# श्रीहरि:
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श्रीगर्ग-संहिता
(गोलोकखण्ड)
तीसरा
अध्याय (पोस्ट 03)
भगवान्
श्रीकृष्णके श्रीविग्रहमें श्रीविष्णु आदिका प्रवेश;
देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति; भगवान् का
अवतार लेनेका निश्चय; श्रीराधाकी चिन्ता और भगवान् का
उन्हें सान्त्वना प्रदान करना
श्रीराधोवाच
-
भुवो भरं हर्तुमलं व्रजेर्भुवं
कृतं परं मे शपथं शृणोत्वतः ।
गते त्वयि प्राणपते च विग्रहं
कदाचिदत्रैव न धारयाम्यहम् ॥२९॥
यदा त्वमेवं शपथं न मन्यसे
द्वितीयवारं प्रददामि वाक्पथम् ।
प्राणोऽधरे गन्तुमतीव विह्वलः
कर्पूरधूमः कणवद्गमिष्यति ॥३०॥
श्रीभगवानुवाच -
त्वया सह गमिष्यामि मा शोकं कुरु राधिके ।
हरिष्यामि भुवो भारं करिष्यामि वचस्तव ॥३१॥
श्रीराधिकोवाच -
यत्र वृन्दावनं नास्ति यत्र नो यमुना नदी ।
यत्र गोवर्द्धनो नास्ति तत्र मे न मनःसुखम् ॥३२॥
श्रीनारद उवाच -
वेदनागक्रोशभूमिं स्वधाम्नः श्रीहरिः स्वयम् ।
गोवर्धनं च यमुनां प्रेषयामास भूपरि ॥३३॥
तदा ब्रह्मा देवगणैर्नत्वा नत्वा पुनः पुनः ।
परिपूर्णतमं साक्षाच्छ्रीकृष्णं समुवाच ह ॥३४॥
श्रीब्रह्मोवाच -
अहं कुत्र भविष्यामि कुत्र त्वं च भविष्यसि ।
एते कुत्र भविष्यन्ति कैर्गृहैः कैश्च नामभिः ॥३५॥
श्रीभगवानुवाच -
वसुदेवस्य देवक्यां भविष्यामि परः स्वयम् ।
रोहिण्यां मत्कला शेषो भविष्यति न संशयः ॥३६॥
श्री साक्षाद्रुक्मिणी भैष्मी शिवा जांबवती तथा ।
सत्या च तुलसी भूमौ सत्यभामा वसुंधरा ॥३७॥
दक्षिणा लक्ष्मणा चैव कालिन्दी विरजा तथा ।
भद्रा ह्रीर्मित्रविन्दा च जाह्नवी पापनाशिनी ॥३८॥
रुक्मिण्यां कामदेवश्च प्रद्युम्न इति विश्रुतः ।
भविष्यति न सन्देहस्तस्य त्वं च भविषसि ॥३९॥
नंदो द्रोणो वसुः साक्षाद्यशोदा सा धरा स्मृता ।
वृषभानुः सुचन्द्रश्च तस्य भार्या कलावती ॥४०॥
भूमौ कीर्तिरिति ख्याता तस्या राधा भविष्यति ।
सदा रासं करिष्यामि गोपीभिर्व्रजमण्डले ॥४१॥
श्रीराधिकाजीने
कहा- आप पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भूमण्डलपर अवश्य पधारें;
परंतु मेरी एक प्रतिज्ञा है, उसे भी सुन
लें-प्राणनाथ ! आपके चले जानेपर एक क्षण भी मैं यहाँ जीवन धारण नहीं कर सकूँगी।
यदि आप मेरी इस प्रतिज्ञापर ध्यान नहीं दे रहे हैं तो मैं दुबारा भी कह रही हूँ।
अब मेरे प्राण अधरतक पहुँचनेको अत्यन्त विह्वल हैं। ये इस शरीरसे वैसे ही उड़
जायँगे, जैसे कपूरके धूलिकण ॥ २९-३० ॥
