शनिवार, 30 दिसंबर 2017

सच्चा सुधारक गोस्वामी तुलसीदासजी (पोस्ट 01)

**श्रीजानकीवल्लभो विजयते**
सच्चा सुधारक
गोस्वामी तुलसीदासजी (पोस्ट 01)

( बाबा राघवदासजी )
स्वामी रामतीर्थजीने एक बार कहा था कि ‘एफ़ोर्मेर्स, नोत ओफ़ ओथेर्स बुत ओफ़ थेम्सेल्वेस, व्हो एअर्नेद नो उनिवेर्सित्य दिस्तिन्च्तिओन बुत चोन्त्रोल ओवेर थे लोचल सेल्फ़’ अर्थात्‌ हमें ऐसे सुधारक चाहिये जो दूसरोंका नहीं, पर अपना सुधार करना चाहते हैं, जिन्हें विश्वविद्यालयकी उपाधियां प्राप्त नहीं हैं, पर जो अपने आत्मापर शासन कर सकते हैं।*
(* भगवान्‌ श्रीकृष्णने भी श्रीगीतोक्त अमृतोपदेश में यही उपदेश दिया है-‘उद्धरेदात्मनात्मानम्‌’ आप ही अपना उद्धार करे । )
संसारमें जिन महापुरुषोंने ऐसा किया है, उनमें भगवद्भक्ति-परायण पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज का नाम विशेष उल्लेखनीय है। गोस्वामी जी महाराजने जो कुछ सुधार का काम किया सो केवल अपने ही सुधार का किया। वे आजकल की भांति आत्मनिरीक्षण न कर पराये सुधार का दम नहीं भरते थे। उनके जीवनमें ऐसे प्रसंग नहींके बराबर हैं जिनमें उन्होंने दूसरोंको उपदेश देनेके लिये कभी प्रवचन आदि किया हो। अपने जगत्‌-प्रसिद्ध पुण्य-ग्रन्थ श्रीरामचरितमानसके आरम्भमेंआप कहते हैं-
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथगाथा,
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति।
मानसमें वन्दना करते समय तो आपने बड़ी ही खूबी से आत्म-संशोधन का कार्य किया है । आपने कहा है-
आकर चारि लाख चौरासी।
जाति जीव जल थल नभबासी॥
सीयराममय सब जग जानी।
करौं प्रणाम जोरि जुग पानी॥
जानि कृपा करि किंकर मोहू।
सब मिलि करहु छाँड़ि छल छोहु॥
निज बल बुधि भरोस मोहि नाहीं।
तातें विनय करौं सब पाही॥
आज जिसके भक्ति-सुधा-पूर्ण महान्‌ काव्यकी धूम सारे संसारमें मच रही है, जो जगत्‌का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है, जिसकी उपर्युक्त पंक्तियोंमें भी अनुप्रास प्रासादिक भरे हैं, वह हृदयके सच्चे भावोंसे किस प्रकार सबके आशीर्वादका इच्छुक है। कितना बड़ा आत्म-संशोधन है! सर्वव्यापी भगवान्‌के सर्वव्यापीपनमें कैसी विलक्षण एकनिष्ठा है!
आपका दूसरा प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रन्थ विनयपत्रिका है, वह तो उनके आत्म-संशोधनका एक अनुपम संग्रह है। एक जगह आप कितनी दीनता के साथ भगवान्‌ से अपने उद्धार के लिये प्रार्थना करते हैं-
माधव अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर मोर पन जिअ‍हु कमल पद लेखे॥
जबलगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास तैं स्वामी।
तबलगि जो दुख सहेउं कहेउं नहिं जद्यपि अन्तरजामी।
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत स्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ तोहि मोहि अब न तजै बनि आवै॥
यह केवल दिखानेके लिये शब्द-रचनामात्र नहीं है, गोस्वामीजी महाराज अपने प्रभुके सम्मुख हृदय खोलकर रख रहे हैं और विनयपूर्वक अपने उद्धारके लिये प्रार्थना कर रहें हैं। इतना ही नहीं वे अपने मन-इन्द्रियोंसे भी इस कार्यमें सहायता चाहते हैं-
रुचिर रसना तू राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख सुकृत बढ़त अघ अमंगल घटत॥
एक स्थानपर आप अपने उद्धार-कार्योंको लोगोंकी दृष्टिमें अधिक चढ़ा हुआ देखकर बड़ी ग्लानिसे कहते हैं-
लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराधको न मन बावौं॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो॥
शेष आगामी पोस्ट में –
------००४. ०२. भाद्रपद कृष्ण ११ सं० १९८६. कल्याण ( पृ० ५७१ )


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