ों बरसोंमें भी नरकसे मेरा छुटकारा नहीं हो सकता ॥ ४९ ॥ यद्यपि शास्त्रका वचन है कि राजा यदि प्रजाका पालन करनेके लिये धर्मयुद्ध में शत्रुओंको मारे तो उसे पाप नहीं लगता, फिर भी इससे मुझे संतोष नहीं होता ॥ ५० ॥ स्त्रियोंके पति और भाई-बन्धुओंको मारनेसे उनका मेरे द्वारा यहाँ जो अपराध हुआ है, उसका मैं गृहस्थोचित यज्ञ-यागादिकों के द्वारा मार्जन करनेमें समर्थ नहीं हूँ ॥ ५१ ॥ जैसे कीचड़ से गँदला जल स्वच्छ नहीं किया जा सकता, मदिरा से मदिरा की अपवित्रता नहीं मिटायी जा सकती, वैसे ही बहुत-से हिंसाबहुल यज्ञोंके द्वारा एक भी प्राणीकी हत्याका प्रायश्चित्त नहीं किया जा सकता ॥ ५२ ॥

..................................................................
[*] २१८७० रथ,२१८७० हाथी, १०९३५० पैदल, और ६५६१० घुडसवार-इतनी सेना को अक्षौहिणी कहते हैं—महाभारत 

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे कुन्तीस्तुतिर्युधिष्ठिरानुतापो नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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शुक्रवार, 22 मार्च 2024

श्रीगर्ग-संहिता (गोलोकखण्ड) दूसरा अध्याय (पोस्ट 03)


 

# श्रीहरि: #

 

श्रीगर्ग-संहिता

(गोलोकखण्ड)

 

ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

 

श्रीनारद उवाच -
उपहास्यं गता देवा इत्थं तूष्णीं स्थिताः पुनः ।
चकितानिव तान् दृष्ट्वा विष्णुर्वचनमब्रवीत् ॥२९॥


श्रीविष्णुरुवाच -
यस्मिन्नण्डे पृश्निगर्भोऽवतारोऽभूत्सनातन ।
त्रिविक्रमनखोद्‌भिन्ने तस्मिन्नण्डे स्थिता वयम् ॥३०॥


श्रीनारद उवाच -
तच्छ्रुत्वा तं च संश्लाघ्य शीघ्रमन्तःपुरं गता
पुनरागत्य देवेभ्योऽप्याज्ञां दत्त्वा गताः पुरम् ॥३१॥
अथ देवगणाः सर्वे गोलोकं ददृशुः परम् ।
तत्र गोवर्धनो नाम गिरिराजो विराजते ॥३२॥
वसन्तमानिनीभिश्च गोपीभिर्गोगणैर्वृतः ।
कल्पवृक्षलतासङ्‍घै रासमण्डलमण्डितः ॥३३॥
यत्र कृष्णानदी श्यामा तोलिकाकोटिमण्डिता ।
वैदूर्यकृत सोपाना स्वच्छन्दगतिरुत्तमा ॥३४॥
वृन्दावनं भ्राजमानं दिव्यद्रुमलताकुलम् ।
चित्रपक्षिमधुव्रतैर्वंशीवटविराजितम् ॥३५॥
पुलिने शीतले वायुर्मन्दगामी वहत्यलम् ।
सहस्रदलपद्मानां रजो विक्षेपयन्मुहुः ॥३६॥
मध्ये निजनिकुञ्जोऽस्ति द्वात्रिंशद्‌वनसंयुतः ।
प्राकारपरिखायुक्तोऽरुणाक्षयवटाजिरः ॥३७॥
सप्तधा पद्मरागाग्राजिरकुड्यविभूषितः ।
कोटीन्दुमण्डलाकारैर्वितानैर्गुलिकाद्युतिः ॥३८॥
पतत्पताकैर्दिव्याभैः पुष्पमन्दिरवर्त्मभिः ।
जातभ्रमरसङ्‍गीतो मत्तबर्हिपिकस्वनः ॥३९॥
बालार्ककुण्डलधराः शतचन्द्रप्रभाः स्त्रियः ।
स्वच्छन्दगतयो रत्‍नैः पश्यन्त्यः सुन्दरं मुखम् ॥४०॥
रत्‍नाजिरेषु धावंत्यो हारकेयूरभूषिताः ।
क्वणन्नूपुरकिङ्‌किण्यश्चूडामणिविराजिताः ॥४१॥
कोटिशः कोटिशो गावो द्वारि द्वारि मनोहराः ।
श्वेतपर्वतसङ्‍काशा दिव्यभूषणभूषिताः ॥४२॥
पयस्विन्यस्तरुण्यश्च शीलरूपगुणैर्युताः ।
सवत्साः पीतपुच्छाश्च व्रजंत्यो भव्यमूर्तिकाः ॥४३॥
घण्टामंजीरसंरावाः किं‍किणीजालमण्डिताः ।
हेमशृङ्‍ग्यो हेमतुल्यहारमालास्फुरत्प्रभाः ॥४४॥
पाटला हरितास्ताम्राः पीताः श्यामा विचित्रिताः ।
धूम्राः कोकिलवर्णाश्च यत्र गावस्त्वनेकधा ॥४५॥

