'श्री गीताजयन्ती' एवं 'मोक्षदा एकादशी' के अवसर पर
आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ.....
आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ.....
“वसुदेवसुतं देवं कंस चाणूरमर्दनं |
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ||”
देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ||”
“ श्रीमद्भगवद्गीता “ भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी है”
वेद, भगवान के नि:श्वास हैं और गीता भगवान की वाणी है | नि:श्वास तो स्वाभाविक होते हैं,पर गीता भगवान ने योग में स्थित होकर कही है | अत: वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है |
वेद, भगवान के नि:श्वास हैं और गीता भगवान की वाणी है | नि:श्वास तो स्वाभाविक होते हैं,पर गीता भगवान ने योग में स्थित होकर कही है | अत: वेदों की अपेक्षा भी गीता विशेष है |
“ न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषत:|
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया ||” (महाभारत आश्व०१६/१२-१३)
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया ||” (महाभारत आश्व०१६/१२-१३)
गीता उपनिषदों का सार है | गीता की बात उपनिषदों से ही विशेष है |गीता में किसी मत का आग्रह नहीं है केवल जीव के कल्याण का ही आग्रह है | मतभेद यदि कोई है तो गीता में नहीं , प्रस्तुत टीकाकारों में है | गीता में भगवान साधक को समग्र की ओर ले जाते हैं | सगुण निर्गुण,साकार-निराकार, द्विभुज,चतुर्भुज,सहस्रभुज आदि सब रूप परमात्मा के ही अंतर्गत हैं | समग्र रूप में कोई भी रूप बाकी नहीं रहता | किसी की भी उपासना करें,सम्पूर्ण उपासनाएं, सम्पूर्ण दर्शन,समग्र रूप के अंतर्गत आ जाते हैं | अत: सब कुछ परमात्मा के ही अंतर्गत है, परमात्मा के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ भी नहीं- इसी भाव में सम्पूर्ण गीता है | गीता का तात्पर्य “वासुदेव: सर्वम्” में है | एक परमात्म तत्व के सिवाय दूसरी सत्ता की मान्यता रहने से प्रवृत्ति का उदय होता है और दूसरी सत्ता की मान्यता मिटने से निवृत्ति की दृढता होती है | प्रवृत्ति का उदय होना ‘भोग’ है और निवृत्ति की दृढता होना ‘योग’ है |
गीता “सब कुछ परमात्मा है”-- ऐसा मानती है और इसी को महत्त्व देती है | संसार में कार्यरूप से,कारणरूप से,प्रभावरूप से, सब रूपों से “में-ही-में-हूं” यह बताने के लिये भगवान ने गीता में चार जगह (सातवें,नवें,दसवें,और पन्द्रहवें अध्याय मे) अपनी विभूतियों का वर्णन किया है | ब्रह्म (निर्गुण-निराकार),कृत्स्न अध्यात्म (अनंत योनियों के अनंत जीव), अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ), अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत्) अधिदैव (मन,इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अंतर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)- ये सब -के -सब “ वासुदेव:सर्वम् “ के अंतर्गत आ जाते हैं (सातवें अध्याय का उन्तीसवाँ -तीसवां श्लोक) | तात्पर्य है कि सत् , असत् और उसके परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं – “त्वमक्षरं सद्सत्त्परं यत्” (गीता ११/३७) |
गीता “सब कुछ परमात्मा है”-- ऐसा मानती है और इसी को महत्त्व देती है | संसार में कार्यरूप से,कारणरूप से,प्रभावरूप से, सब रूपों से “में-ही-में-हूं” यह बताने के लिये भगवान ने गीता में चार जगह (सातवें,नवें,दसवें,और पन्द्रहवें अध्याय मे) अपनी विभूतियों का वर्णन किया है | ब्रह्म (निर्गुण-निराकार),कृत्स्न अध्यात्म (अनंत योनियों के अनंत जीव), अखिल कर्म (उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय आदि सम्पूर्ण क्रियाएँ), अधिभूत (अपने शरीरसहित सम्पूर्ण पांच भौतिक जगत्) अधिदैव (मन,इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता सहित ब्रह्माजी आदि सभी देवता) तथा अधियज्ञ (अंतर्यामी विष्णु और उनके सभी रूप)- ये सब -के -सब “ वासुदेव:सर्वम् “ के अंतर्गत आ जाते हैं (सातवें अध्याय का उन्तीसवाँ -तीसवां श्लोक) | तात्पर्य है कि सत् , असत् और उसके परे जो कुछ भी है, वह सब परमात्मा ही हैं – “त्वमक्षरं सद्सत्त्परं यत्” (गीता ११/३७) |
संसार अपने राग के कारण ही दीखता है | राग के कारण ही दूसरी सत्ता दीखती है | राग न हों तो एक परमात्मा के सिवाय कुछ भी नहीं है | जैसे भगवान ने कहा है – “सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:” (गीता १५/१५) “ मैं ही सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हूं “ | जिस हृदय में भगवान रहते हैं, उसी हृदय में राग-द्वेष, हलचल,अशांति होते हैं | हृदय में ही सुख होता है और हृदय में ही दु:ख आता है | समुद्र मंथन में वहीं से विष निकला,वहीं से अमृत निकला | भगवान शंकर ने विष पी लिया तो अमृत निकल आया | इसी तरह राग द्वेष को मिटा दें तो परमात्मा निकल आएंगे | सन्त महात्माओं के हृदय में राग द्वेष नहीं रहते; अत: वहाँ परमात्मा रहते हैं | गीता, ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों को समकक्ष और लौकिक बताती है | क्षर (जगत् और अक्षर (जीव) दोनों लौकिक हैं – “द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च” (गीता १५/१६१६) पर भगवान अलौकिक हैं – “उत्तम:पुरुषस्त्वन्य:” (गीता १५/१७) क्षर को लेकर कर्मयोग और अक्षर को लेकर ज्ञान योग चलता है; अत: कर्मयोग और ज्ञानयोग- दोनों लौकिक हैं | परन्तु भक्तियोग भगवान को लेकर चलता है; अत: भक्तियोग अलौकिक है |
भगवान की वाणी बड़े बड़े ऋषि-मुनियों की वाणी से भी ठोस और श्रेष्ट है; क्योंकि भगवान, ऋषि-मुनियों के भी आदि हैं— “ अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश: “ (गीता १०/२) अत: कितने ही बड़े ऋषी – मुनि, सन्त महात्मा क्यों न हों और उनकी वाणी कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हों, पर वह भगवान की दिव्यातिदिव्य वाणी “ गीता “ की बराबरी नहीं कर सकती |
(गीताप्रेस-श्रीमद्भगवद्गीता साधक संजीवनी से संकलित)