श्रीभगवान बोले-हे राधिके ! तुम विषाद मत करो | मैं तुम्हारे साथ चलूँगा और
पृथ्वी का भार दूर करूँगा। मेरे द्वारा तुम्हारी बात अवश्य पूर्ण होगी ॥ ३१ ॥
श्रीराधिकाजीने
कहा - ( परंतु ) प्रभो! जहाँ वृन्दावन नहीं है, यमुना
नदी नहीं है और गोवर्धन पर्वत भी नहीं है, वहाँ मेरे मनको
सुख नहीं मिलता ॥ ३२ ॥
नारदजी
कहते हैं— ( श्रीराधिकाजीके इस प्रकार कहनेपर) भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने अपने
धामसे चौरासी कोस भूमि, गोवर्धन पर्वत एवं
यमुना नदीको भूतलपर भेजा। उस
उस
समय सम्पूर्ण देवताओंके साथ ब्रह्माजीने परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्णको बार-बार
प्रणाम करके कहा ।। ३३-३४ ॥
श्रीब्रह्माजीने
पूछा- भगवन्! मेरे लिये कौन स्थान होगा? आप
कहाँ पधारेंगे ? तथा ये सम्पूर्ण देवता किन गृहों में रहेंगे
और किन-किन नामों से इनकी प्रसिद्धि होगी ? ॥ ३५ ॥
श्रीभगवान्
ने कहा- मैं स्वयं वसुदेव और देवकीके यहाँ
प्रकट होऊँगा। मेरे कलास्वरूप ये 'शेष'
रोहिणी के गर्भ से जन्म लेंगे - इसमें संशय नहीं है। साक्षात् 'लक्ष्मी' राजा भीष्मक के घर पुत्रीरूप से उत्पन्न
होंगी। इनका नाम 'रुक्मिणी' होगा और 'पार्वती' 'जाम्बवती' के नाम से
प्रकट होंगी। तुलसी सत्या के रूप में अवतरित होंगी ।। ३६-३७ ॥
यज्ञपुरुष
की पत्नी 'दक्षिणा देवी' वहाँ 'लक्ष्मणा' नाम धारण
करेंगी। यहाँ जो 'विरजा' नाम की नदी है,
वही 'कालिन्दी' नामसे
विख्यात होगी। भगवती 'लज्जा' का नाम 'भद्रा' होगा। समस्त पापोंका प्रशमन करनेवाली 'गङ्गा' 'मित्रविन्दा' नाम धारण
करेगी ।। ३८ ॥
जो
इस समय 'कामदेव' हैं, वे ही रुक्मिणीके
गर्भसे 'प्रद्युम्न' रूपमें उत्पन्न
होंगे। प्रद्युम्न के घर तुम्हारा अवतार होगा। [उस समय तुम्हें 'अनिरुद्ध' कहा जायगा], इसमें
कुछ भी संदेह नहीं है। ये 'वसु' जो स्वयं 'द्रोण' के नामसे प्रसिद्ध हैं, व्रजमें 'नन्द' होंगे और स्वयं इनकी प्राणप्रिया 'धरा देवी' 'यशोदा' नाम धारण करेंगी।
'सुचन्द्र' 'वृषभानु' बनेंगे तथा इनकी सहधर्मिणी 'कलावती' धराधामपर 'कीर्ति' के नामसे
प्रसिद्ध होंगी। फिर उन्हींके यहाँ इन श्रीराधिकाजी का प्राकट्य होगा। मैं
व्रजमण्डलमें गोपियों के साथ सदा रास विहार करूँगा ।। ३९-४१ ॥
इस
प्रकार श्रीगर्गसंहिता में गोलोकखण्डके अन्तर्गत श्रीनारद - बहुलाश्व-संवादमें 'भूतलपर अवतीर्ण होने के उद्योग का वर्णन' नामक तीसरा
अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से