श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार उपहासके पात्र बने हुए सब देवता चुपचाप खड़े रहे, कुछ बोल न सके। उन्हें चकित-से देखकर भगवान् विष्णुने कहा ।। २९ ।

श्रीविष्णु बोले- जिस ब्रह्माण्ड में भगवान् पृश्निगर्भका सनातन अवतार हुआ है तथा त्रिविक्रम (विराट् - रूपधारी वामन) के नखसे जिस ब्रह्माण्डमें विवर बन गया है, वहीं हम निवास करते हैं ॥ ३० ॥

श्रीनारदजी कहते हैं- भगवान् विष्णुकी यह बात सुनकर शतचन्द्राननाने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और स्वयं भीतर चली गयी। फिर शीघ्र ही आयी और सबको अन्तःपुरमें पधारनेकी आज्ञा देकर वापस चली गयी । तदनन्तर सम्पूर्ण देवताओंने परमसुन्दर धाम गोलोकका दर्शन किया। वहाँ 'गोवर्धन' नामक गिरिराज शोभा पा रहे थे। गिरिराजका वह प्रदेश उस समय वसन्तका उत्सव मनानेवाली गोपियों और गौओंके समूहसे घिरा था, कल्पवृक्षों तथा कल्पलताओंके समुदायसे सुशोभित था और रास- मण्डल उसे मण्डित ( अलंकृत) कर रहा था। वहाँ श्यामवर्णवाली उत्तम यमुना नदी स्वच्छन्द गतिसे बह रही है। तटपर बने हुए करोड़ों प्रासाद उसकी शोभा बढ़ाते हैं तथा उस नदीमें उतरनेके लिये वैदूर्यमणिकी सुन्दर सीढ़ियाँ बनी हैं। वहाँ दिव्य वृक्षों और लताओंसे भरा हुआ 'वृन्दावन' अत्यन्त शोभा पा रहा है; भाँति-भाँतिके विचित्र पक्षियों, भ्रमरों तथा वंशीवटके कारण वहाँकी सुषमा और बढ़ रही है | वहाँ सहस्रदल कमलोंके सुगन्धित परागको चारों ओर पुनः पुनः बिखेरती हुई शीतल वायु मन्द गतिसे बह रही है ॥ ३१-३६ ॥

वृन्दावन के मध्यभाग में बत्तीस वनोंसे युक्त एक 'निज निकुञ्ज' है। चहारदीवारियाँ और खाइयाँ उसे सुशोभित कर रही हैं। उसके आँगनका भाग लाल वर्णवाले अक्षयवटोंसे अलंकृत है। पद्मरागादि सात प्रकारकी मणियोंसे बनी दीवारें तथा आँगनके फर्श बड़ी शोभा पाते हैं। करोड़ों चन्द्रमाओंके मण्डलकी छवि धारण करनेवाले चंदोवे उसे अलंकृत कर रहे हैं तथा उनमें चमकीले गोले लटक रहे हैं। फहराती हुई दिव्य पताकाएँ एवं खिले हुए फूल मन्दिरों एवं मार्गोंकी शोभा बढ़ाते हैं। वहाँ भ्रमरोंके गुञ्जारव संगीतकी सृष्टि करते हैं। तथा मत्त मयूरों और कोकिलोंके कलरव सदा श्रवणगोचर होते हैं ॥ ३७-३९ ॥

वहाँ बालसूर्य के सदृश कान्तिमान् अरुण पीत कुण्डल धारण करनेवाली ललनाएँ शत-शत चन्द्रमाओंके समान गौरवर्णसे उद्भासित होती हैं। स्वच्छन्द गतिसे चलनेवाली वे सुन्दरियाँ मणिरत्नमय भित्तियोंमें अपना मनोहर मुख देखती हुई वहाँके रत्नजटित आँगनोंमें भागती फिरती हैं। उनके गलेमें हार और बाँहोंमें केयूर शोभा देते हैं। नूपूरों तथा करधनीकी मधुर झनकार वहाँ गूँजती रहती है। वे गोपाङ्गनाएँ मस्तकपर चूड़ामणि धारण किये रहती हैं ॥ ४०-४१ ॥

वहाँ द्वार-द्वारपर कोटि-कोटि मनोहर गौओंके दर्शन होते हैं। वे गौएँ दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हैं और श्वेत पर्वतके समान प्रतीत होती हैं। सब की सब दूध देनेवाली तथा नयी अवस्थाकी हैं। सुशीला, सुरुचा तथा सद्गुणवती हैं। सभी सवत्सा और पीली पूँछकी हैं। ऐसी भव्यरूपवाली गौएँ वहाँ सब ओर विचर रही हैं ॥ ४२-४३ ॥

उनके घंटों तथा मञ्जीरों से मधुर ध्वनि होती रहती है। उसीपर भगवान् किङ्किणीजालों से विभूषित उन गौओंके सींगों में सोना मढ़ा गया है। वे सुवर्ण-तुल्य हार एवं मालाएँ धारण करती हैं। उनके अङ्गों से प्रभा छिटकती रहती है। सभी गौएँ भिन्न-भिन्न रंगवाली हैं— कोई उजली, कोई काली, कोई पीली, कोई लाल, कोई हरी, कोई ताँबेके रंगकी और कोई चितकबरे रंगकी हैं। किन्हीं - किन्हींका वर्ण धुए-जैसा है। बहुत-सी कोयलके समान रंगबाली हैं ॥ ४४-४५ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध - आठवां अध्याय..(पोस्ट..१३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ 

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
प्रथम स्कन्ध--आठवाँ अध्याय..(पोस्ट १३)

गर्भ में परीक्षित्‌ की रक्षा, कुन्ती के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और युधिष्ठिर का शोक

सूत उवाच ।

पृथयेत्थं कलपदैः परिणूताखिलोदयः ।
मन्दं जहास वैकुण्ठो मोहयन्निव मायया ॥ ४४ ॥
तां बाढं इति उपामंत्र्य प्रविश्य गजसाह्वयम् ।
स्त्रियश्च स्वपुरं यास्यन् प्रेम्णा राज्ञा निवारितः ॥ ४५ ॥
व्यासाद्यैरीश्वरेहा ज्ञैः कृष्णेनाद्‍भुत कर्मणा ।
प्रबोधितोऽपि इतिहासैः नाबुध्यत शुचार्पितः ॥ ४६ ॥

सूतजी कहते हैं—इस प्रकार कुन्तीने बड़े मधुर शब्दोंमें भगवान्‌ की अधिकांश लीलाओंका वर्णन किया। यह सब सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपनी मायासे उसे मोहित करते हुए-से मन्द-मन्द मुसकराने लगे ॥ ४४ ॥ उन्होंने कुन्तीसे कह दिया—‘अच्छा ठीक है’ और रथके स्थान से वे हस्तिनापुर लौट आये। वहाँ कुन्ती और सुभद्रा आदि देवियोंसे विदा लेकर जब वे जाने लगे, तब राजा युधिष्ठिरने बड़े प्रेमसे उन्हें रोक लिया ॥ ४५ ॥ राजा युधिष्ठिरको अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेका बड़ा शोक हो रहा था। भगवान्‌की लीलाका मर्म जाननेवाले व्यास आदि महर्षियोंने और स्वयं अद्भुत चरित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी अनेकों इतिहास कहकर उन्हें समझानेकी बहुत चेष्टा की; परंतु उन्हें सान्त्वना न मिली, उनका शोक न मिटा ॥ ४६ ॥ 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...